कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव की जरूरत महसूस करते थे। उनके मन में एक ऐसे संस्थान की परिकल्पना थी जहां शिक्षा का मतलब केवल किताबों में सिमटना न हो। वे चाहते थे बच्चे बंद कमरों से बाहर निकलकर प्रकृति के साथ जुड़ना सीखें।
कहीं उन्होंने लिखा भी है…’वास्तव में पुस्तकों द्वारा ज्ञान प्राप्त करना हमारे मन का प्राकृतिक धर्म नहीं है…वस्तु को सामने देख सुनकर उसे हिला घुमाकर अपनी आंखों से देखभाल तथा जांच करके ही आविष्कृत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।’
शांतिनिकेतन की स्थापना के साथ उन्हें इस परिकल्पना को साकार रूप देने का अवसर मिला। उन्होंने शांतिनिकेतन के अंदर ऐसे वातावरण का सृजन किया जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी के बीच कोई दूरी न हो। सब एक साथ मिलकर काम कर सकें।
1901 में उन्होंने शांतिनिकेतन में एक छोटे से विद्यालय की स्थापना की। 1919 में उन्होंने विशेष रूप से कला के एक विद्यालय ‘कला भवन’ की नींव रखी जो आगे 1921 में स्थापित विश्वभारती विश्वविद्यालय का हिस्सा बना। इस ‘कला भवन’ में कला प्रशिक्षण की एक अलग पद्धति अपनायी गई। यह पद्धति दरअसल कला को प्रकृति के साथ जोड़ने का एक अनुपम प्रयोग है। बंद कमरे या स्टूडियो में बैठ कर चित्रकारी करने के बजाय यहां शिक्षार्थी हरे भरे पेड़ों के नीचे पंछियों के गान के साथ प्रकृति का अवलोकन करते हुए चित्र उकेरते हैं।
शिक्षा के साथ व्यक्तित्व निर्माण के लिए विश्वभारती में
‘कला भवन’ के साथ ‘संगीत भवन’, ‘शिक्षा भवन’ (कॉलेज) एवं ‘विद्या भवन’ (रिसर्च विभाग) भी बने। आगे चलकर हिंदी के उच्चतर अध्ययन एवं शोध के लिए ‘हिंदी भवन’ भी विश्वभारती का हिस्सा बना। चीनी भाषा के अध्ययन के लिए ‘चीना भवन’ एवं देश विदेश के धार्मिक विचारों के अध्ययन के लिए ‘दीनबंधु भवन’ का भी निर्माण हुआ…
क्रमशः
#डा. स्वयंभू शलभ