हमारे मानस – मंदिर में घण्टों से राम मंदिर और रामराज को समर्पित घण्टियां गूंज रही थीं – “अब हम सब सिर्फ प्रभु श्रीराम को पूजेंगे ही नहीं, राममय जिंदगी भी जिएंगे। राममय दृष्टि, राममय सृष्टि। जितना आसान है कहना, उतना ही आसान है जीना । पुरुषोत्तम भगवान राम ने माता शबरी के जूठे बेरों को जिस श्रद्धा भाव से खाए थे उसी श्रद्धा भाव से हम भी अपने दलित एवं आदिवासी भाइयों – बहनों को अपनाएंगे, गले लगाएंगे और उन्हें भी आगे बढ़ाएंगे। कितना आसान काम है। हम सब करके दिखाएंगे। यही तो असली पूजा है। हमें पता है सिर्फ जय सिया राम कहने से प्रभु प्रसन्न नहीं होंगे। उनके पदचिन्हों पर चलना भी होगा। अपने मनोभावों को बदलना भी होगा। राम मंदिर का शिलान्यास सिर्फ साकेत (अयोध्या) में ही नहीं अपने पावन – मन में भी करना पड़ेगा। भगवान भाव के भूखे होते हैं। उन्हें भक्तों से सिर्फ भाव चाहिए – प्रेम भाव, श्रद्धा भाव, सेवा भाव और समर्पण भाव।
राजगद्दी न भाई भरत को चाहिए थी और न ही भैया राम को । वाह ! कितना बड़ा त्याग है। जहां त्याग है वहीं रामानुराग है।
सच्चा सन्त – महात्मा वह होता है जिसको कण-कण में अपने इष्ट के दर्शन होते हैं। वह मंदिर – मस्जिद , धेनु – वाराह इत्यादि के प्रति समत्व का भाव रखता है।
मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर और चर्च की बातें तो सब करते हैं लेकिन अपने – अपने इष्ट देव के सिद्धांतों को भला कौन समझने की कोशिश करता है ? उनके पदचिन्हों पर कौन चलता है ? नाव के सहारे सागर पर तैरने से क्या फायदा ? गोताखोर बनकर सागर की गहराई में तो उतरो – रत्नामृत पाओगे, जीवन का सार समझ जाओगे।”
अर्धरात्रि में मेरे मानस- मंदिर में घण्टों से भगवान श्रीराम को समर्पित घण्टियां गूंजती रहीं कि उनकी कृपा से आंखें लग गयीं और सपना देखा-
“राम मंदिर के साथ-साथ रामराज्य की भी स्थापना हो चुकी है–
रामराज बैठे त्रैलोका। हरसित भए गए सब सोका।।
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विसमता खोई।।
दैहिक, दैविक, भौतिक तापा। रामराज नहिं काहुहि व्यापा।।
सब सुगन्य, पण्डित , सब ग्यानी।सब कृतग्य नहिं कपट सयानी।। -( गोस्वामी तुलसीदास)
प्रकृति प्रसन्न – पुरुष प्रसन्न। जन-जन हर्षित , कण-कण हर्षित । अमीरों की अमीरी गरीबों को समर्पित । सब एक दूजे को ऊंचा और श्रेष्ठ साबित करने की चाह में मगन। वसुधा आनंदित और प्रफुल्लित गगन । स्वच्छ सलिल संग सुरभित पवन। लोक से शोक समाप्त । सर्वत्र आलोक ही व्याप्त। राजा और प्रजा का प्रत्यक्ष संबंध। महसूस करें एक दूजे की सुगंध । कर सुखद, सेवा सुखद-
बरसत, हरसत सब लखैं, करसत लखै न कोय।
‘तुलसी’ प्रजा सुभाग से, भूप भानु सो होय।।
सहयोग, सद्भाव, सदाचार, सेवा और संस्कार से सुसज्जित रामराज में चराचर में उल्लास । सबका साथ, सबका विकास। भयमुक्त वातावरण । न बिल्ली को कुत्तों से भय, न जानवरों को मनुष्य से।
चिड़ियों के चहचहाने की आवाज कानों में गूंज उठी। आंखें खुलीं तो देखा- मुस्कुराते हुए सुरुज देव उग रहे थे और दिशाएं राम सिया राम गुनगुना रही थीं । अम्बर तले जाते ही मंदिर , मस्जिद, गिरजाघर और गुरुद्वारे पर बैठे कबूतर मेरे ऊपर आकर बैठ गए और झूमते हुए " रघुपति राघव राजा राम..." गुनगुनाने लगे। साथ में एक वफादार कुत्ता भी था जिसमें मानवता मुस्कुरा रही थी। कबूतरों के मन में न तो कुत्ता से भय था न मनुष्य से। सर्वत्र प्रेम ही प्रेम। शायद वह भी रामराज का एक अद्भुत दृश्य था।
सुनील चौरसिया ‘सावन’
कुशीनगर(उत्तर प्रदेश)