स्त्री पुरुष-एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी या पूरक यह विषय आज भी बहुत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है। इस पर मेरे विचार स्त्री होते हुए भी थोड़े अलग हैं। मैं मानती हूं और चाहती भी हूं कि स्त्री, पुरुष यदि पति-पत्नी हैं तो पूरक ही हैं, बशर्ते कि दोनों एक-दूसरे के लिए समर्पित हैं। इस रिश्ते में विश्वास सबसे महत्वपूर्ण है। प्रतिद्वंद्वी तो व्यवसाय, परीक्षा, प्रतियोगिता में होते हैं फिर चाहे वो प्रतियोगिता स्त्री-पुरुष के बीच हो,स्त्री-स्त्री के बीच हो या फिर पुरुष- पुरुष के बीच हो। बचपन से ही बच्चियों में कूट-कूटकर यह भाव भर दिया गया है कि वे पुरुष के बराबर हैं,बल्कि आगे हैं, वे चाहे जो काम कर सकती हैं। कहीं पीछे रहने की जरूरत नहीं है,और आज हालत यह है कि वे घरेलू जिम्मेदारियों को बिल्कुल भी नहीं समझतीं और समझना ही नहीं चाहती। हर चीज़ में बराबरी,हठ,ज़िद,प्रतिद्वंद्विता..ये सामाजिक रूप से अच्छा नहीं है। बच्चियों को पढ़ाने-लिखाने का यह मतलब नहीं है कि,उन्हें नैतिकता न सिखाई जाए। पूछो किसी लड़की से कि यदि दोनों पति-पत्नी काम करने जाते हैं और यदि पत्नी ने घर आकर चाय बनाकर पिला दी तो क्या अनर्थ हो गया। अरे यदि वो रसोई संभालती है तो,पति भी घंटों बाजार कतार में खड़े होकर बाहर के कई काम निपटाता है। यह मात्र एक उदाहरण है,पर ऐसी तमाम बातें कोई समझना नहीं चाहता। आज नैतिक मूल्यों के पतन के कारण सामाजिक ढांचा चरमरा रहा है। सिर्फ और सिर्फ पैसा ही प्राथमिकता है। घर की सुख-शांति,बच्चों की परवरिश और स्वास्थ्य सब पीछे छूट गया है।
मेरा मानना है कि,भले ही स्त्री-पुरुष अलग ईकाई हैं,पर वैवाहिक बंधन में पूरक ही हैं,और यह बात अचानक ही बड़े होने पर नहीं सिखाई जा सकती, बल्कि माता पिता को बचपन से ही लड़कों से बाहर के काम और लड़कियों को घर के काम सिखाना चाहिए। अब इसमें भी कोई कहे कि भई,ऐसा क्यों ?हम तो लड़की से भी बाहर के काम और लड़के से घर के काम कराएंगे तो जरूर कराइए,इसमें कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि दुर्घटना और आपातकाल में यह जरूरी भी है। कहने का मतलब है कि, घर के बाहर वाली प्रतिद्वंद्विता घर में आ गई तो निश्चित ही दुष्परिणाम होंगे।दरअसल,आज़ाद ख्यालों की वजह से लड़कियां पथ भ्रष्ट हो रही हैं। घर नहीं बचा पा रही हैं।
यदि बाहर निकलकर काम करने का फैसला किया है,तो स्वयं को दया और सहानुभूति का पात्र कभी न बनाएं, जिसका दूसरे ग़लत इस्तेमाल कर लेते हैं, फायदा उठाते हैं और आप शोषित होती हैं और जान भी नहीं पातीं कि आपका शोषण हो रहा है।
जिंदगी को प्रेम से बिताना चाहते हैं तो कुछ जगह पर झुककर काम चलाया जाए तो कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। हाँ,जहाँ आत्मसम्मान को ठेस पहुंचे तो प्रतिरोध आवश्यक है। सम्मान इसी में है कि,स्त्री-पुरुष पूरक बनकर रहें।
परिचय: पिंकी परुथी ‘अनामिका’ राजस्थान राज्य के शहर बारां में रहती हैं। आपने उज्जैन से इलेक्ट्रिकल में बी.ई.की शिक्षा ली है। ४७ वर्षीय श्रीमति परुथी का जन्म स्थान उज्जैन ही है। गृहिणी हैं और गीत,गज़ल,भक्ति गीत सहित कविता,छंद,बाल कविता आदि लिखती हैं। आपकी रचनाएँ बारां और भोपाल में अक्सर प्रकाशित होती रहती हैं। पिंकी परुथी ने १९९२ में विवाह के बाद दिल्ली में कुछ समय व्याख्याता के रुप में नौकरी भी की है। बचपन से ही कलात्मक रुचियां होने से कला,संगीत, नृत्य,नाटक तथा निबंध लेखन आदि स्पर्धाओं में भाग लेकर पुरस्कृत होती रही हैं। दोनों बच्चों के पढ़ाई के लिए बाहर जाने के बाद सालभर पहले एक मित्र के कहने पर लिखना शुरु किया था,जो जारी है। लगभग 100 से ज्यादा कविताएं लिखी हैं। आपकी रचनाओं में आध्यात्म,ईश्वर भक्ति,नारी शक्ति साहस,धनात्मक-दृष्टिकोण शामिल हैं। कभी-कभी आसपास के वातावरण, किसी की परेशानी,प्रकृति और त्योहारों को भी लेखनी से छूती हैं।