बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ क्या हिंदी की उन्नति के लिए वास्तव में कुछ योगदान कर रही हैं? माफ़ कीजिएगा,सच यही है कि कंपनियाँ केवल और केवल अपनी मार्केटिंग
और बाजार के हिसाब से स्ट्रेटेजी बनाती हैंl यदि उनमें फायदा दिखता है और मिलता है,तभी वे कोई काम करती हैं, अन्यथा नहीं,कतई नहीं। हाल ही में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को मध्यप्रदेश सरकार ने उसके हिंदी के प्रति योगदान के लिए पुरस्कृत किया। पहला सवाल तो यह है कि,क्या कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी इस किस्म के पुरस्कार को पाने की हकदार हो भी सकती है ? यदि आप कहेंगे हाँ,तो चलिए,आपकी बात मान लेते हैं,परंतु क्या कोई भी? जी हाँ,कोई भी,बहुराष्ट्रीय कंपनी हिंदी में उन्नति के लिए वास्तव में कुछ योगदान कर रही है? वैसे तो यह बात प्रकटतः स्थापित सत्य है,परंतु फिर भी,वैज्ञानिक बात यह होती है कि किसी भी सूत्र को सत्य स्थापित करने के लिए,दिया गया पूरा समीकरण हल करना होता है। तो आइए,यह समीकरण हल करते हैं। इस बात को स्थापित करने के लिए कुछ पुराने सूत्रों का उपयोग करना होगा। बात २००२-२००३ की है। तब यूनिकोड अपने पैर पसार रहा था। इंटरनेट पर और कंप्यूटिंग उपकरणों पर इसका समर्थन व अनुकूलन बड़ी तेजी से हो रहा था। रेडहैट लिनक्स नाम की एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी को भारतीय भाषाई कंप्यूटिंग बाजार में कुछ संभावना नजर आई तो,उसने पुणे(भारत) में भी भारतीय भाषाई कंप्यूटिंग के लिए एक डेवलपमेंट सेन्टर स्थापित किया। उस वक्त मैं मध्यप्रदेश विद्युत मंडल की नौकरी में था,और शौकिया तौर पर एक मुक्त व मुफ़्त स्रोत लिनक्स डेवलपमेंट संस्था इंडलिनक्स से जुड़कर हिंदी में सॉफ़्टवेयर स्थानीयकरण का अच्छा-खासा कार्य मानसेवी आधार पर कर रहा थाl फलस्वरूप उस क्षेत्र में मेरा अच्छा खासा नाम चल पड़ा था। तभी विद्युत मंडल में `वीआरएस` योजना आई और मैंने विद्युत मंडल की नौकरी छोड़ दी। तब इंटरनेट के जरिए घर से काम करने की संकल्पना भारत में एकदम नई किस्म की थी और मैं इसे आजमाना चाहता था।
उसी समय,रेडहैट लिनक्स ने पुणे (महाराष्ट्र) में स्थानीय भाषाई सॉफ़्टवेयर डेवलपमेंट सेन्टर स्थापित किया,जिसमें उसे भाषाई सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों व स्थानीयकरण विशेषज्ञों की जरूरत हुई तो उन्होंने प्रायः इस क्षेत्र के सभी आम व खास को मौका दिया,और लगभग सभी दिग्गजों को अपने प्लेटफ़ॉर्म में लाने में कामयाब हुए। मुझे भी अच्छे-खासे प्रस्ताव मिले और एक बारगी तो मैं भी लालायित हो जाने का फैसला कर चुका था,क्योंकि मैं विद्युत मंडल की अतिरिक्त कार्यपालन अभियंता की नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त हो चुका था और प्रस्ताव उस वक्त के लिहाज से वाकई बहुत ही अच्छा था।
उस वक्त,रेडहैट का प्रस्ताव भले ही बहुत ही शानदार हो,भले ही लोग इस प्रस्ताव को छोड़ना बेवकूफ़ी समझते रहे हों, बहुत सारे किंतु-परंतु को तौलकर अंततः मैंने यह तय किया कि रेडहैट में काम नहीं करना है और अपने स्वतंत्र कार्य-जीवन की ओर ही बढ़ना है।
रेडहैट-पुणे के इस भारतीय भाषाई लैब ने अपने शुरूआती वर्षों में भारतीय भाषाई कंप्यूटिंग क्षेत्र में बहुत सारे प्रशंसनीय और नायाब काम किए। मुफ़्त व मुक्त स्रोत के मानसेवी आधारित इंडलिनक्स ने जो भारतीय भाषाई कंप्यूटर स्थानीयकरण का काम प्रारंभ किया था,उसे रेडहैट ने तेजी से आगे बढ़ाया और कोई आधा दर्जन भारतीय भाषाओं में परिपूर्ण लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम जारी किया। मुक्त व मुफ़्त फेडोरा लिनक्स तथा संस्थाओं के कार्य के लिए सशुल्क रेडहैट एंटरप्राइस संस्करण। रेडहैट का भारतीय हिस्सा कोई दस साल तक लगातार डिलीवर करता रहा,परंतु इस बीच,जैसे कंपनी के प्रवर्तकों व प्रबंधकों ने सोचा था, लिनक्स का कोई लेवाल नहीं आया,कोई बाजार नहीं बना। न सरकारी दफ़्तरों में,न ही सार्वजनिक उपयोग में। माइक्रोसॉफ़्ट जैसी कंपनियों की बाजारीकरण रणनीति के सामने रेडहैट बौना साबित हुआ और सर्वर कंप्यूटरों के अलावा लिनक्स डेस्कटॉप ऑपरेटिंग सिस्टम के उपयोगकर्ता,वो भी भाषाई,तुलनात्मक रूप में नहीं के बराबर ही रहे। अब चूंकि,लिनक्स के उपयोगकर्ता ही न रहे तो भारतीय भाषाई लिनक्स को कौन पूछे ? जबकि,रेडहैट के भारतीय भाषाई कंप्यूटिंग यूनिट ने मंगल की ही तरह परंतु कहीं उससे भी बहुत बढ़िया और उन्नत,लोहित श्रृंखला के यूनिकोड हिंदी फ़ॉन्ट बनाए और आमजन को निःशुल्क उपयोग के लिए जारी किए। मंगल यूनिकोड फ़ॉन्ट निःशुल्क नहीं है,और इसके हर उपयोग के लिए आपको पैसा देना होता है या फिर क्रैक यानी अवैधानिक विंडोज सॉफ़्टवेयर का उपयोग करना होता है।
तो बात लिनक्स के उपयोगकर्ताओं और खासकर भारतीय भाषाई लिनक्स के उपयोगकर्ताओं की हो रही थी। ऐसा नहीं है कि,रेडहैट इंडिया ने कोई विपणन प्रयास नहीं किए। उन्होंने अपने स्तर पर बहुतेरे प्रयास किए। केन्द्र और राज्य सरकारों तक में लॉबिंग करने के लिए लॉबिस्टों की बड़ी नियुक्तियाँ कीं,परंतु उनके विपणन प्रबंधक अन्य प्रतिद्वंद्वियों के सामने या तो बौने साबित हुए या फिर उनकी रणनीति ने काम नहीं किया।
कुछ राज्य सरकारों के मुफ़्त व मुक्त स्रोत सॉफ़्टवेयरों के पूर्ण समर्थन व उनके ही उपयोग करने संबंधी आदेशों आदि के बावजूद भी लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम और खासतौर पर हिंदी या अन्य भारतीय भाषाई लिनक्स तंत्र उपयोगकर्ताओं तथा बाजार में पैठ बनाने में आश्चर्यजनक तौर पर नाकाम ही रहा,जबकि भारत की आधा दर्जन से अधिक प्रमुख भारतीय भाषाओं में लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम २००४-५ से पहले ही आ चुका था।
२०१० के आते-आते रेडहैट को अपना पुणे का भारतीय भाषाई डेवलपमेंट केन्द्र चलाना भारी पड़ने लगा। उनके पास हिन्दी भाषा समेत अन्य भारतीय भाषाई कंप्यूटिंग उत्पाद तो थे,परंतु उनका लेवाल कोई नहीं था,बाजार कहीं नहीं था। २०१४ के आते-आते रेडहैट ने एक सर्वे एजेंसी की सेवा ली और उससे पूछा कि भइए, ये तो बताओ कि भारत में भारतीय भाषाई कंप्यूटिंग,खासकर रेडहैट इंडिया और रेडहैट हिंदी,पंजाबी, गुजराती आदि का कोई भविष्य है या नहीं और इसमें निवेश जारी रखा जाए या नहीं?
सर्वे का परिणाम, जाहिर है वही आया जो आप सोच रहे हैं। सर्वे रिपोर्ट में विशिष्ट तौर पर यह उल्लेखित किया गया कि भारत में रेडहैट लिनक्स भारतीय भाषाई कंप्यूटिंग का कोई भविष्य नहीं है, लिहाजा इसे बंद करना उचित होगा।
और, इस तरह रेडहैट पुणे का भारतीय भाषाई डेवलपमेंट केन्द्र बंद कर दिया गया। इसके स्थानीयकरण विशेषज्ञों- जिनमें मैं भी शामिल हो सकता था,जो कि सौभाग्य से बच गया था,को नौकरी से निकाल दिया गया। इस तरह,एक बहुराष्ट्रीय कंपनी रेडहैट ने हिंदी आदि भारतीय भाषाओं में स्थानीयकरण का कार्य बन्द कर दिया,क्योंकि उसे यहाँ कोई बाजार नहीं मिला।
आज गूगल,फ़ेसबुक,एप्पल आदि कंपनियाँ भारतीय भाषाओं-खासकर हिंदी कंप्यूटिंग और संचार माध्यमों के लिए अच्छा खासा काम कर रही हैं। हिंदी कंप्यूटिंग के क्षेत्र में गूगल के पास माइक्रोसॉफ़्ट से कहीं ज्यादा उन्नत टेक्नोलॉज़ी और सुविधाएँ हैं। जहाँ आप विंडोज १० में रेमिंगटन कुंजीपट से हिंदी टाइप करने का जुगाड़ ढूंढते रह जाते हैं, वहीं गूगल अपने प्लेटफ़ॉर्म में (विंडोज में क्रोम ब्राउज़र के जरिए भी) हिंदी टाइप करने की सुविधा हर तरह से दे रहा है- जिसमें बोलकर, हस्तलेख से, फ्लो से और प्रैडिक्टिव व फ़ोनेटिक आदि बड़े नायाब और उन्नत तरीके शामिल हैं,और प्रायः हर प्लेटफ़ॉर्म,जीमेल हो या डॉक्स या क्रोम, मुफ़्त हिंदी वर्तनी जाँच की सुविधा भी शामिल है।
गूगल का मोबाइल उपकरणों का आपरेटिंग सिस्टम एंड्रायड तो और भी उन्नत है। यह हिंदी समेत २२ भारतीय भाषाओं में जारी किया जा चुका है और इनमें कुछेक में बड़ी उन्नत किस्म की सुविधाएँ हैं। साथ ही अधिकांशतः आमजन के उपयोग के लिए, माइक्रोसॉफ़्ट के उलट मुफ़्त उपलब्ध हैं,
पर ये सारी सुविधाएँ, ये सारी भाषाई तकनीकी जो आपको बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उपलब्ध करवा रही हैं और गूगल आदि तो मुफ़्त, आपको पता है कि क्यों? हिंदी का बाजार बड़ा है और उन्होंने बाजार की नब्ज़ पकड़ ली है। जहाँ बाजार नजर आ रहा है,वहाँ निवेश हो रहा है। जिस दिन बाजार नहीं दिखेगा-नहीं मिलेगा,उस दिन ये सुविधाएँ बंद हो जाएंगी,रेडहैट भारतीय भाषाई लिनक्स की तरह।
अब आप विचार करें और बताएँ कि क्या ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ किसी इनाम-इकराम की किसी भी सूरत में हकदार हैं?
(आभार-वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)
#रवि रतलामी