मेरे सवाल – उनके जवाब

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आज हम मिलते हैं जोरहाट, असम के उस साहित्यकार से जिसकी लेखनी न सिर्फ कई विधाओं बल्कि कई भाषाओं में भी सरपट दौड़ती है। पूर्वोत्तर भारत का जाना-पहचाना नाम है पैसठ वर्षीय डॉ. रुणु बरुवा ‘रागिनी’ का जो खुलकर कहती हैं कि जिसे पिंजरे से प्यार हो जाए वह कभी आजाद नहीं हो सकता। भरे पूरे परिवार में सदा पति और परिजनों ने उनका साथ निभाया है। वैसे तो साहित्यिक सम्मानों की लम्बी फेहरिस्त है।
विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर से सन् 2011 में विद्यावाचस्पति (डॉक्टरेट) की उपाधि अधिकृत की गई है।
अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मान, पूर्वोत्तर विशेष अकादमी सम्मान, अन्तरराष्ट्रीय तथागत सृजन सम्मान, साहित्य रत्न सम्मान, साहित्य श्री सम्मान, तुलसी सम्मान, साहित्य गौरव सम्मान, मात्सुओ “बासो” सम्मान, सरस्वती सम्मान, सखी गौरव सम्मान, साहित्य के दमकते दीप साहित्यकार सम्मान, राष्ट्रीय स्तर पर हाइकु प्रतियोगिता में प्रथम विजेता का सम्मान, महादेवी वर्मा सम्मान, लायन्स इन्टरनेशनल से अनेकों सम्मान और एम जे एफ का उच्च सम्मान आदि से सम्मानित हुई हैं। प्रस्तुत हूँ मैं यानि कि डॉ. अवधेश कुमार ‘अवध’ मेरे सवाल और उनके जवाब के साथ –
सवाल – पूर्वोत्तर में हिंदी का डंका बजाना कैसे सम्भव हो पाया?
जवाब – सरकारी नौकरी के दौरान मेरी काॅलिग जो मेरी तरह ही असमिया है, मेरी हिंदी कविताओं को मुझसे सुनती और बहुत उत्साहित करती। उसी की अनुप्रेरणा से मैने अपनी पहली पुस्तक ‘श्रद्धार्घ’ छपवाई। इस किताब को साहित्यकारों ने बहुत सराहा।  इसी बीच मैं डाॅ राजेन्द्र परदेसी जी के संपर्क में आई। फिर नूतन साहित्य कुंज नामक ग्रुप के संस्थापक अध्यक्ष डाॅ. अवधेश कुमार ‘अवध’ जी के। आपने मुझे अपनी बड़ी बहन का दर्जा दिया और मेरी पुस्तक ‘श्रद्धार्घ’ की समीक्षा की। इसी तरह कई ग्रुप से जुड़ी और मैंने स्वयं ‘पूर्वाशा हिन्दी अकादमी’ के नाम से एक ग्रुप खोला जिसका लक्ष्य हिन्दी का प्रचार और प्रसार है। यह ग्रुप नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति के साथ जुड़ कर हिन्दी के लिए पूर्वोत्तर में काम कर रही है । दूर दराज के जनजातीय इलाके में हिंदी शिक्षक की हमने व्यवस्था की, खर्चा भी उठाया है।
सवाल – आपको अपने जीवन में कब लगा कि आपको साहित्य की दुनिया से जुड़ना चाहिए ?
जवाब – पहली किताब छपने के बाद मेरी दूसरी किताब छपी ‘परछाई ‘ जो रुबाई पर आधारित थी। फिर छपी ‘खाइए खिलाइए असम के व्यंजन ‘ जिसमें असम के पकवान और रीति रिवाज को सरल हिन्दी में लिखा था। इसी भांति मेरी लिखी सात किताबें छपीं जिनमें हिन्दी से असमिया और असमिया से हिन्दी में अनुवाद भी था। एक दर्जन के करीब सांझा पुस्तके भी छप चुकी हैं। पूर्वांचल प्रहरी और उसके आवासीय संपादक श्री पी. के. सिंह हमेशा मुझसे लेख और कविता की मांग करते थे। कई  मैग्जीन  (हिन्दी और इंग्लिश) भी मुझसे रचनाएं मांगने लगे और मेरा साहित्य की दुनिया में प्रवेश हो गया। पता ही नहीं चला कब मैं इसका हिस्सा बन गई।
सवाल –  एक रचनाकार कब और क्या लिख देता है जिससे वह संतुष्ट हो जाता है ?
जवाब – लेखन एक कला है । मुझे लगता है कि यह कला सबको ईश्वर नहीं देता है। इस कला को कल्पना, पीड़ा और विभिन्न अनुभव ही परवान चढ़ाते हैं। दूसरों का तो पता नहीं, हां, मैं अपने बारे में इतना जरुर कह सकती हूँ कि मेरा बचपन चाय बागान में बड़ी तन्हाई में गुजरा । मास्टर घर आकर पढ़ाते। स्कूल का जीवन नहीं मिला । ‘पराग’ और ‘चंदामामा’ हिन्दी में तथा ‘शुकतारा’ बेंगोली में हर महीने पढ़ती। आठ – दस साल की उम्र में तुकबंदी कर लिया करती थी ।अभी भी कुछ अपरिपक्व कविताएं  (तब लिखी) कहीं मेरी लाइब्रेरी में होगी। मन में उभरते भाव, कभी कल्पना करके, कभी किसी खास अवसर पर और कभी समाज या देश में घटित कुछ एक घटनाओं पर लिखकर मन को अच्छा लगता है।
सवाल – साहित्य की किन विधाओं में आपको लिखना रुचिकर लगता है और क्यों ?
जवाब – लघुकथा, अतुकांत और सायली छंद प्रिय हैं मुझे । लघुकथा में कम शब्दों में अपनी बात को समझाने में मजा आता है । अतुकांत में बंदिशों से मुक्त हो कर लिखने में आसानी होती है । मात्राभार आदि के चक्कर में कई बार जो कहना चाहा वो न लिख कर कुछ और ही लिखना पड़ जाता है। सायली छंद मुझे अपनी बात कहने के लिए काफी सुविधा देते हैं अतः ये विधाएं मुझे रुचिकर लगती हैं।
सवाल – आप अनवरत लिखती क्यों हैं? इतना श्रम करके क्या मिलता है आपको?
जवाब – एक कलमकार अपनी लेखनी के  बगैर कुछ नहीं। जिस दिन बिना कुछ लिखे बीत जाता है, उस दिन एक खालीपन सा मन को सालता है।  कहते हैं न कि दर्द बांटो तो कम हो जाता है और खुशी बांटो तो खुशी बढ़ जाती है । एक कलाकार को भी इसी तरह सुकून मिलता है ।
सवाल – साहित्य समाज को आज क्या दे सकता है ? सामाजिक अवमूल्यन से उबरने में क्या साहित्य कारगर हो सकता है?
जवाब – कहते हैं कि कलम में तलवार से ज्यादा ताकत होती है । चूँकि साहित्यकार भी इसी समाज का अंग है, अतः उसका यह दायित्व बन जाता है कि वह समाज में हो रहे भ्रष्टाचार, अन्याय, अत्याचार आदि हर प्रकार के दुष्कर्म को सबसे रू-ब-रू करे। साहित्य निश्चय ही समाज में परिवर्तन और क्रांति ला सकता है । हिंसा, आतंकवाद, धार्मिक असहिष्णुता जैसे अनेकों विषयों पर समाज में प्रेम सौहार्द का संदेश उत्तम साहित्य लोगों में फैला सकता है ।
सवाल – साहित्य के सारे कार्य प्रायोजित हो रहे हैं। ऐसे साहित्य पर आपके क्या विचार हैं ?
जवाब – देश और समाज में अगर नैतिकता का अभाव होने लगे तो इसका प्रभाव हर क्षेत्र में पड़ना स्वाभाविक है । साहित्य भी इससे अछूता नहीं है । यह एक विडंबना ही है कि खुद को समाज का ठेकेदार मानने वाले लोग साहित्य में भी घुसपैठ करने से नहीं चूकते । असल में साहित्य की सेवा से ज्यादा साहित्य को माध्यम बना कर धन की प्राप्ति ही खास मकसद बन गया है । इस मानसिकता से साहित्यकारों को उबरना होगा ।
सवाल – एक पाठक के रूप में आप कैसा साहित्य पसंद करती हैं?
जवाब – किसी भी विधा में कोई भी रचना हो, अगर वह मन को छू ले या फिर मनन करने पर बाध्य करे, तो निश्चय ही मैं उस रचना को श्रेष्ठ मानूँगी। बड़े बड़े साहित्यकारों की रचनाएँ तो निस्संदेह उत्कृष्ट होती हैं परन्तु कभी कभी किसी नवोदित रचनाकार की रचना भी मन मष्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती है ।
सवाल – एक साहित्यकार का अपने मुहल्ले /पड़ोस तथा अपने घर में क्या स्थिति होती है ? क्या उस स्थिति से वह खुद को संतुष्ट रख पाता है ?
जवाब – इस प्रश्न पर हँसी आ गई है । कहते हैं न…घर की मुर्गी दाल बराबर…..। मैं हिन्दी में लिखती हूँ और पास पड़ोस के लोग हिन्दी समझ- बोल तो लेते है परंतु हिन्दी  साहित्य में ज्ञान का अभाव है । निश्चय ही यह स्थिति संतोषजनक नहीं है ।
सवाल – एक साहित्यकार की सर्वाधिक भूख क्या है ?यश/ सम्मान/पुरस्कार या अधिकाधिक पाठक या श्रोता ?
जवाब – निश्चय ही अधिकाधिक पाठक या श्रोता एक साहित्यकार को खुशी देते हैं। कहीं-कहीं इसके विपरीत भी देखा गया है । या तो जिनमें पूरी काबिलियत नहीं है या फिर जिनके पास धन का अभाव नहीं है,  ऐसे लोग यश/सम्मान /पुरस्कार बड़े पैमाने पर डोनेशन देकर भी प्राप्त कर लेते हैं।
सवाल – साहित्य का चरमोत्कर्ष आपकी नजर में क्या है ?
जवाब – जब साहित्य लोगों में जागरूकता पैदा करने में सक्षम हो, अच्छे-बुरे का फर्क समझा सकने में सफल हो और देशभक्ति के जज्बे से कौम को सही दिशा निर्देश दे सके, मेरे विचार में वह साहित्य का चरमोत्कर्ष होगा।
सवाल – एक आख़िरी सवाल। आप एक साहित्यकार के रूप में लोगों को क्या संदेश देना चाहेंगी?
जवाब – मैं पाठकों और श्रोताओं से यही कहना चाहूँगी कि आप हैं तो साहित्य है। आप जैसे साहित्य को प्रोत्साहन देगें, साहित्यकार भी आपको वैसा ही साहित्य परोसेगा। अच्छे, विद्वत साहित्यकारों को अगर आप नहीं पढ़ेगें/सुनेंगे तो यह युग उत्कृष्ट साहित्य से वंचित रह जाएगा । कृपया अच्छे साहित्य को सम्मान दीजिए और नई पीढ़ी को साहित्य के प्रभाव और आवश्यकता के विषय में जरूर बताएँ।
मेरे सभी सवालों को बहुत ही धैर्य से सुनकर डॉ. रुणु बरुवा ‘रागिनी’ जी ने बिना किसी लाग लपेट के संजीदगी से स्पष्ट जवाब दिया। उम्मीद है कि उनके बारे में जानकर और उनसे प्रेरणा लेकर नवोदित रचनाकार अवश्य लाभान्वित होंगे।
परिचय
नाम : अवधेश कुमार विक्रम शाह
साहित्यिक नाम : ‘अवध’
पिता का नाम : स्व० शिवकुमार सिंह
माता का नाम : श्रीमती अतरवासी देवी
स्थाई पता :  चन्दौली, उत्तर प्रदेश
 
जन्मतिथि : पन्द्रह जनवरी सन् उन्नीस सौ चौहत्तर
शिक्षा : स्नातकोत्तर (हिन्दी व अर्थशास्त्र), बी. एड., बी. टेक (सिविल), पत्रकारिता व इलेक्ट्रीकल डिप्लोमा
व्यवसाय : सिविल इंजीनियर, मेघालय में
प्रसारण – ऑल इंडिया रेडियो द्वारा काव्य पाठ व परिचर्चा
दूरदर्शन गुवाहाटी द्वारा काव्यपाठ
अध्यक्ष (वाट्सएप्प ग्रुप): नूतन साहित्य कुंज, अवध – मगध साहित्य
प्रभारी : नारायणी साहि० अकादमी, मेघालय
सदस्य : पूर्वासा हिन्दी अकादमी
संपादन : साहित्य धरोहर, पर्यावरण, सावन के झूले, कुंज निनाद आदि
समीक्षा – दो दर्जन से अधिक पुस्तकें
भूमिका लेखन – तकरीबन एक दर्जन पुस्तकों की
साक्षात्कार – श्रीमती वाणी बरठाकुर विभा, श्रीमती पिंकी पारुथी, श्रीमती आभा दुबे एवं सुश्री शैल श्लेषा द्वारा
शोध परक लेख : पूर्वोत्तर में हिन्दी की बढ़ती लोकप्रियता
भारत की स्वाधीनता भ्रमजाल ही तो है
प्रकाशित साझा संग्रह : लुढ़कती लेखनी, कवियों की मधुशाला, नूर ए ग़ज़ल, सखी साहित्य, कुंज निनाद आदि
प्रकाशनाधीन साझा संग्रह : आधा दर्जन
सम्मान : विभिन्न साहित्य संस्थानों द्वारा प्राप्त
प्रकाशन : विविध पत्र – पत्रिकाओं में अनवरत जारी
सृजन विधा : गद्य व काव्य की समस्त प्रचलित विधायें
उद्देश्य : रामराज्य की स्थापना हेतु जन जागरण 
हिन्दी भाषा एवं साहित्य के प्रति जन मानस में अनुराग व सम्मान जगाना
पूर्वोत्तर व दक्षिण भारत में हिन्दी को सम्पर्क भाषा से जन भाषा बनाना
 
तमस रात्रि को भेदकर, उगता है आदित्य |
सहित भाव जो भर सके, वही सत्य साहित्य ||

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संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।