मुझे हिन्दू बताती है, तुम्हें मुस्लिम बताती है,
सियासत क्यों हमारे बीच दीवारें उठाती है।
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हमारी बस्तियों से गुम हुए हैं चाँद तारे सब,
किसी से रोशनी क्या दुश्मनी ऐसे निभाती है।
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जिधर देखो हवा की साजिशों ने घर जलाए हैं,
मगर इल्ज़ाम ये दुनिया चराग़ों पर लगाती है।
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निवाले छीन लेती है सदा मुफ़लिस के मुँह से ये,
रहम क़िस्मत गरीबों पर न खाती थी, न खाती है।
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बराबर का नहीं देती है क्यों औरत को हक़ दुनिया,
समझ में आज भी अपनी,नहीं ये बात आती है।
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तुम्हारी बज़्म में आकर बहुत रुसवा हुए ‘गुलशन’,
हमें शामो-सहर ये बात रह-रहकर सताती है।
#राकेश दुबे ‘गुलशन’
क्या बात है इस कविता में,,
ये तो सच्चाइयो से अवगत करती है,
कुछ ना कहें हम तो,
फिर भी बहुत कुछ ही कह जाती है,