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देखो कैसे रुठ गया है ये दर्पण ?
हाथ से कैसे छूट गया है ये दर्पण |
प्रतिबिम्बों की चाह न करना अब इससे,
नीचे गिरकर टूट गया है ये दर्पण |
आंखों में बरसा सावन था दर्पण,
गंगा की लहरों-सा पावन था दर्पण |
मैं कहता हूँ तुम भी मानो ये बातें ,
हर मन का मनभावन था दर्पण |
मुझको एक चकोर बनाता था दर्पण,
अपने दिल का चोर बनाता था दर्पण |
जिन रातों को नींद मुझे न आती थी,
उन रातों को भोर बनाता था दर्पण |
#विनय शुक्ला
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good very good bhai ji
Very nice poetry