चींटी एक चढ़ी पर्वत पे,
गुस्से से होकर के लाल।
हाथी आज नहीं बच पाए,
बनके आई मानो काल।।
कुल मेटू तेरे मैं सारो,
कोऊ आज नहीं बच पाय।
बहुत सितम झेले हैं अब तक,
आज सभी लूंगी भरपाय।।
कुल का नाश किया मेरे का,
रौंद पैर के नीचे हाय।
सुन निर्मम हत्यारे द्रोही,
कोई आज बचा नहीं पाय।।
भर हुँकार गरज रही चींटी,
सुन लो श्रोता ध्यान लगाय।
हाथी खड़ा पेड़ के नीचे,
यह सुनकर धीमे मुस्काय।।
हाथी की मुस्कान देख के,
चींटी को आया बहु क्रोध।
चींटी बोली सुन अज्ञानी,
मेरी ताकत का नहीं बोध।।।
देख अकेली तुझको मारुं,
बिना खड़ग बिन कोऊ ढाल।
तड़प-तड़प के प्रानन त्यागे,
ऐसा कर दूं तेरा हाल।।
इतना कहकर चींटी लपकी,
हाथी ने लटकाई सूँड।
चींटी बन गई आज दामिनी,
हाथी का भन्नाया मूँड।।
धीरे-धीरे बढ़ी मारने,
हाथी मारे फिर चिंघाड़।
थर-थर कांपे वह बलशाली,
लेने लगा प्रभो की आड़।।
मोय बचाओ गिरधर नागर,
दीनबन्धु करुणा अवतार।
आज उबारो संकट भारी,
तुम्हें दीन यह रहा पुकार।।
चींटी बोली सुन हत्यारे,
कोउ पाप संगाती नाय।
कर्म करे जैसे धरती पे,
वैसा ही फल लेगा पाय।।
दुश्मन को छोटा मत आंको,
दुश्मन भारी नाहक जान।
आज इसी गलती के कारण,
त्यागेगा तू अपने प्राण।।
क्रोध कुपित चींटी भी भारी,
कहता यह सारा संसार।
तनिक छुआ नहीं उसने हाथी,
लेकिन फिर भी डाला मार।।
#नवीन श्रोत्रिय ‘उत्कर्ष’