श्री सम्मेदशिखर जी को पर्यटन स्थल घोषित करने के विरोध में बुन्देली भाषा में कविता।
भाव सहित एक बार नमैं तो,
फल में मुक्ति-रमा लो।
सम्मेद शिखर है जान जैन की,
मिलकैं ई खों बचा लो।।
एन जोर से चीख-चीख कें
कै रव पर्वतराज।
खूब गुलामी के दिन देखे पर,
कैसौ ऐसौ राज।।
आजादी के दिन पाकें भइ,
रूप हमाव बिगाड़ौ,
कण-कण की पावनता को,
कैसो करो कबाड़ौ।।
प्रान हमारे ई मैं बस रय,
मुक्ती-रास रचा लो!!
सम्मेद शिखर जा जान जैन की,
मिलकैं ई खों बचा लो।।
तीर्थराज शाश्वत भूमि है,
भौत सुरक्षित है भइ!,
एक अकेलौ गौरव रै गव,
बाकी तो सब छिन गइ।।
बदरीनाथ, केदारनाथ,
अष्टापद जाने का का ?
अपनन ने दयि चोट तान की,
गिरनार चलो गव काका!
एक बची अब नाक जैनियो!
कटवे सैं जे ई बचा लो।।
सम्मेद शिखर जा जान जैन की,
मिलकैं ई खों बचा लो।।
दिल्ली को दरबार नँ सुन रव,
नँइ सुन रय झरखण्डी,
सौ दण्डी नँइ लेत हैं पंगा
भारी बुन्दिलखण्डी!
कान खींच कैं तेल डार कैं,
सुन लो दाऊ सबरे,
कम हैं, पर कमजोर न मानो
जुर गय अब तो सबरे।।
सत्य, अहिंसा में ताकत का ?
सब मिल इनैं नचा लो।।
सम्मेद शिखर जा जान जैन की,
मिलकैं ई खों बचा लो।।
जी के कारण चल रओ भारत!
सबसे बड़ी ग्रोथ हैं जैनी!
पन्ना तुम पलटो पाछे के,
गिरिवर मोक्ष-नसैनी!
ईमैं कछु बदलाव न करियो,
ओजस्वी है भौत भलाई!
बाद में फिर हमसे न कईयो,
कय खों सरकार गिराई!!
सोच समझ लो देखभाल लो
निर्णय जल्दी हटा लो।।।
सम्मेद शिखर जा जान जैन की,
मिलकैं ई खों बचा लो।।
तुम जन्मे ए इ पावनता में,
खेले-कूदे बड़े बने,
जानत हो सब थाती ई की
कैसें पर्यटन केंद्र बने!
जैसैं राम बने पै रावण
पाप भाव तज दैहै!
वैसईं पर्वत खों देखत ही
अंतर निर्मल हो जैहै!
साक्षात् निर्वाण-क्षेत्र है,
अन्तर निर्वाण जगा लो.।
सम्मेद शिखर जा जान जैन की,
मिलकैं ई खों बचा लो।।
अबै तो उतरे मौन भाव सैं,
केवल बन्द दुकानें!
एक दिना में का हालत भइ,
तुमसैं अच्छों को जानैं!
अब नँइ मानैं तो तुम समझौ,
का का हुइये भइया!
जनी-मान्स सब बालक-बूढ़े,
फिर वे मानते नँइया!
कूद पड़ौ सब तीर्थ बचावे,
चूलें इनकी हिला लो।
सम्मेद-शिखर जा जान हमाइ,
मिलकैं ई खों बचा लो।।
गणतंत्र ओजस्वी, आगरा
रचनाकार : गणतंत्र जैन ओजस्वी, खरगापुर
परिचय:
राष्ट्रीय सचिव, मातृभाषा उन्नयन संस्थान, भारत