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उनसे मेरी वह अंतिम मुलाक़ात किसी किस्म का संयोग भर ही कही जा सकती थी, क्योंकि मैं उनको बिना कोई पूर्व सूचना दिए, सहसा उनके उज्जैन स्थित निवास पर पहुँच गया था, जहाँ वे अपनी बेटी के साथ जीवन के आख़िरी वर्षों को गिन-गिन कर काटते जा रहे थे, क्योंकि एक असाध्य रोग से लड़ने के लिए उन्हें एक निर्धारित समय के बाद रक्त परिवर्तन करवाना लाजिमी हो जाता था। नतीजतन उनकी काया ‘रेत-सा तन रह गया था’ की-सी क्षीणता में जा रही थी। वे, विदा हो रहे, दिन के आख़िरी छोर पर रह जाने वाले, धूप के ज़र्द टुकड़े के दायरे में घर के पिछवाड़े दालान में पड़ी रहने वाली एक शिकस्ता कुर्सी पर सिमटे हुए बैठे थे। उस कमजोर धूप के टुकड़े में वह कुछ ज़्यादा ही कमजोर दिख रहे थे। मुझे हल्के से अचरज ने बेतरह घेर लिया, क्योंकि हर बार देखते ही तपाक से बोलने की उनकी चिर-परिचित आदत को जैसे उन्होनें खुद रह कर बरज दिया था और वह उनके पास आते-आते रुक गई थी।
‘कैसे हो प्रभु ?’ उन्होनें गाढ़ी, लेकिन बहुत धीमी आवाज़ में सवाल पूछा, जैसे वह सवाल नहीं अपनी ही कविता के भीतर की कोई प्रश्नाहत पंक्ति हो, जिसे उन्होनें निस्पृह ढंग से बोल दिया हो। कुछ क्षणों तक उन्होनें बहुत आत्मीयता के साथ मुझे देखते रहने के बाद, सहसा खुद को समेट लिया। उनकी वह रुचि, जो मुझको लेकर उनकी आँखों में दिख रही थी, झड़ गई। और अब वे जैसे अपरिचय के घेरे में बैठे हुए हैं, बिल्कुल अन्य व्यक्ति।
वे रक्त परिवर्तन के बाद शाम में, घर के बाहर आकर बैठे थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था, क्या बात की जाए। जिस आदमी के सामने हर बेतुकी बात, अपने लिए तुरंत कोई तुक खोज लेती रही थी, वहाँ मैं उनसे बतियाने से रुका हुआ था। वह भाषाच्युत से लग रहे थे। एक कवि, जो हमेशा शब्दों के ज़खीरे की उठा-धरी में लगा रहा हो, उसकी ऐसी चुप्पी चुभने लगी थी। मैंने अपने द्वारा अर्जित थोड़े बहुत शरीर विज्ञान की जानकारी के सहारे अनुमान लगाया कि,निश्चय ही उनके रक्त में सोडियम पोटेशियम के निर्धारित अनुपात में कुछ उलट-फेर है, जिसकी वजह से एक ‘सारगर्भित बतरस’ का दक्ष शब्दकार इतना मूक जान पड़ रहा है। मैंने चुप रहना उचित समझा। उनके चेहरे पर एक मटमैली उदासी थी, जिसे विदा लेती धूप के टुकड़े ने और अधिक ज़र्द बना दिया था।
मैंने बजाए बात करने के, आहिस्ता से अपना हाथ बढ़ाकर उनके घुटनों पर रख दिया। लगा, वह जीवन भर ‘हड्डियों में ज्वर भरा रहने वाला हिस्सा’ है शरीर का।
‘इंदौर को आपने अब एक सौतेले शहर की तरह छोड़ दिया। आप आते ही नहीं।’ मैंने बात का सिरा तजवीज़ कर बोलना शुरू किया। वे, अपनी उम्र के इस पड़ाव पर भी काफी बड़ी-बड़ी लगने वाली सजग आँखों से देखने लगे। फिर आँखें बंद कर लीं। मुझे लगा, वे आँखें बंद करके कुछ भूलने की कोशिश में लगे हैं। जैसे कोई पुरानी रेखा है, जिस पर वे बार-बार रबर फेर रहे हैं। हो सकता है, वह उन्हीं की खींची हुई कोई रेखा हो, भीतर मन में।
पहली बार अपने अकेलेपन में वे इतने निरे अकेले लगे। इंदौर के संवाद नगर में मेरे पड़ोस में रहते हुए वे अक्सर अकेले ही रहा करते थे। वे सबको अकेले ही दिखाई देते, घूमते-फिरते, खड़े-ठिठके। पर मुझे हमेशा लगा करता था जैसे उनके साथ कोई है, जिसे लोगों की आँखें ठीक से देख नहीं पातीं। वे असफल हैं चीन्हनें में कि कौन है उनके साथ। मैं उन्हें कहा करता था, ‘देवताले जी, मुक्तिबोध की कविता का बौखलाया हुआ आदमी वहाँ से निकलकर आपके साथ रहने चला आया है।’ मेरी इस बात पर वह संदेह से देखते। बात को नहीं, बल्कि मुझे। कहीं मेरी बात के पीछे कोई उपहास तो नहीं। फिर उन्हें यकीन आ जाता। चूँकि मैं ‘अंधेरे में’ जैसी लंबी कविता ‘भूखंड तप रहा है’ की याद दिलाता।
जो उनके निकट रहे हैं, वे जानते थे कि उनकी उस खिन्नता से खेलने का एक आनंद है, जो उनकी हंसियों के पीछे हमेशा दुबकी रहा करती है। मैं उनसे सवाल कर बैठता-‘आपकी कविता का साठ के दशक की अकविता से रिश्ता क्यों जोड़ लेते हैं कुछ लोग।’ उनके चेहरे पर एक रिक्तता तैरने लगती। उनकी खिन्नता की धारावाहिक छवियाँ प्रकट होने लगतीं। फिर वे उस लांछन को पोंछ फेंकने की हड़बड़ी में कुछ खुरपी जैसे तीखे और धारदार वाक्य लाते और सबकुछ खरोंच फेंकते। सब कुछ इतना साफ कर देते कि,वहाँ चमक ही चमक दिखने लगती। वे एक बिगड़ैल और बनैली भाषा का हाथ छोड़कर हंसने लगते। कहते-
‘प्रभु, तुम शातिर हो।’ वैसे उन्होनें अपनी खीझ को कभी इतना बड़ा नहीं होने दिया कि वह उनके व मेरे बीच की मिठास को निगल जाए। मैं उनकी खीझ को निकालने चरणबद्ध योजना बनाता, जिसके तहत मैं हिन्दी आलोचना के अधिपतियों का हवाला देता। वे कहते- ‘साहित्य में भी हवाला कांड चलता रहता है।’
हालाँकि, उन्हें आलोचना से कोई वैमनस्य नहीं था। वे कुछेक चर्चित आलोचकों के प्रियभाजन और मित्र रहे थे। उनके पास आलोचना की दृष्टि और भाषा भी थी। मुझे याद है उन्होंने अशोक वाजपेयी की पहली आलोचना पुस्तक ‘फिलहाल’ की अच्छी आलोचना की थी।
यों वे भुलक्कड़ कवि की फितरत और मौज में रहा करते थे,लेकिन विस्मृति के विरुद्ध ही थे। मेरी उनसे क्रमिक नोक-झोंक और असहमतियाँ बनी रहीं,लेकिन, मैंने उन्हें बहुत प्रीतिकर ढंग से अपनी असहमतियों से परिचित कराया। कविता में भाषा के संवादपरक रूप के वे बहुत प्रवीण हस्ताक्षर थे और ‘वर्ब-डेविएशन’ के एकमात्र हिन्दी कवि,जो पश्चिम के कवियों की-सी तराशी भाषा के दावेदार थे। मैंने उनसे कहा कि-‘एक बार आपकी कविता के सरंचनात्मक व्याकरण को रिकॉर्ड करना चाहता हूँ’, तो वे बोले-‘तुम मेरा पोर्ट्रेट बना दो, यह मुझे ज़्यादा खुश करेगा।’ आखिर में, मैंने भाई प्रदीप मिश्र के साथ उनका पोर्ट्रेट उज्जैन जाकर भेंट किया। मैंने कहा था-‘देवताले जी, आप पर प्रभु का यह देवताले निरंतर निगाह रखेगा। अब आप उसकी निगरानी में रहेंगे।’
(वरिष्ठ कवि चन्द्रकान्त देवताले जी के निधन पर टिप्पणी।)
#प्रभु जोशी
परिचय: प्रभु जोशी, कुमार गंधर्व के नगर देवास की धरा पर जन्में, जीवविज्ञान में स्नातक तथा रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर के उपरांत अंग्रेज़ी साहित्य में भी प्रथम श्रेणी में एम.ए.उत्तीर्ण हिन्दी साहित्य के नक्षत्र , कहानीकार, लेखक और चित्रकार जिन्होने माँ अहिल्या के आँचल इंदौर (मध्यप्रदेश) को अपना कर्म क्षेत्र चुना |
आपने बतौर पत्रकार इंदौर से प्रकाशित दैनिक अख़बारों के साथ-साथ आकाशवाणी इंदौर में भी अपनी सेवाएँ दी |राष्ट्रीय और कई अंतराष्ट्रीय पुरूस्कर जैसे बर्लिन में संपन्न जनसंचार के अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में आफ्टर आल हाऊ लांग रेडियो कार्यक्रम को जूरी का विशेष पुरस्कार धूमिल, मुक्तिबोध, सल्वाडोर डाली, पिकासो, कुमार गंधर्व तथा उस्ताद अमीर खाँ पर केंद्रित रेडियो कार्यक्रमों को आकाशवाणी के राष्ट्रीय पुरस्कार। ‘इम्पैक्ट ऑफ इलेक्ट्रानिक मीडिया ऑन ट्रायबल सोसायटी’ विषय पर किए गए अध्ययन को ‘आडियंस रिसर्च विंग’ का राष्ट्रीय पुरस्कार आदि से नवाज़े जा चुके प्रभु जोशी वह व्यक्तित्व है जो ‘हिंदी की हत्या के विरुद्ध‘ सदैव खड़ा रहा | प्रभु जोशी जी जैसी प्रतिभा को जन्म और पोषण देकर मालवा की मिट्टी ने एक बार फिर अपने गहन, गंभीर और रत्नगर्भा होने का प्रमाण दे दिया है |
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