
वाकई इस दुनिया में पग-पग पर भ्रम है। कुछ सवाल ऐसे होते हैं जिनके जवाब तो मिलते नहीं,अलबत्ता वे मानवीय कौतूहल को और बढ़ाते रहते हैं। हैरानी होती है जब चुनावी सभाओं में राजनेता हर उस स्थान से अपनापन जाहिर करते हैं,जहां चुनाव हो रहा होता है। चुनावी मौसम में देखा जाता है कि,राजनेता हर उस स्थान को अपना दूसरा घर बताते रहते हैं जहां उनकी चुनावी सभा होती है। ऐसे में सहज ही मन में सवाल उठते हैं कि,तब नेताओं के वास्तव में कितने दूसरे घर हैं,लेकिन ऐसे सवालों का भला कहां जवाब मिलता है। मसलन अक्सर टेलीविजन के पर्दे पर सर्वेक्षण रिपोर्ट की घुट्टी पीने को मिलती है कि,फलां समूह के सर्वे से मालूम हुआ है कि फलां राजनेता की लोकप्रियता के ग्राफ में भारी वृद्धि हुई है…जबकि,अमुक की जनप्रियता में गिरावट आई है। इस राजनेता को इतने फीसद लोग प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं…और फलां को इतने। आज यदि चुनाव हो जाएं तो इस दल को इतनी सीटें मिलेंगी और उसे इतनी। ऐसे सर्वेक्षणों को देखने और समझने की कोशिश के बाद मन में सवाल उठता है कि आखिर ये सर्वेक्षण करने वाले कौन हैं और इन्हें यह करने का अधिकार किसने दिया। ऐसे सर्वेक्षणों का आधार क्या है और इससे भला देश व समाज को क्या हासिल होने वाला है,लेकिन सर्वेक्षण हैं कि होते ही रहते हैं,कभी इस कंपनी का-कभी उस कंपनी का। ८० से ऊपर की उम्र वाले उस स्मार्ट बुजुर्ग का वह मासूम सवाल भी बड़ा दिलचस्प था। उनकी दलील थी कि आजादी के बाद जब देश में पहला चुनाव हुआ,तब तक वे होश संभाल चुके थे,लेकिन तब के चुनाव में भी गरीबी और बेरोजगारी का मुद्दा उतना ही महत्वपूर्ण था जैसा आज है। आखिर ऐसा क्यों…,लेकिन इस सवाल का जवाब उस बुजुर्ग को जीवन संध्या तक नहीं मिल पाया। हैरानी तो तब भी होती है जब देखा जाता है कि,हर राज्य का मुख्यमंत्री अपने प्रदेश को श्रेष्ठ,स्वर्ग समान और नम्बर १ बताता है,लेकिन उसी राज्य के विरोधी नेता प्रदेश को पिछड़ा और नर्क का पर्याय कैसे बताते हैं। यही नहीं,अमूमन हर राज्य का मुख्यमंत्री अपने-अपने प्रदेश में निवेशकों को आकर्षित करने के लिए समय-समय पर देश-विदेश के दौरे करते रहते हैं। लौटकर बताते हैं कि फलां-फलां पूंजीपतियों ने राज्य में इतने निवेश का भरोसा दिया है। सम्मेलनों में धनकुबेर आयोजन से जुड़े राज्य को श्रेष्ठ बताते हुए उसका बखान करते हैं। सूबे को अपना पसंदीदा और दूसरा घर बताते हुए जल्द ही मिल- कारखाना खोलने का भरोसा दिलाते हैं। इसे देखकर धनकुबेरों से यह सोचकर सहानुभूति होने लगती है कि,बेचारों का पूरा दिन तो राज्य-राज्य घूमकर यही बतलाने में चला जाता होगा। पता नहीं, क्यों उनकी हालत देख कस्बों के उस तबके की याद आने लगती है जिन्हें लोग पैसे वाले समझते हैं और देखते ही चंदे की रसीद ले दौड़ पड़ते हैं। ऐसे में उनका सारा दिन भागने-भगाने में व्यतीत होता है। महाआश्चर्य तो उस प्रतिबद्धता से भी होता है जिसमें ब्रह्रांड सुंदरी से लेकर विश्व सुंदरी तक सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करती है। हस्ती बनने के बाद समाज के लिए कुछ करने की इच्छा जाहिर करती है,लेकिन आज तक किसी सुंदरी को जनकल्याण करते किसी ने नहीं देखा। सभा बंद ठंड कमरों में होने वाली सूटेड-बूटेड भद्रजनों की हो या बड़े- बड़े धनकुबेरों की,हर कोई गरीबों के प्रति हमदर्दी जाहिर करते हुए जनकल्याण और समाजसेवा को अपना लक्ष्य बताते हैं। ऐसी बैठकों में उपस्थिति के बाद मन में सवाल उठता है कि,इतने सारे लोग यदि सचमुच जनकल्याण करना चाहते हैं तो कायदे से तो समाज में कल्याण करने वालों की संख्या अधिक होनी चाहिए और सेवा लेने या कल्याण कराने वाले कम,किंतु वास्तव में ऐसा होता क्यों नहीं। कड़ाके की ठंड में भी मैंने ऐसे अनेक समारोह देखे जहां मुफ्त की कम्बल लेने के लिए लाभुकों में खींचतान चलती रही। यह स्थिति भी विचित्र विरोधाभास का आभास कराते हुए कौतूहल पैदा करती है। अचंभित करने वाले सवाल यहीं नहीं रुक जाते-हमारे फिल्म निर्माता यह जानते हुए भी कि फिल्म में इस-इस तरह के प्रसंग डालने से एक वर्ग की भावनाएं आहत हो सकती है,विरोध प्रदर्शन क्या,दंगा-फसाद तक हो सकता है,पर डालते हैंl विरोध करने वाले भी जानते हैं कि वे चाहे जितनी लानत-मलानत करें,लेकिन न्यायालय या अन्य किसी के हस्तक्षेप से फिल्म पर्दे तक पहुंचेगी और दो-चार सौ करोड़ी क्लब में भी शामिल होगी,लेकिन न फिल्म बनना रुकता है न विरोध- प्रदर्शन का सिलसिला। वाकई दुनिया में कुछ सवालों के जवाब नहीं होते हैं।
#तारकेश कुमार ओझा
लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं | तारकेश कुमार ओझा का निवास भगवानपुर(खड़गपुर,जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है |