बोहनी

0 0
Read Time6 Minute, 57 Second

shikha shreevastav

“ताजी हरी सब्जी ले लो”

रोज की तरह सब्जी बेचने वाली मीना की आवाज़ अपने नियत वक्त पर मोहल्ले में गूँज उठी।

नन्ही इशा झट से दरवाजे की ओर दौड़ पड़ी और मीना को रोकते हुए बोली- सब्जी वाली चाची रुकिये, रुकिये।

इशा की माँ अनु ने मीना को जाने का इशारा करते हुए कहा- अरे हमें कुछ नहीं लेना जाओ तुम।

मीना कातरता से बोली- मेमसाब, आज घूमते-घूमते इतनी देर हो गयी लेकिन कुछ नहीं बिका। थोड़ी ही सब्जी लेकर बिटिया के हाथ से बोहनी करवा दीजिये।

हाँ-हाँ मैं अपने हाथ से बोहनी करूँगी- चहकती हुई इशा बोली।

थोड़ी सी सब्जी लेकर अनु ने इशा के हाथों मीना को पैसे दिलवा दिये।

अगले दिन फिर अपने नियत वक्त पर सब्जी लेकर मीना मोहल्ले में आयी और सबसे पहले इशा के घर पहुँची।

अनु दरवाजे पर ही थी।

उसने अनु से कहा- मेमसाब बिटिया के हाथ बड़े ही शुभ है। कल उसके बोहनी करते ही थोड़ी देर में हमारी सारी सब्जी बिक गयी। अब तो हम रोज बिटिया से ही बोहनी करवाएंगे चाहे एक रुपये की ही सही।

मीना की बात सुनकर अनु मुस्कुरा उठी।

कुछ सब्जियां लेकर उसने इशा के हाथों से बोहनी करवा दी।

अब ये रोज का क्रम बन चला था।

साल दर साल गुजरते रहे। अब इशा बारहवीं की छात्रा थी।

उम्र के असर से मीना का आना भी कम हो चला था, लेकिन जब भी वो आती सबसे पहले इशा के घर ही पहुँचती।

आज छः सालों के बाद अपनी पढ़ाई पूरी करके इशा अपने घर, अपने शहर वापस लौटी थी।

सुबह-सुबह अनु के साथ सैर पर जाते हुए सब्जी बेचने वालों को देखकर इशा ने अनु से मीना के बारे में पूछा।

अनु ने कहा- वो तो कई सालों से नहीं आयी। अब बुढ़ापे में भला कहाँ संभव है घर-घर जाकर सब्जी बेचना।

इशा उदास आवाज़ में बोली- काश मेरे पास उनके घर का पता होता। ना जाने क्यों एक बार देखने की इच्छा है उन्हें।

फिर मन ही मन कुछ सोचकर इशा हर सब्जी वाले से मीना के बारे में पूछने लगी। आखिरकार एक सब्जी वाले से उसे मीना के घर का पता मिल गया।

वो बचपन के दिनों को याद करके मुस्कुराती हुई मीना के घर की तरफ चल दी।

अपने दरवाजे पर सब्जी की टोकरी लिए वृद्धा मीना बैठी थी और धीरे-धीरे आवाज़ लगा रही थी- सब्जी ले लो।

लेकिन कोई भी उसके पास नहीं ठहर रहा था।

अचानक इशा को अपने सामने देखकर मीना बोली- बिटिया तुम ही इस बुढ़िया से कुछ ले लो।

उसकी हालत देखकर इशा का मन भर आया।

उसने कहा- चाची मैं कुछ नहीं सारी सब्जी लूँगी आज। मुझसे बोहनी करवाओगी ना?

अब मीना ने ध्यान से इशा को देखा और उसे पहचानते हुए रो पड़ी।

उसके आँसू पोंछते हुए इशा बोली- नहीं, नहीं रोना नहीं।

मीना ने इशा को बताया- ना जाने किस रहस्यमयी बीमारी से अचानक ही उसके एकलौते बेटे की कुछ सालों पहले मृत्यु हो गयी।

जैसे-तैसे वो मंडी से थोड़ी सब्जियां ले आती है बेचने के लिए। कभी बिकती है कभी नहीं। घर-घर जाकर बेचने की अब शक्ति कहाँ रही बिटिया- कहती हुई मीना उदास हो गयी।

इशा ने कुछ सोचा और मीना से सब्जियां लेकर अपने घर पहुँचते ही मोहल्ले के अपने कुछ दोस्तों को बुलाया।

सबसे विचार-विमर्श करके उसने दो दिनों के अंदर अपने ही मोहल्ले में एक छोटी सी जगह के साथ-साथ मंडी से सब्जियां लाने के लिए एक किराये की गाड़ी और एक सहायक की व्यवस्था कर दी।

साथ ही मोहल्ले वालों से अनुरोध किया कि वो मीना की दुकान से सब्जी खरीदें।

सबने इशा की बात सुनकर कहा- अगर हर तरह की ताजी सब्जियां हमें यहाँ मिल जाये तो हमें कोई ऐतराज नहीं।

इशा की खुशी का ठिकाना नहीं था।

सब्जी की दुकान पर हर प्रकार की ताजा सब्जियां सजाकर वो मीना को लेने चल दी।

मीना सब्जी की दुकान देखकर चौंक गयी। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि ये दुकान उसकी थी।

उसकी आँखों से लगातार आँसू बहते जा रहे थे।

इशा के सर पर हाथ रखते हुए वो कह रही थी- ना जाने किस पुण्य का फल बनकर तू आयी है। ईश्वर करे वो पुण्य मुझसे हर जन्म में हो।

मीना के आँसू पोंछते हुए इशा टोकरी में अपनी पसंद की सब्जी डालते हुए बोली- चाची अब इन कीमती आँसुओं को मत बहाओ और जल्दी से बिटिया के हाथों बोहनी करा लो। देखो सब लोग सब्जियां खरीदने का इंतजार कर रहे है।

हाँ-हाँ बिटिया जरूर, कहते हुए सब्जी तौलती मीना के होंठो पर अब पुरानी मुस्कान वापस आ चुकी थी, और उसे मुस्कुराते देखकर इशा का मन संतोष से खिल उठा था।

#शिखा श्रीवास्तव

परिचय :
नाम- शिखा श्रीवास्तव
साहित्यिक उपनाम- शिखा अनुराग
वर्तमान रांची
राज्य- झारखंड
शहर- रांची
शिक्षा- स्नातक(प्रतिष्ठा) समाजशास्त्र में
कार्यक्षेत्र- स्वयं का व्यवसाय अनुशी कमर्शियल
विधा – गद्य एवं पद्य
लेखन का उद्देश्य-
है उद्देश्य यही मेरे लेखन का
की बनाकर कलम को
अपनी ताकत
दूँ छोटा सा योगदान,
हमारे देश और समाज में
आये जिससे बदलाव सार्थक।
मिटे कुरीतियां मिटे द्वेष,
फैले मोहब्बत का संदेश।
लिखूँ कुछ ऐसा की उसे पढ़कर
आये मुस्कान किसी उदास लब पर,
चाहती हूँ रचूँ कुछ ऐसा
खो चुकी हो उम्मीदें जिसकी उसे
मिलेे एक उम्मीद नयी उसे पढ़कर।
है बस यही उद्देश्य मेरे लेखन का!!

Arpan Jain

Average Rating

5 Star
0%
4 Star
0%
3 Star
0%
2 Star
0%
1 Star
0%

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Next Post

"मातृभूमि की पुकार"

Mon May 7 , 2018
कैसी थी कैसे खींचतान हो गई, मैं अब वीरों से वीरान हो गई । थी खुशियों की बौछार जहाँ, अब देखो खुला मैदान हो गई ॥ देख मानव का मानव से नृसंहार, लो मैं अब श्मशान हो गई ॥ कैसी थी कैसे खींचतान हो गई, मैं अब वीरों से वीरान […]

संस्थापक एवं सम्पादक

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।