देख लिया जग सारा तुमने
चलो लौट चलें अब गांव की ओर
सदियों से ढोते अपमान ,गंदगी
दरिद्रता ,अत्याचार, लाचारी
बड़ी-बड़ी अट्टालिकायों के पीछे
छिपे उस दोगले इंसानों को
मतलबी, मौकापरस्त, स्वेच्छाचारी
उस चमकते किंतु सिसकते महानगरों से
जहां गरीबी सबसे बड़ी गाली है
जहां पैसा ही भगवान है
दूर छोड़ के बंजर संवेदना को
चलो लौट चलें गांव की ओर
छोटा किंतु अपना और सम्मानित
स्वच्छ हवा, शीतल जल
सच्चे दिल ,सच्ची संवेदनाएं
त्योहारों के रंग बिरंगी मस्ती
बहुत दिया इन शहरों को तुमने
अपनी माटी से पैदा संपदायों को
फिर भी आज तू रोता है
अपनी ही अनाज के सही मूल्य और लागत पर
चूस चूस के लहू तेरा
तेरी काया पिंजर हो गई
पेट ना भर भर पाया तू अपना
उनकी तोंदें मोटी हो गई
चल छोड़ अपनी ही बनाई जंजीरें
बहा पसीना पुनः अपनी मिट्टी
में पैदा कर फिर संपदायें
करें सरकारों को मजबूर
लड़ें एक और लड़ाई
अपने खोए हुए स्वाभिमान को
पराधीनताओं की सीमाओं से हटकर
स्वाबलंबन को पाने की
चलो लौट चलें फिर गांव की ओर ।
स्मिता जैन