तमाशा मज़ेदार न था

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वो खरीद लेता था सबके आँसू बेधड़क
वो इस ज़माने के लिए अभी समझदार न था
कुछ तो कमी थी जो तू किसी की न हो सकी
तेरा हुश्न कातिल तो था पर ईमानदार न था
जनता कैसे रुके सियासती महफिलों में
“साहेब” के भाषण में सब था , फिर भी असरदार न था
माँ अरमान बेचती रही हर गुजरती रात के साथ
पर कोई बच्चा उन जाएगी रातों का कर्ज़दार न था
बच्चियाँ लूट ली जाती है बीच बाज़ार में
और देखने वाले कहते है कि तमाशा मज़ेदार न था
#सलिल सरोज

परिचय

नई दिल्ली
शिक्षा: आरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया, कोडरमा,झारखंड से। जी.डी. कॉलेज,बेगूसराय, बिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.ए(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए(2011),  जीजस एन्ड मेरीकॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.ए(2015)।

प्रयास: Remember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादन, स्थानीय पत्रिका”कोशिश” का संपादन एवं प्रकाशन, “मित्र-मधुर”पत्रिका में कविताओं का चुनाव।सम्प्रति: सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश।

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