ढूँढती हूँ अनेकता में एकता
विविधतायों से भरे हुए से देश में
रंग गुलाल में मिलकर
जो प्यार के रंग में बदल जाता था।
ढूँढती हूँ अमन -चैन
इस फिरका परस्ती के दौर में
जहां भाई -भाई का रक्त पिपासु बन बैठा है।
ढूँढती हूँ उस अजेय से भारत के
प्यार और अपनत्व को
जहां से अहिंसा और सत्य का
वैश्विक उद्घोष होकर
धरती के हर दिशा में गूंजता था ।
ढूँढती हूँ राम और रहीम के
चौपाई और दोहों में
विश्व बंधुत्व के परम सत्य को
जियो और जीने दो की
शाश्वतता की भावना को
इस आपसी रंजिशें के दौर में ।
ढूँढती हूँ राम और कृष्ण को
जहां सीता और द्रोपती के सम्मान की खातिर
सत्तापिपासुयों के अहंकार से
दम्भित शीशों को
रणभूमि की माटी में मिला दिया जाता था।
ढूँढती हूं उन श्रेष्ठ प्रतिमानों में
इस झूठ की सत्ता परस्ती में में
अपने प्यारे भारत वर्ष को
जो सुशासन, सुव्यवस्था , सुसंस्कार में,
विश्व पटल पर गुरु बनकर
इतिहास के आईनों में
सूर्य की भांति दैदिप्तमान रहता था।
स्मिता जैन