रदीफ़ – पर्दा
काफ़िया- अर
1212 1122 1212 22
पड़ा हुआ था ये कबसे सनम इधर पर्दा
उड़ा गयी है हवा आज ये किधर पर्दा।
तेरा मयार नमूदार हो न जाये कहीं
बना ले अपनी हया के लिये नज़र पर्दा।
है इब्तिदा ये मुहब्बत की फूल की तरहा
छिपा-छिपा सा ही रहता है अब इधर पर्दा
क़रार आता कहाँ है बिना उन्हें देखे
शरीफ इतना हूँ लगता है मोतबर पर्दा।
उतार कर जरा अपना नकाब वो रख दें
इधर-उधर भी उड़े जाए फिर ठहर पर्दा
निभा रहा था अभी साथ कल तलक वो भी
हवा चली तो हुआ है किधर – किधर पर्दा
निग़ाह हमनें जहां से छुपा के रक्खी है
चुरा-चुरा के नज़र देखा मगर पर्दा
छुपी हुई है किसी दर्दमंद की गैरत
है क़ीमती सा लगे हमको माल ज़र पर्दा।
ग़ुनाह कोई कहे हम सबाब कहते हैं
नज़र से चूमते आक़िब हज़ार ग़र पर्दा
आकिब जावेद
बाँदा(उत्तर प्रदेश)