दशकों से हिन्दी भाषा के स्वाभिमान, स्थायित्व और जनभाषा के तौर पर स्वीकार्यता का संघर्ष जारी है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में भावनात्मक क्रांति का शंखनाद हो चुका था। उस समय भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो चुकी थी। देश में होने वाले आन्दोलनों से जन-जीवन प्रभावित हो रहा था।
इसी बीच भारत की राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय आन्दोलनों के लिए एक भाषा की आवश्यकता सामने आई और उसी दौरान हिन्दी को बतौर जनभाषा स्वीकार्यता भी प्राप्त हुई। इस आवश्यकता के संदर्भ में डॉ. अम्बा शंकर नागर का कहना था कि- “सन् 1857 का आन्दोलन दासता के विरूद्ध स्वतंत्रता का पहला आन्दोलन था। यह आन्दोलन यद्यपि संगठन और एकता के अभाव के कारण असफल रहा, पर इसने भारतवासियों के हृदय में स्वतंत्रता की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न कर दी। आगे चलकर जब भारत के विभिन्न प्रांतों में स्वतंत्रता के लिए संगठित प्रयत्न आरंभ हुए तो यह स्पष्ट हो गया कि बिना एक जनभाषा के देश में संगठित होना असंभव है।”
और जनभाषा के लिए जिस भाषा का चयन किया वो हिन्दी रही क्योंकि तब भी हिन्दी के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा ऐसी नहीं थी जो भारत के अधिकांश भूभाग पर बोली जाती हो या अधिकांश जनता की जानकारी व प्रयोग की भाषा हो।
उस क्रांति के बाद हिन्दी का महत्व बढ़ा। लाला लाजपतराय, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, पण्डित मदनमोहन मालवीय, महात्मा गाँधी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, काका कालेलकर, सेठ गोविन्ददास, स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, विनोबा भावे आदि तमाम सभी हिन्दी के समर्थकों द्वारा हिन्दी हितार्थ कई आंदोलन किए, सहभागिता की। आज़ादी के तराने गाने में हिन्दी का अद्भुत योगदान रहा। किन्तु आज़ादी के बाद भारत में ही हिन्दी की अवहेलना में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गई।
तथाकथित राजनैतिक कारणों का हवाला देकर दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा का विरोध आरम्भ हुआ, जबकि वे बखूबी जानते थे कि उनकी कुल आबादी भी हिन्दी के समर्थकों और जानने-बोलने वालों का एक तिहाई हिस्सा भी पूरा नहीं कर पाएंगे। उसके बावजूद भी हिन्दी को अन्तोगत्वा राष्ट्रभाषा का शिखर कलश नहीं बनाया, न ही भारत में इस भाषा के स्वाभिमान की रक्षा भी नहीं की गई। न ही हिन्दी को रोजगारोन्मुखी भाषा के तौर पर विकसित करने की दिशा में सरकारों द्वारा कोई प्रयास किए गए। अकादमियों, संस्थानों, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय आदि द्वारा प्राप्त बजट को महज पुस्तक प्रकाशन हेतु सहायता, आयोजन, पुरस्कार वितरण , सम्मान आदि में ख़र्च किया गया, किन्तु धरातलीय स्तर पर हिन्दी कमतर ही बनी रही।
इसी नैराश्य भँवर में हिन्दी के लिए आशा की नव किरण का संचार किया मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम ने।
वर्ष 2016 में महज एक वेबसाइट मातृभाषा.कॉम से शुरू होने वाली यात्रा जिसका तब केवल एक उद्देश्य था कि हिन्दी के नवोदित व स्थापित रचनाकारों को मंच उपलब्ध करवाना जहाँ उनका लेखन निशुल्क प्रकाशित हो और पाठकों की पहुँच में आए, आज हिन्दी आंदोलन का अग्रणी नाम बन चुका है।
माँ अहिल्या की नगरी इंदौर जहाँ 28 मार्च 1918 को मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति के भवन की नींव रखते हुए महात्मा गाँधी जी ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न देखा, बीजारोपण किया, उसी के ठीक सौ वर्ष बाद उसी नगरी से डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’ के नेतृत्व में मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का दृढ़ संकल्प लेकर आंदोलन का आरंभ किया।
एक अन्तरताने से शुरू हुई यात्रा ने लोगों को अपनी भाषा, अपनी हिंदी में हस्ताक्षर करने का संकल्प दिलवाना आरम्भ किया। इस आंदोलन के संरक्षक डॉ वेदप्रताप वैदिक जी, चौथा सप्तक में शामिल कवि राजकुमार कुंभज जी व अहद प्रकाश जी है।
इन संस्थानों का प्रथम उद्देश्य हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाना है। साथ ही हिन्दी को रोजगारमूलक भाषा बनाना है, हिंदी में रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाना, भारतीय भाषाओं के सम्मान को अक्षुण्ण बनाए रखना, जनता को जनता की भाषा में न्याय मिले, साहित्य शुचिता का निर्वहन सम्मिलित है।
स्पष्ट लक्ष्य और सुनियोजित कार्यशैली के चलते महज ढाई वर्षों में ही संस्थान देश के लगभग 22 राज्यों में अपनी इकाई बना चुकी है, और जिससे अब तक लगभग 10 लाख से अधिक लोग जुड़ गए है जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु समर्थन दिया व अपने हस्ताक्षर हिंदी में करना आरंभ कर दिए है।
आज मातृभाषा उन्नयन संस्थान का अपना पुस्तक प्रकाशन प्रकल्प संस्मय प्रकाशन है, समाचारों के लिए खबर हलचल न्यूज, मासिक संस्मय पत्रिका, मासिक अक्षत धारा पत्र, साहित्यकार कोश है। साहित्यकार कोश में भी देश के विभिन्न प्रान्तों के लगभग 10000 साहित्यकारों की जानकारी सम्मिलित की जा चुकी है ।
मातृभाषा.कॉम पर लिखने वालों की संख्या 2000 से अधिक व 9 लाख पाठकों का वृहद परिवार है।
संस्थान द्वारा ‘हर मंदिर बनें ज्ञानमन्दिर’, ‘हर ग्राम-हिन्दीग्राम’, ‘आदर्श हिन्दीग्राम’, ‘पुस्तकालय अभियान’, ‘समिधा (विशुध्द काव्यांजलि)’, आदि कई अभियान संचालित किए जा रहे है जिसके माध्यम से सतत हिन्दी सेवा का अभिनव कार्य जारी है।
वैसे तो देश में कई संस्थाएँ सक्रियता से हिन्दी सेवा में जुटी है, किन्तु उन सभी संस्थाओं के गुलदस्ते में मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम की विशिष्ट पहचान बनती जा रही है। हिंदी का स्वाभिमान स्थापित करने के लिए संस्थान द्वारा कर्मठ हिंदीयोद्धाओं को तैयार किया जा रहा है जो विभिन्न भूभाग पर हिंदी प्रचार का कार्य कर रहे है व हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु समर्थन प्राप्त कर रहे है। आज हिन्दी को जनभाषा या राष्ट्रभाषा बनाने क्व लिए सम्पूर्ण देश का साथ आना आवश्यक है, इसलिए संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ अर्पण जैन ‘अविचल’ द्वारा जनसमर्थन अभियान भी संचालित किया जा रहा है जिसके अंतर्गत वे साहित्यिक, राजनैतिक, सामाजिक हस्तियों, सांसद, विधायकों आदि से भेंट कर उनके माध्यम से जनजागृति व हिन्दी समर्थन के स्वर मुखर कर रहें है।
आज ऐसी संस्थाओं के माध्यम से ही हिन्दी भाषा को अपना गौरव पुनः प्राप्त हो सकेगा।
क्योंकि आज़ादी के बाद जब राजभाषा अधिनियम के आलोक में हिंदी और अंग्रेजी भाषा को एक तुला से सामान तोला गया तब हिंदी के साथ हुए अन्याय का कोफ़्त नज़र आने लगा।
आज देश को दौलतसिंह कोठारी आयोग द्वारा निर्मित शिक्षा नीति के अंतर्गत त्रिभाषा फार्मूला भी अपनाने की आवश्यकता है। तभी मातृभाषा, हिन्दी व एक विदेशी भाषा या अंग्रेजी की दक्षता हासिल होगी। हिंदी के सम्मान के लिए कार्यरत मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम जैसी संस्थाओं की परम आवश्यकता भी है जो हिंदी के वैभव में अभिवृद्धि भी करें व उसे उसका सम्मान दिलवाएं।
#शिखा जैन
राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य- मातृभाषा उन्नयन संस्थान
,इंदौर (मध्यप्रदेश)