13 अप्रैल 1919
बैसाखी की वह सुबह
अरुण रवि,अरुणिम उषा
फैला दिशि-दिशि रवि करजाल
कुछ उलझा–सा
यूँ उलझ गया
गहन तम तमस आवृत्त
हुआ विहान रक्त-रक्तिम
यह कैसा बैसाख!
आज़ादी का शंखनाद गुंजित
विप्लव वीरों के स्वर से हर्षित
आत्म गौरव पुलक से पुलकित
सराह रहा स्वभाग्य अपरिमित
अनागत से रहा अपरिचित
प्रमुदित जलियांवाला बाग
हाऽऽ!ये कैसा हाहाकार!
गोलियों की अनवरत बौछार
शासक का क्रूर अट्टहास
ओह! वह निर्मम नरसंहार!
आर्तनाद! करुण दारुण विलाप
व्यथित हृदय चीत्कारता
ख़ून के आँसू रोता
दुखित जलियांवाला बाग
काले पन्नों पर सिसकता
इतिहास जार–जार रोता
पर लिए हृदय में हुताशन
आज़ादी का शंखनाद दिक्-दिक्
शहीदों की शहादत
‘औ’ गोलियों के निशां
फिर-फिर भरते हुंकार
क्षुब्ध जलियांवाला बाग
आततायियों! तुम यह जानो
हम भरत की संतान हैं
मुँह में हाथ डाल सिंह के
दाँत हमने गिन डाले हैं
तुम भीरू, कायर, क्लीव
किया निहत्थों पर वार
निर्दोष सहस्रों के लहू का
तुम्हें चुकाना है हिसाब
ली अटल सौगंध जिसने
इतिहास का अमिट पृष्ठ वह
गरजता जलियांवाला बाग
#यशोधरा भटनागर,
देवास, इंदौर