हाँ! मैं राजेन्द्र माथुर हूँ।
मालवा भूमि पर 7 अगस्त, 1935 को मध्य प्रदेश के धार जिले में जन्म हुआ,
प्रारंभिक शिक्षा धार, मंदसौर एवं उज्जैन में हुई।
उच्च शिक्षा के लिए इंदौर आ गया,
जहाँ मेरे पत्रकारिता जीवन की शुरुआत हुई।
‘नई दुनिया’ के संपादक राहुल बारपुते जी से मेरी पहली मुलाक़ात देश के ख़्यात व्यंग्यकार शरद जोशी जी ने करवाई थी।
बाबा से अपनी पहली मुलाक़ात में पत्र के लिए कुछ लिखने की इच्छा जताई थी।
उसके बाद अगली मुलाक़ात में मैं अपने लेखों का बंडल लेकर ही बारपुते जी से मिला।
बाबा के अग्रलेख के बाद अनुलेख लिखने का सिलसिला लंबे समय तक चला।
सन् 1955 में ‘नई दुनिया’ की दुनिया से जुड़ने के बाद मैं 27 बरस तक ‘नई दुनिया’ परिवार का हिस्सा रहा।
मैं अंग्रेज़ी का जानकार रहा पर हिन्दी पत्रकारिता ने मुझे बेहद संजीदगी से स्वीकार कर लिया।
सन् 1965 में बदलाव करते हुए मैंने ‘पिछला सप्ताह’ नामक लेख लिखना प्रारंभ किया।
मैं गुजराती कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक के रूप में कार्यरत था, 1969 में अध्यापकी छोड़ पूरी तन्मयता के साथ ‘नई दुनिया’ की दुनिया में रम गया।
‘पिछला सप्ताह’ स्तंभ लिखना मैंने आपातकाल तक जारी रखा।
1975 के आपातकाल के दौरान सरकार ने जब प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का प्रयास किया, तब मैंने ‘शीर्षक’ के नाम से सरकारी प्रतिक्रिया की परवाह किए बिना धारदार आलेख लिखे।
सन् 1980 से मैंने ‘कल, आज और कल’ शीर्षक से स्तंभ लिखना शुरु किया।
14 जून, 1980 को मैं प्रेस आयोग का सदस्य चुना गया।
इसके बाद सन् 1981 में मैंने ‘नई दुनिया’ के प्रधान संपादक के रूप में पदभार संभाला।
प्रेस आयोग का सदस्य बनने के पश्चात मैं टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादक गिरिलाल जी जैन के संपर्क में आ गया। उन्होंने मुझे दिल्ली आने का सुझाव दिया।
लंबे अरसे तक सोच-विचार करने के पश्चात मैंने दिल्ली का रुख किया।
सन् 1982 में नवभारत टाइम्स का प्रधान संपादक बन कर मैं दिल्ली पहुँच गया।
दिल्ली आने के पश्चात मैंने ‘नवभारत टाइम्स’ को दिल्ली, मुंबई से निकालकर प्रादेशिक राजधानियों तक पहुँचाने का काम किया।
‘नवभारत टाइम्स’ को हिन्दी पट्टी के पाठकों तक पहुँचाते हुए लखनऊ, पटना एवं जयपुर संस्करण प्रकाशित किए।
यही समय था, जब मुझे राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली। और एडिटर्स गिल्ड का प्रधान सचिव भी बनाया गया।
मेरे लेखों के कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें प्रमुख हैं- गांधी जी की जेल यात्रा, राजेंद्र माथुर संचयन- दो खण्डों में, नब्ज़ पर हाथ, भारत : एक अंतहीन यात्रा, सपनों में बनता देश, राम नाम से प्रजातंत्र।
9 अप्रैल, 1991 की दोपहर मेरा बुलावा आया गया और मुझे शरीर छोड़कर शब्द देह का रूप धारण करना पड़ा।
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान, भारत
सम्पादक, मासिक साहित्य ग्राम
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