कविता – पापा

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आज इतवार है, और आज भी मुझे वो बचपन वाला इतवार याद आता है।

मैं घर में सबसे छोटी हूँ, भैया की दुलारी और पापा की परी हूँ मैं।

शनिवार रात से ही सुबह का इंतज़ार रहता था, कई बार तो सोते-सोते ही सपनों में ही इतवार घूम जाता था।

सुबह आँख खुलते ही पापा से पहला सवाल, ‘कब चलेंगे?’ पापा जवाब में कहते, ‘शाम को चलतें हैं बेटू।’

बस फिर क्या सारा दिन इंतज़ार, और ना जाने कितनी ही बार अपनी सहेलियों को इतरा-इतरा कर बता देती कि शाम को मैं पापा के साथ पार्क में जाऊँगी।

शाम को मैं मम्मी से ज़िद करके कहती कि वो नई वाली हरे रंग की फ्रॉक पहननी है, मम्मी फ्रॉक पहना कर फूँदने वाली दो चोटी बनाकर और मुँह पर थोड़ा-सा पाउडर लगाकर जाने के लिए तैयार कर देती।

बस फिर पापा मुझे साइकल के डंडे पर लगी छोटी-सी सीट पर बैठा देते, फिर पापा और मैं चल पड़ते।

शाम की सूनी-सूनी सड़कों पर राजबाड़ा से एम जी रोड, रीगल चौराहे से अंदर नेहरू पार्क में।

पापा की उँगली पकड़ दरवाज़े पर ही क़ुल्फ़ी वाला होता, ओरेंज कलर की क़ुल्फ़ी कुछ खाते कुछ टपकाते अंदर जाते, मैं चंचल उछल-कूद करती, इधर-उधर नैना मटकाकर फूल पत्तों को निहारते हुए आगे बढ़ते ।

पापा अपनी लाड़ो को झूला झुलाते, जब-जब झूला ऊपर जाता, मैं पापा से ज़ोर से कहती, ‘पापा और ऊपर और ऊपर।’

फिसल पट्टी पर भी फिसलाते, चकरी वाले घोड़े पर भी बैठाते, और रेलगाड़ी की भी सैर करवाते।

छुक-छुक करती रेलगाड़ी, सीटी बजाती, पूरा चक्कर लगाकर जब रुकती, पापा को सामने खड़े पाकर मैं उतर कर ख़ुशी से उनसे लिपट जाती।

बस फिर पाप कहते, ‘अब चलें बेटू?’ मैं ज़िद करती, ‘और थोड़ी देर पापा’, पापा कहते, ‘हम फिर आएँगे अगले इतवार को।’

मैं अगले इतवार के इंतज़ार में, पापा की उँगली पकड़े-पकड़े फिर साइकल पर बैठ घर की ओर चल पड़ती।

उन दो घंटों में मैं ना जाने कितनी ख़ुशियाँ, कितने सपने समेटे हुए घर पहुँच जाती।

आज भी इतवार है पर वो बचपन वाला इतवार अब नहीं आता, वो बचपन वाला इतवार अब नहीं आता।

पापा को समर्पित

नीलम सिंह सूर्यवंशी,

इन्दौर, मध्य प्रदेश

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