हमें याद रखना चाहिए कि,अँग्रेजी को शेक्सपियर की भाषा के रूप में जानने के बहुत पहले, हमें उसे ईस्ट इंडिया कंपनी की भाषा के रूप में जानना और सीखना पड़ा था। ‘ईश्वर,मेरे मित्रों से मेरी रक्षा करना, क्योंकि शत्रुओं से तो मैं स्वयं निपट लूँगा।’कभी वोल्टेयर,तो कभी नेपोलियन बोनापार्ट के खाते में लिख दी जाने वाली, सत्रहवीं शताब्दी के फ्रांसीसी लेखक ज्याँ हेरोल्ड गूरवील की यह उक्ति कदाचित, हिन्दी के समक्ष आज के संकट का संक्षिप्त विवरण है। कई दशकों तक चलने वाले और कई राष्ट्रों में अपनी उपस्थिति बनाए रखने वाले ब्रितानी साम्राज्यवाद को ध्वस्त करने के राष्ट्रव्यापी आंदोलन में जिस भाषा ने इस भाषा-बहुल राष्ट्र को एक स्वयंभू तथा नव-स्वतंत्र ‘राष्ट्र-राज्य’ के रूप में एकीकृत किया था,वही भाषा आज अपनी ही संघटक बोलियों से विलग कर शक्तिहीन बना दिए जाने के कुत्सित प्रयासों से संघर्ष कर रही है। कहना न होगा कि,स्थानीयता के मिथ्या ‘अहम’ को जाग्रत कर, उसका दोहन करने के पीछे उन बोलियों के कतिपय बुद्धिजीवियों का स्वार्थ-सिद्धि का लक्ष्य संधान ही है, जिसके चलते वे भाषा और संस्कृति के व्यापक, गहन और जटिल प्रश्नों को एकाक्षी दृष्टि से देखते चलते हैं। इस एकाक्षी दृष्टि के चलते भाषा और उस भाषा के भाषिक पारिस्थितिकी तंत्र (जिसके, बोलियाँ एक अभिन्न अंग हैं
,) से जुड़े जन-समुदाय के न्यायसंगत प्रश्न और चिंताएँ उस बुद्धिजीवी वर्ग के दृष्टि-क्षेत्र में प्रवेश ही नहीं कर पाते हैं। जब भी बोलियों को उनकी भाषा से विलग करने का प्रश्न उठता है, तत्क्षण यह वर्ग, हर विमर्श को अंततः अपनी ही सुविज्ञता के उस सीमित क्षेत्र में ले जाकर उस विमर्श की चीर-फाड़ करना प्रारम्भ कर देता है। उस सुविज्ञता का सीमित दायरा है, उस बोली से उपजने वाला साहित्य और उसके साहित्यकार…। किसी भी बोली को मात्र उसमें उपजे साहित्य और साहित्यकारों के आधार पर संवैधानिक दर्जा देने के तर्क,वे वैचारिक युक्तियाँ हैं जिनका प्रयोग क्षुद्र साहित्यिक अभिलाषाओं को मूर्त रूप देने और यश लिप्सा की तुष्टि के लिए होता है। बोलियों को भाषा का दर्जा देने के विमर्श में विद्यापति या तुलसी या भिखारी ठाकुर का पुनि-पुनि आह्वान इसलिए किया जाता है ताकि जब वह बोली भाषा बन जाए तो स्वयं को विद्यापति या तुलसी या भिखारी ठाकुर का साहित्यिक वंशज बताकर किसी विश्वविद्यालय में उस बोली के साहित्यिक पीठाध्यक्ष या विभागाध्यक्ष बनने के लक्ष्य को साधा जा सके। और कुछ नहीं तो, संवैधानिक भाषा की सूची के उस नवागंतुक के ‘प्रतिष्ठित’ साहित्यकार होने के यश की प्राप्ति तो हो ही सकती है।
बोलियों को भाषा का दर्जा देने वाले समर्थकों की समग्र चेतना में यह विचार आते ही नहीं कि, भाषा न केवल विचारों के सम्प्रेषण का उत्तरदायित्व निभाती है बल्कि, उस भाषा में न्याय और विधि की,विज्ञान और तकनीकी ज्ञान की, चिकित्सा विज्ञान की एक विकसित विशिष्ट शब्दावली है,और तो और भाषा में चिंतन, विश्लेषण और दर्शन की भी अपनी एक विकसित विशिष्ट शब्दावली है। वह भाषा उसमें उपजे साहित्य के साथ ही व्यापार, वाणिज्य और अर्थशास्त्र की भी भाषा है। किसी भी बोली या भाषा में उपजा साहित्य अंततः उस बोली या भाषा का एक पक्ष ही है। क्या हिन्दी भाषा के भाषिक पारिस्थितिकी तंत्र की कोई भी बोली, न्याय और विधि की, विज्ञान और तकनीकी ज्ञान की, चिकित्सा विज्ञान की,चिंतन,दर्शन,व्यापार, वाणिज्य,अर्थशास्त्र आदि की शब्दावली विकसित करने में अभी तक समर्थ हुई है ? अगर समर्थ है,तो क्या वह बोली इन विभिन्न शब्दावलियों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलन में ला सकती है ?, क्योंकि उस बोली के जनसमुदाय के दैनंदिन के कार्य-कलापों में विद्यापति या भिखारी ठाकुर या तुलसी काम नहीं आएंगे। दैनंदिन के कार्य-कलापों में उस बोली के समुदाय को जिस शब्दावली की आवश्यकता होगी,वह शब्दावली न्याय और विधि की या चिकित्सा विज्ञान की या व्यापार की शब्दावली होगी। ऐसे में तब अंततः उसे अँग्रेजी की ही शरण में जाना पड़ेगा, क्योंकि उस क्षण तक हिन्दी तो और भी क्षीण हो चुकी होगी। तब जब हम उस स्थिति का सिंहावलोकन करेंगे तो पाएँगे कि, जिसे मैं अगर लोक मुहावरे में कहूँ तो हमने ‘चमड़े के लिए भैंस मारने’ जैसी मूर्खता ही की है। अगर हम स्थानीयता की तात्कालिक तुष्टियों से ऊपर उठकर देखें, तो हिन्दी में न केवल समृद्ध साहित्य है, बल्कि,उन सारे विशिष्ट विषयों की विकसित शब्दावली भी है। अगर हम प्रयास करें, तो हिन्दी सचमुच ही एक वैश्विक भाषा बनने का सामर्थ्य और शक्ति रखती है।अगर हम हिन्दी के विघटन को रोककर उसे वैश्विक स्तर पर उठा सकें, तो हम दक्षेस देशों में तो हिन्दी में व्यापार कर ही सकते हैं। हमारा अपना सांस्कृतिक उद्योग,यानि बॉलीवुड, जो जनप्रिय है, इस सोच की सफलता का एक छोटा उदाहरण है।
हमें भाषा और उससे जुड़े प्रश्नों को एक व्यापक दृष्टि से देखना होगा, क्योंकि भाषा, उसकी बोलियों और और उससे जुड़े हुए जटिल और व्यापक विचार-विमर्श में,जब हम किसी भी बोली और उसमें उपजे साहित्य के तर्कों को तलवार की तरह भाँजते हुए कूद पड़ते हैं, तो हम यह कहीं विस्मृत कर चुके होते हैं कि अँग्रेजी को शेक्सपियर की भाषा के रूप में जानने के बहुत पहले, हमें उसे ईस्ट इंडिया कंपनी की भाषा के रूप में जानना और सीखना पड़ा था।
#पुनर्वसु जोशी