वामन कद में विराट थे चन्द्रसेन विराट

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ChandrasenVirat (1)
-संदीप सृजन
तमाशा तो वही चलता निरंतर पांच सालों तक।
जमूरा और होता है मदारी और होता है।।
इन पंक्तियों के लेखक, स्वातंत्र्योत्तर हिंदी काव्य के विकास में पिछले पांच दशक में जिनका अनवरत योगदान रहा, श्रेष्ठ कवि एवं लोकप्रिय ग़ज़लकार चंद्रसेन विराट 15 नवम्बर को अपनी अनंत यात्रा पर निकल गए। देश-विदेश में गीत-ग़ज़ल प्रेमियों के बीच दुष्यंत की परंपरा में चंद्रसेन विराट जी का नाम आता है।
विराट जी का जन्म 3 दिसंबर 1936 को इंदौर जिले के बलवाड़ा में हुआ । मध्य प्रदेश शासन के वरिष्ठ अधिकारी के पद पर रहते हुए भी उन्होंने काग़ज-क़लम और गीत-कविता से जो रिश्ता जोड़ा वह आखरी सांस तक जारी रहा। 1966 में विराट जी ने गणतंत्र दिवस पर आयोजित लाल किले के कवि सम्मेलन में देश के मूर्धन्य कवियों दिनकर, बच्चन, नीरज के साथ कविता पाठ किया वे स्वयं स्वीकार करते थे कि “नीरज के परावर्तित पीढ़ी में गिना जाता हूं नीरज और राम अवतार त्यागी ने मुझे प्रभावित किया” 1955 से उनकी रचनाओ के प्रकाशन का सफर प्रारंभ हुआ, उनका पहला गीत संग्रह “स्वर के सोपान” नाम से 1969 में प्रकाशित हुआ।
इसी बीच देश के राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों के प्रमुख कवियों की श्रेणी में उनका नाम छा गया। गीत विधा के साथ ग़ज़ल विधा में भी आपने बात कहने की शुरुआत की और यह बदलाव 1970 में पहले मुक्तिका संग्रह “निर्वसना चांदनी” के रूप में सामने आया इसके बाद विराट जी के लगभग चौदह गीत संग्रह, सात मुक्तक संग्रह, दो दोहा संग्रह और सात संपादित संकलन के साथ ही 12 ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए। लेकिन हिंदी ग़ज़ल परंपरा में उन्होंने एक विराट ख्याति अर्जित की। विराट जी के साहित्यिक अवदान पर पीएचडी की उपाधि हेतु भी 14 शोध कार्य संपन्न हुए और सैकड़ों विद्वानों ने अपने समीक्षात्मक लेखों में उनकी उपलब्धियों को गिनाया।
विराट जी की एक कृति “सर्जना के स्वरारोह” में डॉ शिवमंगल सिंह सुमन जी ने लिखा है कि “ग़ज़ल के क्षेत्र में विराट के प्रवेश ने अपनी विशिष्टता से सबका ध्यान आकर्षित किया है, उर्दू की मुहावरेदानी से सर्वथा भिन्न उनकी हिंदी की प्रकृति को उसमें डालने का सराहनीय साहस किया है और व्याकरण और आचरण दोनों पर बल दिया है।” विराट जी ने अपनी ग़ज़लों को जहां अनेक नवागत शब्दों का सादृश्यों, प्रतिकों तथा पर्यवेक्षण जनित उद्भावनाओं से सुसज्जित किया है वहीं प्राचीन कवियों द्वारा अपनाए गए विभिन्न भावों को भी संदर्भ में लिया है।कबीर के दोहों से प्रेरणा ली, रामायण, महाभारत और इतिहास के अनेक पात्रों और घटनाओं को भी विराट जी ने आधुनिक परिपेक्ष्य में प्रतीक प्रवणतापूर्वक अपनी गजलों में समाविष्ट किया है। वे लिखते हैं-
जो तिमिर के वंशधर है धूप पहने फिर रहे।
सूर्य के जो पुत्र उनके वस्त्र काले हैं विराट।।
विकास के नाम पर देश में जो शहरीकरण हो रहा है गांव उजड़ रहे हैं उन पर विराट जी ने कहा था कि-
जिस तरह से गांव कस्बों पर शहर हावी हुआ।
आदमी पर आदमी का जानवर हावी हुआ।।
गरीब और अमीर की खाई पर और भ्रष्टाचार पर उन्होंने लिखा है कि-
निचले खेतों तक तलक नहीं पहुंचा।
कैसे ऊपर ठहर गया पानी।।
बढ़ते औद्योगिकीकरण और अनियंत्रित बाजार के विस्तार ने मानव निर्मित खतरों को बढ़ाया है जब भोपाल गैस त्रासदी हुई थी तब विराट जी ने लिखा था कि-
आई वो कल रात कि सुनसान कर गई।
सोते हुए शहर को ही श्मशान कर गई।।
उस रात सिवा मौत के कोई कहीं न था।
वह मौत को शहर का सुलेमान कर गई।।
विराट जी मनुष्य में प्रवाहित संवेदनशीलता पर अटूट विश्वास रखते थे वे प्रेम और सद्भावना का वातावरण बनाना चाहते थे, हिंसा, बर्बरता और पशुता समाप्त हो यह बात उनकी ग़ज़लों में अक्सर देखने को मिलती थी उन्होंने लिखा है कि-
क्रूरता के हर दुखद आरंभ का।
अंत करुणा की शरण है आज भी।।राजनीति की स्वार्थ परक नियत पर भी उन्होंने खुलकर कटाक्ष किया-
कुछ दरारें पड़ गई है आपसी संबंध में।
देख घर की देहरी से दूर आंगन रह गया।।
क़लम के प्रति वे जितने सचेत थे उतना ही क़लमकारों को भी वे सचेत करते रहे, उन्होंने अपनी लेखनी की आत्मा में ना कोई खरोंच आने दी और ना आने देना चाहते थे इसलिए वे कहते थे कि-
कवि आवाज लगाते रहना।
समय कठिन है गाते रहना।।
विराट जी अपनी जीवन अनुभूतियों को संस्कारित करके उन्हें रचनाओं में तब्दील करते थे शायद यही वजह है कि उन्होंने लिखा-
मिले कोई, तराशे जो, तभी हीरा चमकता है।
जिसे भी कृष्ण मिल जाते वही तो पार्थ होता है।।
विराट जी की लेखनी के संदर्भ में देश के कई विख्यात लेखकों मूर्धन्य पत्रकारों अपनी बात कही है, लेकिन पिछले एक दशक की साहित्यिक पत्रकारिता के दौरान मैंने जितना विराट जी को जाना उस आधार पर ही कहूँगा कि विराटजी के अशआरों (शे’र) की असाधारण सादगी मुझे भाती रही है, उनके लेखन में कृत्रिमता का कोई स्थान नहीं था। विराट जी यूं तो गीतकार थे, लेकिन छंद की हर विधा में उन्होंने अपनी बात कही। उन्होंने गीतों से कभी रिश्ता तोड़ा। विराट जी कद के वामन (नाटे) थे लेकिन हिंदी साहित्य के क्षेत्र में सचमुच में विराट थे। दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल परंपरा के वह ऐसे हस्ताक्षर थे जिन्होंने ग़ज़ल को हिंदी में कहने और आम आदमी तक पहुंचाने का कार्य किया। विनम्र श्रद्धांजलि वामन रूप विराट को।

-संदीप सृजन
 शाश्वत सृजन मासिक,उज्जैन

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