जीवन प्रबंधन की पाठशाला पुण्यश्लोका लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर

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लोकमाता अहिल्या बाई होलकर की 300वीं जयंती विशेष

हम सभी के जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। मुश्किल समय में भी पूरी दृढ़ता के साथ परिवार और समाज के साथ खड़े रहना, यह आसान नहीं लगता। लेकिन जब हम पूजनीय माँ अहिल्या के जीवन पर दृष्टि डालते हैं, तो जीवन में सभी प्रकार की परिस्थितियों से लड़ने की प्रेरणा मिलती है। तो आइए, चलते हैं जीवन प्रबंधन की पाठशाला की ओर –

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी गाँव में 31 मई 1725 को मानको जी शिंदे के यहाँ अहिल्या ने जन्म लिया। माता-पिता की लाड़ली बेटी को उस समय, जब लड़कियों को शिक्षा नहीं दी जाती थी, में पिता ने लिखना-पढ़ना सिखाया। माँ ने बचपन से ही ईश्वर में आस्था और विश्वास के संस्कार का जागरण किया। पिता गाँव के पाटिल थे और साधारण परिवार से थे। लेकिन नियति ने तय किया था कि अहिल्या को लोकमाता देवी अहिल्याबाई होलकर बनना है।

एक दिन पुणे जाते समय चौंड़ी में विश्राम करते वक्त सूबेदार मल्हारराव होलकर की दृष्टि मंदिर में पूजा करने के बाद भूखों को भोजन कराती आठ वर्षीय अहिल्या के सहज, सरल, संवेदनशील चरित्र पर पड़ी, और उन्होंने अपने पुत्र से अहिल्या का विवाह करना तय किया। वर्ष 1733 में विवाह हुआ और तत्पश्चात वे अहिल्या खांडेराव होलकर बन कर अपनी ईश्वर के प्रति आस्था को साथ लिए, होलकर राजघराने आ गई और समय के साथ-साथ विभिन्न परिस्थितियों का सामना कर राज पाठ के गुर भी सीखती गई।

इसी बीच उन्होंने एक पुत्र मालेराव और तीन वर्ष बाद एक पुत्री मुक्ताबाई को जन्म दिया। समय बीतता गया। बच्चों में भी दया, करुणा, संवेदनशीलता, प्रेम के संस्कार का बीजारोपण उन्होंने जारी रखा। सब अच्छा चल रहा था, किंतु नियति बहुत निष्ठुर है। वर्ष 1754 में कुम्भार युद्ध के दौरान उनके पति खांडेराव होलकर वीरगति को प्राप्त हो गए। उस समय सती प्रथा ज़ोरों पर थी। अहिल्या बाई के ससुर ने उन्हें सती होने नहीं दिया। और अपने साथ राज पाठ चलाना सिखाया। प्रशासनिक फ़ैसले, ज़िम्मेदारियों का निर्वहन, कूटनीति, राजनीति के बारीक से बारीक दांव-पेंच जो आवश्यक थे, वो अहिल्या अपने पिता समान ससुर से सीखती गई।

वर्ष 1766 में ससुर की मृत्यु के पश्चात् शासन अहिल्याबाई के नेतृत्व में उनके पुत्र मालेराव ने संभाला। किंतु विधाता को कुछ और ही मंज़ूर था। अहिल्या बाई पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा, ससुर के जाने के दुःख से अभी वो उबर भी न पाई थी कि मात्र एक वर्ष में ही 1767 में उन्होंने अपने युवा पुत्र को खो दिया। इतना विकट समय जब अपना कोई साथ नहीं, तब मानसिक संबल, साहस और शौर्य के साथ अहिल्याबाई ने शासन किया। ऐसा शासन जिसकी तूती इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में अंकित है।

भगवान शिवजी के प्रति आस्था, प्रजा के प्रति ममत्व और राजगद्दी के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठा के भाव ने उन्हें न्यायप्रिया बनाया। समय आने पर अस्त्र-शस्त्र से सज्जित होकर अपनी प्रजा की रक्षा भी की, हाथी पर बैठकर दुश्मनों पर तीर-कमान से हमला करने की छवि उन्हें साहसी और कर्मयोगिनी बनाती है। उन्होंने सदैव अपने राज्य को मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचाने का प्रयास करने के साथ ही, अंग्रेज़ों के विरुद्ध पेशवा को आगाह किया, जो उनकी दूरदृष्टिता और कुशल रणनीतिकार होने के साथ-साथ बहुत बेहतर राजनीतिज्ञ होने का परिचायक है।

न्यायप्रिया अहिल्याबाई प्रतिदिन अपनी प्रजा की समस्याएँ व्यक्तिगत तौर पर सुनती और हाथों-हाथ समाधान भी करती थी। प्रजा को सदैव पुत्रवत स्नेह देने वाली, हर परिस्थिति में सदैव अपनी प्रजा के साथ खड़ी रहने वाली, सदैव प्रजा का हौंसला बढ़ाया.. अपने अत्यंत प्रिय स्वजनों के न रहने के बाद भी उन्होंने कभी व्यक्तिगत दुःख और विषाद को अपने कर्त्तव्य के मध्य नहीं आने दिया, जिसने उन्हें माँ अहिल्या बनाया। उनकी मान्यता थी कि प्रजा का संतति की तरह संभाल ही राजधर्म है। उनके शासन में हर आम-ख़ास के लिए समान प्रकार के नीति-नियम थे। प्रजा अपनी राजमाता से बहुत संतुष्ट थी। इसी कारण कई लोगों के निज़ामशाही और पेशवाशाही छोड़कर उनके साथ आने के आग्रह के उल्लेख मिलते हैं। अपने छोटे से साम्राज्य में सुशासन के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयास, एक शासक से अधिक उन्हें महान व्यक्तित्व बनाते हैं।

उनके शासन में राजाज्ञाओं पर हस्ताक्षर के स्थान पर वह श्री शंकर लिखती थी। रुपयों पर शिवलिंग और बिल्व पत्र का चित्र और पैसों पर नंदी अंकित होते थे। उनका विश्वास था कि इस प्रकार ईश्वर को साक्षी मानकर कार्य करने से कभी किसी का अहित नहीं होगा।

अपने छोटे से कार्यकाल में उन्होंने केवल मालवा ही नहीं अपितु देश में कई धर्म स्थलों पर विश्राम गृह, घाट, कुएँ, बावड़ी, प्याऊ, मंदिर, पुलिया, अन्नक्षेत्र, सड़कें, किले आदि बनवाए। इतिहास कहता है कि भगवान शिवजी के प्रति आस्था ने उन्हें सदैव धर्म सम्मत, धर्म रक्षक और धर्म हितार्थ कार्य हेतु प्रेरित किया। साथ ही, मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए मंदिरों के विषाद के कारण ही उन्होंने सोमनाथ में शिवजी का मंदिर बनवाया। साथ ही, काशी, अयोध्या, हरिद्वार, द्वारका, बद्रीनाथ आदि को संवारने में उनकी बड़ी भूमिका रही। हम प्रत्यक्ष भी विभिन्न प्रदेशों में धर्म स्थलों व उसके आसपास उनके द्वारा लोकहितार्थ कराए गए निर्माणों को देख सकते हैं, जिसने उन्हें लोकमाता बनाया।

उन्होंने अपनी दूरदृष्टि से प्रयासपूर्वक कला, साहित्य, संगीत और उद्योग के द्वार खोले। उन्होंने महेश्वर को अपनी राजधानी बनाया। पवित्र नदी नर्मदा के आसपास कपड़ा उद्योग स्थापित करवाया। बहुत बुद्धिमानी से उन्होंने सरकारी धन लोकहित में लगाने के साथ-साथ अपने राज्य को समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाने हेतु सतत् प्रयास किए।

13 अगस्त 1795 को सत्तर वर्ष की उम्र में देवी अहिल्याबाई होलकर ईश्वरीय कार्य करते-करते स्वर्ग सिधार गई। तत्पश्चात शासन उनके अत्यंत विश्वासपात्र तुकोजीराव होलकर ने संभाला। माँ अहिल्या का चरित्र समाज के लिए कल भी प्रासंगिक था, आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

माँ अहिल्या के आशीर्वाद और प्रेरणा से आज अहिल्या नगरी इंदौर विश्व विख्यात है। सेवा, परोपकार, संवेदनशीलता के संस्कार को आज भी उसी रूप में मालव माटी में महसूस किया जा सकता है।
अपनी आंतरिक शक्तियों का संग्रहण कर विपरीत परिस्थितियों का सामना करना थोड़ा मुश्किल ज़रूर हो सकता है, किंतु नामुमकिन नहीं है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हम सभी माँ अहिल्या के दिखाए मार्ग से प्रेरणा लेकर, इंदौर गौरव दिवस के अवसर पर शहर के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों और कर्त्तव्यों को प्राथमिकता में रख वास्तव में गौरव की अनुभूति कराने वाले रचनात्मक कार्यों में संलग्न रहेंगे।

#डॉ. माला सिंह ठाकुर
राष्ट्रीय सचिव, लोकमाता अहिल्याबाई होलकर त्रिशताब्दी समारोह समिति

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