मोबाइल नंबर

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*jitendra shivhare

*प्र* गति को उसकी भाभी दिव्या ने करण का मोबाइल नंबर लाकर दिया। दिव्या चाहती थी कि प्रगति स्वयं करण से बात करे। बाहर जाकर मिले-जुले ताकी दोनों के परस्पर विचार सांझा हो सके। वे दोनों एक-दूसरे के विषय में अधिक से अधिक जाने, जिससे विवाह उपरांत कोई परेशानी न हो। प्रगति और करण दोनों के परिवारों ने मिलकर इन दोनों के परिणय सूत्र बंधन का विचार आपसी सहमती से तैयार किया है। भावि वर वधू को देखने-दिखाने की घड़ी नजदीक आ रही थी। इससे पुर्व की दोनों एक-दूसरे को प्रत्यक्ष देख पाते, करण के वयोवृद्ध दादाजी स्वर्गवासी हो गये। फलस्वरूप प्रगति के घर जाकर उसे देखने का विचार निरस्त कर दिया गया। करण के पिता दिलीप सिंह ने दोनों की सगाई पर ही देखने-समझने की रस़्म आयोजित करने का प्रस्ताव प्रगति के परिवार के सम्मुख रख दिया। करण को प्रगति के पारिवारिक सदस्य समाज के परिचय सम्मेलन में देख चूके थे। सो दिलीप सिंह के प्रस्ताव को प्रगति के पिता मिश्रीलाल राय ने सहमती प्रदान कर दी। प्रगति अपने हाथों में मोबाइल लेकर बैठी थी। घर वालों के सामने करण से बात कैसे करे? दिव्या ने प्रगति की विवशता जान ली। उसने प्रगति को उपाय सुझाया की रात के भोजन के उपरांत टेरिस पर जाकर वह करण से बात सकती है। प्रगति प्रसन्न हो उठी। करण से बात करने के विषय में सोचकर ही उसके ह्दय की गति बढ़ जाया करती। दिन था की ढलने का नाम ही नहीं ले रहा था। टीवी सीरियल देख-देखकर प्रगति बोर चूकी थी। कई बार तो उसका मन किया की बाहर जाकर करण से फोन पर बात कर लें। मगर इस कढ़ी धूप में कौनसा बहाना बनाकर घर से बाहर निकला जाये? प्रगति ने अपनी भाभी दिव्या को मसखा लगाया।
“चलो न भाभी! बाहर चौराहे पर जाकर जूस पीकर आते है?”
“पागल है क्या? इस कढ़ी धूप में बाहर जाना! न बाबा। मां जी गुस्सा करेंगी।”
“चलो न भाभी! जल्दी लौट के आ जायेगें।”
“और मां जी से क्या कहेंगे? हमारे लिए वो यहीं जूस मँगवा देगीं, समझी।” दिव्या ने कहा।
प्रगति की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। दिव्या ने उसे धीरज रखने की सलाह दी। दिव्या चार माह की प्रेग्नेंट थी इसलिए प्रगति ने उसे ज्यादा जोर नहीं दिया बाहर चलने के लिए।
घड़ी की सुईयां आज बड़ी ही सुस्त चल रही थी। प्रगति एक-एक मिनट की गिनती कर समय निकाल रही थी। मोबाइल पर खेल खेलना भी उसे आज अरूचिपुर्ण लग रहा था। घर के कामकाज वह दो-दो बार कर चूकी थी। आज घर में उसके लिए कोई कार्य नहीं शेष था जिसे कर वह शाम तक समय निकाल सके। दोपहर की नींद लेने का विचार कर जैसे ही लेटना चाहा, करण का स्मरण आते ही आंखे खुल गई। घर के बाकी सदस्य थे जो कुलर की ठण्डी-ठण्डी हवा में घोड़े बेचकर सो रहे थे। प्रगति ने आज का अखबार उठा लिया जिसे वह सुबह ही पुरा पढ़ चूकी थी। अखबार की किसी भी खबर पर उसकी आंखे क्षण भर के लिए भी टीक नहीं पा रही थी। पन्ने उलट-पलट के सारा अखबार छान मारा लेकिन प्रगति के लिए उसमें भी कोई काम की खबर नहीं थी। उसे करण पर गुस्सा आ रहा था। वह तो एक लड़का है। उसे तो फोन कर लेना चाहिए था। उसका फोन आता तो घर में कोई सवाल खड़े नहीं करता। लेकिन प्रगति द्वारा करण को फोन करते हुए यदि उसे किसी ने पकड़ लिया तो बखेड़ा खड़ा हो सकता था। प्रगति के बड़े भैया बहुत क्रोधित स्वभाव के थे। उनसे पुरा घर भर भय खाता था। यहां तक कि प्रगति के पिता भी विजय का हर मामले में सपोर्ट किया करते थे। अप्रत्यक्ष रूप से घर के मुखिया का दायित्व विजय राय पर आ चूका था। उन तक यह खबर न पहूंचे इसलिए आज रात की प्रतिक्षा करने का निर्णय दिव्या के कहने पर प्रगति ने ले ही लिया।
प्रगति को जब से करण का मोबाइल नंबर दिव्या ने उपलब्ध कराया था, तब से माह के उन दिनों की शारीरिक पीड़ा सह रही प्रगति सबकुछ भूल चुकी थी। दिव्या, प्रगति की इस अवस्था में भी आश्चर्यचकित कर देने वाली चुस्ती-फुर्ती देख रही थी। शाम चार बजे घर के सामने से सब्जी वाला गुजरा। सब्जी वाले की सब्जी विक्रय की गुहार को सबसे पहले प्रगति ने श्रवण किया। उसने अपनी मां को जगाया यह बोलकर की शाम के भोजन हेतु कौनसी बनानी जानी है? ताकी वह घर के बाहर खड़े सब्जी वाले से सब्जियां खरिद लाये। मां ने प्रगति को मना कर अपनी बहु दिव्या को सब्जियां लेने हेतु कहा। मां पुराने विचारों की थी यह सोचकर प्रगति ने उनकी मनाही हृदय पर नहीं लगाई। प्रगति चाहती थी कि जल्दी से जल्दी भोजन बनाने का कार्य आरंभ कर दिया जाये जिससे पारिवारिक सदस्य भोजन से निवृत्त होकर सोने चले जाये। तदुपरांत वह करण से फोन पर वार्ता कर सके। लेकिन भोजन से पुर्व अभी शाम की चाय बनना थी। दिव्या चाय बनाने किचन में चली गई। मगर यह क्या? भीषण गर्मी का प्रकोप दूध पर कहर बनकर गिर पड़ा था। तपेली में रखा दुध फट चूका था। दिव्या ने अनुभव किया कि परिवार के किसी सदस्य ने फ्रिज से दुध की तपेली निकाल कर फ्रिज के उपर ही रख दी थी। अपनी पसंद की वस्तु फ्रीज से निकालने के बाद वह दुध की तपेली पुनः फ्रिज में रखना भूल गया जिससे दुध अत्यधिक गर्मी से समाहित होकर फट गया। प्रगति की मां पुरे ढेड़ लीटर दुध के फटने से अप्रसन्न हो गई। उन्होंने दिव्या को लापरवाही के चलते कड़वे वचन सुना दिये। प्रगति दुर खड़े होकर अपने कान पकड़कर दिव्या से संकेतों में क्षमा मांग रही थी। दिव्या को विश्वास हो गया कि दुध की तपेली फ्रिज के बाहर रखकर भुलने वाला कोई और नहीं प्रगति ही है। जो सुबह से मतवाली बनकर पुरे घर में विचरण कर रही थी। अनंतः रात हुई। प्रगति परिवार संग भोजन करने बैठ गयी। सभी सदस्य आनंद से भोजन ग्रहण कर रहे थे। प्रगति समय पुर्व ही भोजन से निवृत्त हो गई। उसने माता-पिता का शयन हेतु बिस्तर व्यवस्थित किया। दिव्या भाभी के कमरे में जाकर वहां भी शयन की सभी आवश्यकता पुरी कर बाहर आ गई। भोजन उपरांत सदस्य शयन कक्ष को ओर बढ़े ही थे कि बिजली गुल हो गई। अब बिना पंखे के रात निकालना दुभर हो रहा था। पिताजी ने आज की रात छत पर सोने का विचार कह सुनाया। सभी सहमत थे सिवाये प्रगति के। मगर दिव्या ने उसे समझाया कि जब सभी उपर सो रहे होंगे तब वह नीचे आकर करण से बात कर ले। प्रगति राजी हों गई। छत के उपर बिस्तर लगाये गये। मच्छरदानी की व्यवस्था करते-करते रात के दस बज चुके थे। प्रगति व्याकुल हुये जा रही थी। दिव्या के सहयोग से वह छत से नीचे आ गई। सभी सो चूके थे। दिव्या ने करण को फोन मिलाया।
“यह नम्बर गल़त है।” की ध्वनी सुनकर प्रगति निराश हो गयी। दिव्या ने नम्बर का निरीक्षण किया तो उसने पाया कि हड़बड़ी में प्रगति ने एक अंक गलत डायल कर दिया था। दिव्या को प्रगति के व्यवहार पर महान आश्चर्य हो रहा था। दिव्या को देखने पहले भी दो लड़के आ चुके थे। किन्तु उनके प्रति अन्य लड़कीयों की तरह प्रगति सामान्य ही थी। किन्तु करण से मात्र फोन पर बात करने के कारण सुबह से संपूर्ण घर को अपने सीर पर उठाने वाली प्रगति का दीवानापन दिव्या की समझ से परे थे।
“हॅलो! मैं प्रगति बोल रही हूं।”
“ओsssह! बोलीए प्रगति।” अगली आवाज में करण उत्साहित लग रहा था। जान-पहचान के कुछेक प्रश्न दोनों ओर से पुछे जा रहे थे। जिनके समुचित उत्तर भी आदान-प्रदान हुये।
“करण! क्या आपने पुर्व में कभी प्रेम किया है?”  प्रगति ने करण से पुछा।
करण कुछ क्षण चुपचाप हो गया। जैसे उसकी दुखती नस को प्रगति ने पकड़ ली हो। उन दोनों का भावी संबंध और भी प्रगाढ़ता को प्राप्त करे इसीलिए सबकुछ सत्य बताना करण ने उचित समझा। क्योंकि अधिक समय तक झुठ को छिपाया नहीं जा सकता। एक न एक दिन सच सबके सामने आकर ही रहता है। उस पल भारी शर्मिंदगी न सहनी पड़े सो करण ने हृदय में दबी अपनी भूतपूर्व प्रेम कहानी प्रगति को बता दी।
“पांच वर्ष पुर्व काॅलेज की पढ़ाई के समय जाॅब और पढ़ाई दोनों के प्रति समर्पित होकर मैं संघर्षरत था। तब मेरे पास विद्यालयीन वाद-विवाद के प्रथम पुरस्कार के रूप में मिली सायकिल ही थी। जो आवागमन हेतु मेरा सुविधाजनक और नि:शुल्क संसाधन था। मैं सुबह दस से दोपहर दो बजे तक काॅलेज जाया करता था। उसके बाद एक हायर सेकेण्ड्री स्कूल में दोपहर ढाई से शाम पांच बजे तक बच्चों को पढ़ाने का काम किया करता था। अपनी पाॅकेटमनी और काॅलेज के खर्च के लिए यह पार्ट टाइम जाॅब मेरे लिए बहुत ही मददगार साबित हो रहा था।”
प्रगति फोन पर ध्यान लगाकर करण की बातें सुन रही थी।
“संयोग से वहां भी प्रगति नाम की एक शिक्षिका अध्यापन कार्य करती थी। मुझे अनुभव ही नहीं हुआ की कब वह मेरे प्रति आकर्षित हो गई थी। एक समय स्वतंत्रता दिवस पर एक विधार्थी को संस्कृत भाषा में भाषण तैयार कर दिया। अपरिहार्य कारणों से मैं उस दिन विद्यालय नहीं जा सका। विधार्थी के भाषण को सुनकर अतिथि गण बहुत प्रसन्न हुये। विधार्थी को पुरस्कार स्वरूप नकद राशी भेंट की गई। मेरे विषय में भी अथियों के समक्ष प्रशंसनीय वक्तव्य सहकर्मी शिक्षकों द्वारा व्यक्त किये गये।”
दिव्या प्रगति और अपने लिए गिलास में दुध ले आई। दुध पीते-पीते दोनों मिलकर करण की बातें सुन रही थी।
“अगले दिन विद्यालय पहूंचा तो प्रगति ने मुझसे बात नहीं की। प्रगति प्रति दिन घर से कुछ न कुछ खाने का लिए टीफीन में लेकर आती थी। वह व्यंजन मुझे चरखना कभी नहीं भुलती थी। मगर आज उसने मुझे कुछ नहीं खिलाया था। उसकी नाराज़गी मुझसे इस बात पर थी की स्वतंत्रता दिवस पर मैं विद्यालय क्यों नहीं आया। दरअसल विद्यालयीन कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद बच्चों को प्राणी संग्रहालय ले जाने की योजना थी। जिसमें मैने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की सहमती दी थी। मेरे वहां नहीं जा सकने के कारण पुरे तीन दिनों तक प्रगति ने मुझसे बात नहीं की।”
“फिर क्या हुआ।” बीच में दिव्या बोल पढ़ी।
करण को आशंका हुई की प्रगति के साथ अन्य कोई और है जो उन दोनो की बातचीत सुन रहा है।
“बताइए न फिर क्या हुआ?” प्रगति ने दिव्या को संकेतों में डांटते हुये बात को किसी तरह संभाला।
“कुछ ही दिनों में प्रगति सामान्य हो गयी। स्टाॅफ रूम में लंच के समय अक्सर वो अपने पैर से मेरे पैरों को सहलाया करती थी। इस संबंध में मैं उसे समझा चूका था कि वह ऐसा न करे। मगर वह नहीं मानी। विद्यालय प्रांगण में बच्चों को खेल खिलाने के बहाने प्रगति मुझे ताड़ा करती। मेरे अध्यापन कक्ष से प्रगति नीचे प्रांगण में मुझे अक्सर नज़र आ जाती। मैं सदैव उसे उपेक्षित करता रहा। टीचर स्टाफ और स्कूल के बड़े बच्चों तक को आभास हो चूका था कि प्रगति और करण सर के बीच कोई चक्कर चल रहा है। उसने फोन पर मुझे कई बार आई लव यु कहा। मैं इसे आनंद का विषय समझ कर कभी गंभीर नहीं हुआ। उसने मुझे बाहर मिलने भी बुलाया लेकिन मैं कॅरियर बनाने के पीछे इस तरह पागल था कि उसे बाहर कभी मिला ही नहीं। एक बार थक-हारकर मैंने सिध्दीविनायक मंदिर में मिलने की रजामंदी दे दी। सुबह से शाम तक वह मेरा वहां मंदिर में इंतजार करती रही मगर मैं नहीं गया।”
करण की प्रेम कहानी में दिव्या और प्रगति अधिक रूचि ले रहे थे।
रात के दो बज चूके थे। प्रगति के पिता मिश्रीलाल राय लघुशंका हेतु छत से नीचे उतर आये। उन्होंने बहू दिव्या और प्रगति को फोन पर बातचीत करते हुये देखकर कहा- “इतनी रात हो गई है अब जाकर सो भी जाओ। इस मोबाइल फोन को अब नींद आ रही होगी। उसे भी सोने दो।”
“जी बाबूजी!” दिव्या बोली।
“बाबूजी! बिजली आ गई है। आप कहे तो आपका बिस्तर नीचे लगा दूं।” दिव्या ने पुछा।
“अरे नहीं बहु! उपर बड़ी अच्छी ठण्डी-ठण्डी हवा चल रही है। आज की रात तो उपर हो सोऊंगा।” कहते हुये बाबूजी पुनः उपर छत पर चले गए।
“भाभी आप सो जाओ। आपके लिए ज्यादा समय तक जागना ठीक नहीं है।” प्रगति ने दिव्या से आग्रह किया।
दिव्या समझ गई कि अब वह कबाब में हड्डी सिध्द हो रही थी। सो वह सोने चली गयी। प्रगति एक अन्य कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गई।
“फिर क्या हुआ करण?” प्रगति ने पुछा।
“होना क्या था। वह मुझ पर फिर से नाराज हो गयी। अबकी बार वह कुछ ज्यादा नाराज थी। चार-पांच दिनों तक प्रगति विद्यालय नहीं आई। पता नहीं मैं इतना कठोर कैसे हो गया था कि उसके विषय में मैंने  कूछ जानकारी लेना भी उचित नहीं समझा।
एक शाम उसकी सहेली पुनम का मेरे पास काॅल आया। उसने बताया कि प्रगति की तबीयत खराब है इसलिए वह स्कूल नहीं आ पा रही है। उसने यह भी पुछा की मैं क्या वाकई में उससे प्रेम करता हूं अगर करता हूं तो अपने माता-पिता को प्रगति से रिश्ता जोड़ने हेतु प्रगति के यहां तुरंत भेजूं। अगर प्रगति से प्रेम नहीं है तो उसे साफ कह दूं ताकी वह मेरे पिछा छोड़ दे।” करण बोला।
“आपने क्या जवाब दिया पुनम को?” प्रगति ने पुछा।
“मैं समझ नहीं पा रहा था। वैवाहिक संबंध में बंधना उस समय मुझे गंवारा नहीं था। साथ ही प्रगति के साथ इस अनोखे रिश्ते का असीम आनंद प्राप्त करने का अनुभव भी खोना नहीं चाहता था। सो सीधे-सीधे पुनम कोने कोई उत्तर नहीं दिया। पुनम मुझसे नाराज हो उठी। उसने मेरे सम्मुख ही फोन पर प्रगति को बहुत डाट पिलाई और कहा की जो व्यक्ति अपने प्रेम और कॅरियर को लेकर इतना अनिश्चित और असमंजस्य में है उससे प्रगति को दुरी बना लेना चाहिए। और करण से सभी प्रकार के रिश्ते तत्काल तोड़ देना चाहिए।” करण ने आगे बताया।
“आपने क्या किया फिर?” प्रगति ने अगला प्रश्न किया।
“धीरे-धीरे प्रगति ने मुझसे संपर्क समाप्त कर लिये। मैं अपनी महाविद्यालयीन परिक्षाओं में व्यस्त हो गया। अपने कर्तव्य स्थल पर जब पुनः लौटा तो पता चला की प्रगति ने टीचिंग जाॅब छोड़ दी थी। प्रगति के प्रति दुविधा जन्य परिस्थिति से उबरकर जब उसे स्वीकार्य स्थिति में आया तब तक बहुत विलंब हो चूका था। प्रगति को मिलने की प्रबल इच्छा की सत्यता जांचकर उसकी सहेली पुनम ने मुझे बताया की प्रगति के पिता का अन्यत्र स्थानांतरण हो गया है। प्रगति के माता-पिता प्रगति के विवाह को लेकर चिंतित थे। उन्होंने प्रगति के लिए योग्य वर की खोज शुरू कर दी थी। मन को विश्वास नहीं हो रहा था कि प्रगति शहर छोड़कर जा चूकी थी। मेरे लिए यही उचित दण्ड है सोचकर विरह की वेदना सहने स्वयं को तैयार कर लिया।” करण की भावनात्मक बातें प्रगति की आंखे नम कर गयी।
“क्या आप आज भी अपनी प्रगति से प्रेम करते है?” प्रगति ने पुछा।
“हां मैं आज भी अपनी उस मेन्टल प्रिय प्रगति को प्रेम करता हूं। वो पगली मुझे अपना सबकुछ देने को तैयार थी और मैं फोन पर ही उससे आभासी चुंबन की मांग करता रह गया।” करण भावुक हो गया था।
“इसका अर्थ यह है कि आपको अपनी प्रगति पुनः मिल जाये तब क्या आप मुझे छोड़ देंगे।” प्रगति ने चिंता व्यक्त की।
“नहीं। वह प्रगति मेरा भूतकाल थी। तुम मेरा आज हो। मुझे पता नहीं की मेरी वह प्रगति कहां है? किस हाल में है? न ही मुझे ये पता करना है। क्योंकि मैंने उसके साथ जो किया है उसके बाद मैं उससे नज़र मिलाने के लायक नहीं हूं। मैं तुम्हें दुसरी प्रगति नहीं बनने दूंगा, इसका वचन देता हूं। किन्तु वह प्रगति मेरा प्रथम प्रेम था और हमेशा रहेगा।” करण ने आगे कहा।
“करण मैं तुम्हें एक सत्य बताना चाहती हूं।” प्रगति बोली।
“बोलो।” करण ने कहा।
“मैं तुम्हारी वही प्रगति हूं जो तुमसे कभी पागलों की तरह प्रेम करती थी।” प्रगति ने बताया।
“क्या? मुझे विश्वास नहीं हो रहा।” करण ने उत्तर दिया।
“वीडियों काॅल करके देख लो।” प्रगति ने कहा।
करण ने तुरंत वाॅइस काॅल डिस्कनेक्ट कर वीडियों काॅल किया।
अपनी प्रिय प्रगति को देखकर करण की आंखे भीग गई। प्रगति भी अपने आंसु रोक न सकी।
“करण! मैं जानती थी कि तुम अपने कॅरियर के प्रति बहुत चिंतित थे। नौकरी की तलाश में हर पल अपने ह्दय में एक जुनून को पाले बैठे थे। इस संघर्ष की ज्वाला में अकेले ही सुलग रहे थे। मगर पानी कितना भी गर्म क्यों न हो, आग तो बुझा ही देता है। एक बार कह देते की मुझे तुम्हारे लिए कुछ समय तक रूकना पड़ेगा। मैं जीवन भर तुम्हारी प्रतिक्षा करने को सहर्ष तैयार हो जाती।” प्रगति ने कहा।
दोनों के हृदय एक बार पुनः मिल चूके थे। करण अपने पुर्ववर्ती व्यवहार पर आत्मग्लानि लिये प्रगति से क्षमा मांग चूका था। प्रगति ने करण को क्षमा कर दिया था। एक बार पुनः सिध्दीविनायक मंदिर में दोनों ने मिलना तय किया। अबकी बार करण निर्धारित समय से पुर्व ही मंदिर पहूंच गया था। प्रगति विनायक प्रतिमा के आगे नतमस्तक थी। उसकी वर्षों पुरानी करण को पाने की अभिलाषा ईश्वर ने पुरी कर दी थी। दोनों के शिश एक साथ सिध्दीविनायक के सम्मुख श्रद्धा से झुक गये।

#जितेंद्र शिवहरे

परिचय- 
सहायक अध्यापक 
शा प्रा वि सुरतिपुरा चोरल, महू,
इन्दौर, मध्यप्रदेश

पांडुलिपि – कहानियां, उपन्यास, कविताएं

-मंचीय कवि
-आकाशवाणी इंदौर में दो काव्यपाठ
-दूरदर्शन भोपाल काव्यान्जली में काव्यपाठ
-शहर की काव्यगोष्ठी में सक्रिय भागीदारी

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