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पाकर जो लोग
मैल सी धन संपदा
भर जाते हैं अहम से
इतराते और बल खाते हैं
छुद्र नदी सा
रह भी जाते हैं फिर,
सिमट कर
खुद से खुद तक ।
आता है जब बुरा वक्त
हो जाती है अक्सर
धन संपदा भी बेमानी
तब जो खड़े होते हैं
पास हमारे –
होते हैं वही सच्चे रिश्ते ।
रिश्तों से छल
रिश्तों से नहीं , खुद से होता है
जो छीन लेता है फिर हमसे
सुकून हमारा ।
और
आता है जब अंतिम बुलावा
रह जाती है यहीं धरी
सारी धन – संपदा ,
तब देते हैं जो कांधा
होता है वही सच्चा रिश्ता।
# देवेंन्द्र सोनी , इटारसी
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