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एक छोटी समस्या कैसे विकराल रूप ले लेती है,और उसके हल के लिए शासकीय तंत्र कैसे अपनी भूमिका से पीठ दिखाता है,यही दिखाया गया है ‘टॉयलेट:एक प्रेम कथा’ फिल्म में। कहानी यह है कि,36 वर्षीय केशु (अक्षय कुमार) की शादी नहीं हो पाई है। तब रूढ़िवादी परम्परा और अंधविश्वास के चलते एक भैंस ‘मल्लिका’ से केशु का
विवाह कराया जाता है। केशु,साइकिल की दुकान चलाता है और साइकिल देने पास के गाँव में जाता है, तो मुलाकात जया(भूमि पेडणेकर) से हो जाती है।उसे दिल दे बैठता है,और पटाने में लग जाता है। छोटी-मोटी तकलीफ के बाद शादी भी हो जाती है लेकिन,शादी के बाद फ़िल्म में बड़ा ट्विस्ट आता है। पहला कि-यह केशव का दूसरा विवाह है,दूसरा -ससुराल में टॉयलेट नहीं है और खुले में शौच के लिए जाना हो तो नारियों को सुबह तड़के से पहले जाना पड़ता है।
पहला विषय तो जया छोड़ देती है, लेकिन पढ़ी-लिखी होने के कारण दूसरे विषय पर विद्रोह कर देती है। खुले में शौच के लिए मना कर देती है,और अपने घर चली जाती है। आखिरकार एक नारी की अस्मिता और इज़्ज़त पर बन आती देख खुले में शौच से मुक्ति के लिए इसे बनवाना ही पड़ता है।
फिल्म में दकियानूसी विचारों और आधुनिकता के साध घर की अस्मिता पर प्रश्न खड़े किए गए हैं। एक बड़ा सवाल कि,जिस आँगन में तुलसी पूजी जाती हो,वहां शौचालय असामान्य लगता है, लेकिन सनातन धर्म में कहीं भी शौचालय के विरुद्ध कुछ भी नहीं कहा गया है। पुरातन काल से घर के पिछवाड़े शौच के इंतज़ामात हुआ करते थे।
फिल्म के एक दृश्य में अक्षय के पिता (सुधीर पांडे) द्वारा टॉयलेट को तोड़ना और अक्षय का जवाब काबिले गौर दृश्य है। फ़िल्म का पहला हिस्सा गुदगुदाते हुए आगे बढ़ता है,लेकिन दूसरा भाग उबाऊ और सरकारी तंत्र का बिगुल बजाने लगता है।
विचारणीय सवाल है कि,देश की ५८ प्रतिशत आबादी आज भी खुले में शौच करती है। इसमें नारी को खुले में शौच के लिए आज भी उपहास का पात्र होना पड़ता है। इसी मुद्दे को गहराई से बयां करती है ये फ़िल्म।
निर्देशक नारायणसिंह की यह महज दूसरी फिल्म है। इसके पहले बतौर सम्पादक अक्षय की बेबी,रुस्तम, एयरलिफ्ट,जॉली एलएलबी और १२ से ज्यादा फिल्में उनके खाते में हैं, लेकिन उन्होंने जो ग्रामीण परिदृश्य उकेरा है,उससे लगता है कि उन्हें बड़ी पक्की समझ-बूझ है। अक्षय के बड़े ब्रांड्स की कॉपी टी शर्ट,चश्मा और मोबाइल पर फ़िल्म चलन निश्चित तौर पर आपको जोड़ती है,साथ ही स्थान भी उम्दा लिए हैं,लेकिन सम्पादक से निर्देशक बने नारायण फ़िल्म की कटिंग नहीं कर पाए हैं। वह पूर्वाग्रह से ग्रसित हो गए,इसलिए फिल्म २ घंटे ३५ मिनट देखना ज्यादा लम्बी लगती है।
अगर अदाकारी की बात करें तो, अक्षय लाजवाब होते जा रहे हैं। भूमि ने भी उम्दा अभिनय किया है। एक दृश्य में भूमि के मोनोलॉग में उसकी अभिनय की बारीकियां दिखती हैं। यह जोड़ी एकदम ताजा लगती है। सुधीर पांडे, दिव्यांशु शर्मा बेहतरीन काम दिखा गए हैं,जबकि बाकी सब औसत है।
संगीत पक्ष इतना सटीक नहीं लगता है ।कहीं-कहीं तो गाने ठूंसे हुए लगते हैं। एक गाना ‘लठ्ठ मार…’ ठीक-ठाक बना है। इस फिल्म का बजट मात्र १८ करोड़ रुपए है। अक्षय ने अपने अभिनय की कीमत नहीं ली है,शायद उन्होंने वर्तमान सरकार के राष्ट्रीय पुरस्कार का कर्ज चुकाया है।
फ़िल्म २९०० से ३००० सिनेमाघरों में प्रदर्शन के साथ अकेले प्रदर्शित हुई है।अनुमान है कि,१२ से १५ करोड़ की शुरुआत मिल जाएगी। इस फ़िल्म की कुल कमाई का अनुमान ७० करोड़ पार का लग रहा है।
अंततः फ़िल्म हंसते-गुदगुदाते विषय पर पहुँच जाती है और एक छोटी समस्या को विकराल रूप में दिखा जाती है,लेकिन वर्तमान सरकार के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को पूरा-पूरा सहयोग करती है, तभी तो उत्तर प्रदेश में फ़िल्म कर मुक्त कर दी गई है। विद्या बालन के विज्ञापन को फिल्म के रुप में २ घंटे ३५ मिनट का बना दिया गया है,लेकिन यह हल्का-फुल्का मनोरंजन कर देती है।
#इदरीस खत्री
परिचय : इदरीस खत्री इंदौर के अभिनय जगत में 1993 से सतत रंगकर्म में सक्रिय हैं इसलिए किसी परिचय यही है कि,इन्होंने लगभग 130 नाटक और 1000 से ज्यादा शो में काम किया है। 11 बार राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व नाट्य निर्देशक के रूप में लगभग 35 कार्यशालाएं,10 लघु फिल्म और 3 हिन्दी फीचर फिल्म भी इनके खाते में है। आपने एलएलएम सहित एमबीए भी किया है। इंदौर में ही रहकर अभिनय प्रशिक्षण देते हैं। 10 साल से नेपथ्य नाट्य समूह में मुम्बई,गोवा और इंदौर में अभिनय अकादमी में लगातार अभिनय प्रशिक्षण दे रहे श्री खत्री धारावाहिकों और फिल्म लेखन में सतत कार्यरत हैं।
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