फूंऊं.ऽ… ऽ… ऽ… ऽ… ऽ… ऽ… ऽ…यह शंख की आवाज़ थी-न सिर्फ मंदिर से डूंगा के कान तक,बल्कि गांव के कोने-कुचाले तक पसरी और लंबी। गंधहीन और अदृश्य। ध्वनि भी क्या! बस,शंख के पिछवाडे़ में फूंकी एक लंबी फूंक,जो शंख के मुंह से ऊंचा स्वर लिए,तेजी से बाहर निकली थी, और डूंगा के कान तक आते-आते; हवा में घुली धीमी और महीन ध्वनि में बदल गई थी। थी हवा से भी हल्की,पर जब कान से मगज तक में पसरी और फिर खून में घुल गई,तो डूंगा उठकर खड़ा हो गया। असल में वह डूंगा और उसके सरीखे उन सबके लिए एक हांक,एक बुलावा और एक संकेत था,या हवा का ऐसा हाथ,जो दिखता नहीं,बस,हर रात आठ बजे के दरमियान कान पकड़कर मंदिर में होने वाली आरती में खींच ले जाता।
डूंगा मंदिर में होने वाली आरती में जाता तो था,पर उसे न भगवान पर कोई भरोसा था, न आरती गाने का शौक। फिर भी वह आरती में जाता क्योंकि,वहां ढपली, करताल,खंजड़ी और झांझ होती,और डूंगा झांझ,करताल,ढपली और खंजड़ी बजाने का शौकीन थाl इनमें से जो भी हाथ लग जाता,उसे इतनी तन्मयता से बजाता कि आरती में आए लोग देखते ही रह जाते। सोचते,डूंगा आरती में भक्ति में लीन हो जाता है,पर वह लीन किसमें होता,अपनी पसंद का वाद्य बजाने में या पसंद का वाद्य बजा-बजाकर अपनी खुशी जाहिर करने में,या फिर तनाव को दूर करने में,यह वही जानता था।
जब उस रात शंख की ध्वनि डूंगा को ढूंढती हुई आई थी। वह क्षण भर को डूंगा के घर के दरवाजे की बारसख के पास ठिठकी थी। वहां ऊपर ओसारी की छत पर रखी पतरे की चद्दर से नीचे एक चालीस वॉट का गुलुप जल रहा था। गुलुप,एक बत्ती कनेक्शन वाली स्कीम के तहत लगा था,जिसका मरियल उजास अंधेरे के आगे सेरी की धूल में गिंडोले की तरह रेंग रहा था। जैसे किसी ने इंजेक्शन से उसके भीतर का करंट खींच लिया था; और केवल इतना करंट था कि एकदम बुझा हुआ न लग रहा था। जहां से उजास आगे नहीं बढ़ पा रहा था,वहां से कुछ कदम आगे एक खाट डली थी,जिस पर टिमटिमाते तारों की महीन रोशनी के हल्के फुस और भूरे-भुरभुरे ही आसमान की दया पर बरस रहे थे।
उस रोशनी के हल्केफुस और भूरे-भुरभुरे के उजास में खाट पर एक डूंड लेटा नजर आ रहा था। डूंड-बरसात में भीगा,श्याले (सर्दी) में सिकुड़ा और उनाले (गर्मी) में तपा गेरुआ झेल चुके गेहूं के रंग का डूंड। जब शंख की ध्वनि ने कुछ कदम खाट की जानिब बढ़ाए,तो उसे डूंड की एक शक्ल भी नजर आने लगी। चार कदम और बढ़ाने पर किसी कपड़े की तरह बहुत ही धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हिलता डूंड का पेट दिखने लगा। थोड़ा और आगे बढ़ने पर तो पोल ही खुल गई,वह डूंड नहीं डूंगा था। डूंगा और बारसख के ऊपर जलते गुलुप में सगे भाइयों सरीखी एक समानता थी-गुलुप बुझा नहीं,जल रहा था। डूंगा मरा नहीं,हिल रहा था। डूंगा को खोज लेने पर शंख की ध्वनि खुशी से पोमा उठी। उसका अट्टहास अंधेरे के कंबल को चीरता तारों तक जा पहुंचा। फिर जैसे डूंगा का कान मरोड़ती बोली-चल,आरती का टैम हो गया।
जब डूंगा मंदिर में पहुंचा तो देखा-आरती में टुल्लर के छोरे पहले से मौजूद थे। कोई शंख बजा रहा था। कोई घंटी,झालर और झांझ बजा रहा था। डूंगा के हाथ खंजड़ी लगी, तो वह खंजड़ी बजाने लगा था। खंजड़ी बजाने में डूंगा ऐसा डूबा कि, सुध-बुध भूल गया था। आरती खत्म हो गई। सभी ने अपने-अपने वाद्य पंडित के पास जमा कर दिए,लेकिन डूंगा ने खंजड़ी को जमा की,न बजाना बंद की।
आरती में आए छोटे छोरे उसकी बेख्याली पर कौतुहल के साथ हंस रहे थे। श्याने छोरे कभी उसे और कभी टुल्लर के छोरों को आश्चर्य से देखते खड़े थे। टुल्लर के छोरे को डूंगा देख हो-हो कर हंस रहे थे।
डूंगा उनकी हो-हो के जवाब में खंजड़ी बजा रहा था। बजाते-बजाते हथेलियां छिल गई। खून रिसने लगा,पर डूंगा का खंजड़ी बजाना जारी रहा। उस रात ठंड ज्वार की बुरी तरह काट रही थी,पर डूंगा के कपाल,घोग से पसीने की तिरपने रिस रही थी। अगर कोई सजगमना तेजी से बहती तिरपनों को एक पाट में बहा देता,तो रातभर में एक बीघा खेत रेलवा जाता,लेकिन तिरपने अपनी ही हिकमत अमली से बह रही थीं। पीछे यानी सिर,कंधे,गरदन के पसीने की तिरपन पीठ के पाट में बहती। कमर पर उचकी हड्डियों के बीच से धोती में उतरती। आगे यानी भाल,नाक और ठोडी के नीचे से रिसते पसीने की तिरपन,कंठ के नीचे ढुलकती। सीने की उभरी दो पसलियों के रेगांले से गुजरती। पिचके पेट का डोबना भरती। धोती में उतरती। ऐसे ही दोनों बगल की कांख का पसीना और अनेक तिरपनों का पसीना लट्ठे की फतवी को तरबतर करता। जब फतवी का रेशा-रेशा पसीने से तर हो जाता,उसमें और पसीना सोखने की कुबत न रह जाती और पसीने का आना जारी रहता,तब फतवी से रिसता पसीना भी धोती में ही समाता। असल बात यह कि,डूंगा की धोती बड़ी कलेजेदार थी। वह अपने भीतर पसीने की कितनी ही धाराओं को समा लेती और पूर नहीं आती। डूंगा की धोती,मानो धोती नहीं थी, उसकी कमर के आसपास लिपटा पूरा समुद्र थी।
पंडित हाथ में आरती की थाली लिए था। थाली में जलते दीप की सेंक को वह बारी-बारी से सभी की ओर धकियाता। कोई थाली में दो का सिक्का डालता,कोई पांच का। जलते दीप की लौ से लोग अपने हाथों को गरमाते। फिर उस गरमाहट को अपनी आंखों,गालों और बालों पर हाथ फिरा कर महसूस करते। बीच-बीच में पंडित डूंगा की ओर देखता और बोलता-कंई खंजड़ी तोड़ी के दम लेगो।
टुल्लर हो-हो कर हंसता। डूंगा टुल्लर की हंसी को खंजड़ी की आवाज से दबाने की कोशिश में और जोर से बजाता। पंडित ने आरती की थाली मूर्ति के चरणों में धर दी। पंचामृत की गवड़ी उठाई। प्रसाद का धामा उठाया। उन्हें सिंहासन के चैनल गेट के पास नीचे धरा। फिर धीरे से एक छोटे से आसन पर खुद बैठा,तो तोंद नीचे फर्श पर टिक गई। फिर बारी-बारी से दो चम्मच पंचामृत देता। लेने वाला जब पंचामृत पी लेता,और हाथों को बालों या कूल्हों से पोंछ लेता,तब वह प्रसाद देता। यह सब शुरू होने तक भी जब डूंगा का खंजड़ी बजाना नहीं थमा,हथेलियों से रिसता खून पसीने के साथ कोहनी के रास्ते से मंदिर के आंगन में टपकने लगा,तब रामा बा का धैर्य भी चुक गया। उन्होंने डूंगा को झिंझोड़ा-अरे कंई दम उखड़ने तक बजावेगो,धर अब।
टुल्लर फिर हो-हो कर हंसा। डूंगा ने और जोर से खंजड़ी बजाई। जब उसने रामा बा की बात भी न सुनी,तो रामा बा ने उसके हाथ से खंजड़ी जोर से खींच कर छुड़ा ली। तब उसकी तंद्रा टूटी। उसे लगा-जैसे गांव के सभी टुल्लर के छोरे मिलकर उसके हाथों से खेत छुड़ा रहे हैं। उसने घबराकर खंजड़ी को और ज्यादा मजबूती से पकड़ा और जोर से चीखा-म्हारे नी बेचनो है म्हारो खेत।
यह सुन रामा बा के हाथ-पांव ढीले पड़ गए। वह समझ गए,डूंगा का इस कदर खंजड़ी बजाने का कारण। उनके मन में घृणा का समुद्र हिलोरने लगा। फिर उसी भाव से टुल्लर की तरफ देखा और मुंह फेर कर जोर से थूका। रामा बा की घृणा और उस ढंग से थूकने को देख,अगर कोई जरा भी लाज-शरम वाला होता,वहीं गढ़ जाता,लोकिन वह टुल्लर फिर हो-हो कर हंसा।
उस रात चुपचाप डूंगा चला आया था। उसके मगज में हो-हो गूंज रही थी। वह आकर सेरी में डली अपनी खाट पर लेट गया था। खाट उनाले भर सेरी में ही डलती थी। आम की लकड़ी की ईंस पर नरेटी यानी ‘नारियल के रेशों से बनी रस्सी’ से बुनी खाट। सांझ को खाट पर कोई गुदड़ी या पल्ली नहीं बिछी होती। वह तो जब आरती से लौट आता, तब बिछाई जाती। उनाले की सांझ होती,तो आरती में जाने से पहले डूंगा उमस के कारण फतवी को उतार देता। उघड़े बदन नरेटी पर लेट जाता। थके शरीर में नरेटी एक्यूपंचर का काम करती। जब शंख की ध्वनि आरती में बुलाने के लिए हांक लगाती,डूंगा उठकर बैठता और खाट के पाए के माथे पर टंगी फतवी को उठाता, झटकारता,पहनता। इस बीच उसकी पीठ पर अबूझ नक्शा देखा जा सकता,जो नरेटी बनाती थी। नक्शा सांझ को ही बनता पीठ पर,ऐसा जरूरी नहीं था। वह तो खाट पर उघड़े बदन लेटने से बनता था। जब उनाले के दिनों में खेत पर कम जाना होता, डूंगा दोपहर में घर के सामने की इमली की छांव में दोपहरी गालने खाट पर लेट जाता। उठता तो पीठ ही नहीं,दायीं-बायीं पांसुओं पर भी अबूझ नक्शे बने होते। जब नक्शों पर डूंगा की छोरी पवित्रा का पहली बार ध्यान गया था,तो पवित्रा ने जिज्ञासावश डूंगा से नक्शों के बारे में पूछ लिया था। तब डूंगा अपने मन में खाद-बीज से जुड़ी सन के रेसों की उलझी गुत्थी को सुलझाने का सिरा खोज रहा था। उसी मूड में उसने कह दिया था-बेटी,इ तो म्हारी जिनगी का नक्शा है,न समझ आवेगा और न मिटेगा!
उन दिनों पवित्रा आठवीं-नौवीं कक्षा में थी। उसके शरीर में तेजी से तमाम बदलाव भी आना शुरू हुए थे। उस दोपहर डूंगा का जवाब सुन पवित्रा ने सोचा,वह कभी नरेटी बुनी खाट पर न बैठेगी,न सोएगी। अगर बैठी या सोयी,तो उसके शरीर पर भी ऐसे आड़े-तिरछे और उलझे नक्शे बन जाएंगे,जो कभी नहीं मिटेंगे।
डूंगा के घर में एक ही खाट थी,जिस पर पहले उसकी जी (मां) और दायजी (पिता) सोया करते थे। जब दायजी न रहे और डूंगा छोटा था,तो जी के साथ उसी खाट पर सोता था। बड़ा हुआ तो नीचे गुदड़ी बिछाकर सोया करता। जब जी न रही,कुछ दिन पारबती के साथ उसी खाट पर सोया। जब परिवार बढ़ गया,तब फिर अकेला उस खाट पर सोता था।
एक बार डूंगा के पास थोड़े पैसे आए,तो उसने सोचा,घरवाली पारबती और छोरी पवित्रा के लिए भी एक-एक खाट बनवा ली जाए। खाट की ईंस और पाए तो अपने खेत के एक पेड़ की कुछ डगालें कटवाकर गांव के सुतार बा से गढ़वा लिए थे। खाट बुनवाने को रस्सी लाना थी और नरेटी खरीदने जितने पैसों का बंदोबस्त था,सो खाट बनवाने के ख्याल में कोई खोट नहीं थी। जब पारबती की खाट बनकर तैयार हो गई और पवित्रा की खाट में रस्सी बुनवाने की बारी आई,तो पवित्रा ने अपनी खाट में सस्ती और चुभने वाली नरेटी न बुनवाने दी। उसके मन में यही था कि,नरेटी से बुनी खाट पर सोएगी, तो पूरे शरीर पर नक्शे ही नक्शे उभर आएंगे। उसने पड़ोसन संपत माय की खाट में बुनी सूती निवार देख रखी थी,वही बुनवाने की जिद की। डूंगा ने पवित्रा की जिद का मान रखा,नरेटी वापस कीl अपनी दो भैंसों का दूध जिस सेठ को बेचता था,उस सेठ से कुछ रुपए उधार लिए। सूती निवार लाया, पवित्रा की खाट पर बुनवाई। पवित्रा निवार की खाट पर भी दो गुदड़ी बिछाकर सोती। डूंगा और पारबती की इकलौती और लाड़ली जो थी।
उस रात जब शंख की ध्वनि डूंगा को बुलाने आई,तब अपनी खाट पर चित लेटे डूंगा का मुंह अधखुला और आंखें पूरी खुली थीं। पलकों के कोनो में लोणी (मक्खन) के रंग का कीचड़ जमा था। कोटरों में भरे पानी में पुतलियां तैर रही थीं। कोटरों के पानी और पुतलियों में बारसख के ऊपर टंगे गुलुप की मानिंद आसमान के तारे झिलमिला रहे थे। डूंगा की आंखों में झिलमिलाते तारे,केवल आसमान के तारे नहीं थे-एक सपना था। सपना भी क्या! एक लुगड़ी का सपना! छींटदार, सितारे टंकी लुगड़ी का सपना। यह एक ऐसा सपना था,जिसे देखने के लिए डूंगा को अर्धनिद्रा में जाने की जरूरत नहीं थी। यह तो कुछ ऐसा था कि,जब भी डूंगा खाट पर लेटता,सिर तकिए पर धरता, नजरें तारों को छूतीं और क्षणभर में ही आसमान छींटदार लुगड़ी में बदल जाता। उस लुगड़ी को देखते-देखते ही वह नींद में चला जाता। सुबह उठकर लुगड़ी को पाने के लिए दिनभर खेत में हाड़-तोड़ मेहनत करता।
डूंगा का कुछ चीजों से खास लगाव था। वे न हों तो डूंगा की नींद हराम हो जातीl मसलन कुआं हो,खेत हो,शरीर हो और मेहनत न हो। आसमान हो,तारे हो और तीन तारों की छड़ी न हो। आंखें हों,सपना हो,खाट हो और तकिया न हो। तकिया…याद आया, उसकी खाट पर एक तकिया हमेशा धरा रहता। तकिया भी क्या,बस समझो,फटे-चीथरों को खोल में भरकर बना माकणों (खटमलों) का घर। जब किसी भी घर में सफाई अभियान के दौरान माकणों पर घासलेट या फसलों पर छिड़कने वाली दवा से हमला किया जाता,तब माकणें गारे की भीतों की दरारों से,ईंस और पाए की दरारों से यानी जो जहां होता,वहां से जान हथेली पर लेकर भागता और डूंगा के तकिए में आकर राहत की सांस लेता। माकणों के लिए पूरे गांव में डूंगा के तकिए से ज्यादा महफूज कुछ नहीं था।
डूंगा का वह तकिया उसकी जी ने बनाया था-जिस पर पारबती ने पुराने लुगड़े की खोल चढ़ाई थी। तकिए को कभी डूंगा की खाट से अलग नहीं रखा जाता। डूंगा खेत पर जाता,डूंगा परगांव जाता और रात को लौटने वाला नहीं होता,तब भी तकिया खाट पर ही होता। पारबती इतना जरूर कर देती,खाट को ओसारी के आंगन में खड़ी कर देती और तकिया उसके पाए पर धर देती। यह ऐसा काम था जिसे टाला न जाता। अगर किसी व्यस्तता या मुसीबत की वजह से टल जाता,तो फिर खाट पर कबरे टेगडे का राज होता। टेगड़ा डूंगा की मौजूदगी में खाट के नीचे और गैर मौजूदगी में ऊपर सोता। जब ऊपर सोता और सू-सू की इच्छा होती,आलस्य के मारे नीचे न उतरता। खाट पर धरा तकिया उसे टीला नजर आता। वहीं टांग उठाता और उसी पर…वह तो एक रात पारबती ने देख लिया। तब से वह खाट को आंगन में खड़ी कर देती। न देखती,तो टेगड़े का खेल अभी जारी रहता,लेकिन वह कभी भी तकिए को घर में गुदड़मच्चा पर नहीं रखती। ऐसा भी कुछ नहीं था कि,उस तकिए को घर के और तकियों के साथ रखने की मनाही थी,लेकिन पारबती और पवित्रा की आदत में ही नहीं था कि उस तकिए को भीतर गुदड़मचा पर रखी गुदड़ी और तकियों के साथ रखती।
एक बार पवित्रा ने डूंगा का तकिया गलती से और घर के दूसरे तकियों के साथ रख दिया था। सांझ को जब डूंगा की खाट सेरी में डली,उस पर तकिया रखा,तो भूल से दूसरा तकिया रखा गया। तकिया क्या बदला,बदल गया सब कुछ-जैसे तकिए की गंध,उसकी नर्माहट,उसके माकणें और ऐसे ही तकियों के माकणों के लिए भी सब कुछ। उस रात डूंगा आरती से लौटा। खाना-वाना खा-पीकर। अपनी खाट पर लेटा,सिर तकिए पर धरा। आंखें खुली,नजरें तारों से मिली,तो डूंगा को भी सब कुछ अजीब-अजीब-सा,बदला-बदला-सा लगा। तकिया अटपटा लगा,आसमान ओगला लगा,तारे बेपहचाने लगे,सपने का सिलसिला भी बिखरा-बिखरा लगा। नींद आंखों के आसपास मंडराती महसूस तो होती,पर पलकों पर लुमट कर उन्हें बंद न कर पाती। डूंगा हैरान-परेशान,कुछ समझ में न आए। रात बीती जाए,लेकिन फिर देर रात में ही सही,पर वजह उसके हाथ लग ही गई। वहज वही थी कि,भूल से तकिया बदल गया।
डूंगा ने घर में सोई पारबती और पवित्रा को जगाने का सोचा और तकिया लेकर खाट पर उठ बैठा। आसमान में तीन तारों की छड़ी की ओर देखा,छड़ी,‘जिसे वह अपनी सपनों की लुगड़ी में सोने का तार समझता था,उसी से टैम का अंदाजा लगाया। करीब एक-सवा-एक बजना चाह रहा था। यह सोच वापस लेट गया-अब घरवाली और छोरी की नींद खराब न करूं,लेकिन रात के दो बजे तक सोने में असफल रहा। फिर से उठा और जाकर किवाड़ खटखटाया। पारबती जागी,किवाड़ खोला। नींद से पारबती की पलकें भारी थीं। डूंगा को अपनी नींद बिगड़ने की झुंझलाहट थी,लेकिन बची हुई दोनों ने न बिगाड़ने की सोची। पारबती मौन थी,पर उबासी बज रही थी। डूंगा की झुंझलाहट यथावत थी,पर संयम से बोला- म्हारो तक्यो दी दे। पारबती भीतर गई। धम्म… धम्म…पवित्रा के माथे के नीचे से तकिया खींचा। माथा नीचे गुदड़ी पर गिरा-भट्ट। पारबती वापस लौटी-धम्म…धम्म..डूंगा के हाथ में तकिया थमाया-थप्प। डूंगा होठ हिलाता,जैसे कोई शांति जाप करता खाट की ओर लौटा। पारबती ने किवाड़ के पल्ले भिड़े-भड़ाक। डूंगा खाट पर आ बैठा। सिरहाने बाजू ईंस पर तकिया धरा,फिर लेटा। तकिए पर माथा धरा। नजरें तारों पर जा टिकी। मगज में लुगड़ी फरफराने लगी। थोड़ी देर में घुर्र.. घुर्र…खर्राटे शुरू।
उस दिन के बाद वह तकिया कभी भी भीतर नहीं गया। इस बात को ज्यादा नहीं तो भी आठ-दस साल हो गए थे। तब तो तकिया ऐसा था कि कोई भी उसे सिर के नीचे रख लेता,लेकिन अब तकिए के भीतर भरे चीथरों के लड्डू बन गए थे,बल्कि कोई-कोई लड्डू तो कबीट की भांति कड़क बम हो गया था। उस तकिए की खोल पसीने और मैल से इतनी चिकट और काली हो गई थी कि,उस पर कोई मक्खी भी बैठना पसंद नहीं करती और कबरा टेगड़ा तो उसकी बास से भी कतराता। इसलिए जब भी खाट के नीचे सोता,अपना मुंह डूंगा के पैरों की तरफ करता,लेकिन तकिए में रहने वाले माकणों और डूंगा को उसकी बास से कोई फर्क नहीं पड़ता,बल्कि उसकी बास की आदत पड़ गई थीl डूंगा का सफे़द बालों वाला सिर उसी तकिए पर टिककर आराम महसूस करता था।
जब कभी उसका सिर तकिए पर धरा होता,उसे अपनी गुजर चुकी जी (मां) की याद आती,तो ऐसा महसूस होता-वह तकिए पर नहीं,अपनी जी की जांघ पर सिर रखकर लेटा है, और यह बात तो कभी वह किसी मीठे या भयानक डरावने सपने में भी नहीं भूल सकता था कि उसने एक रात जी की जांघ पर माथा धर कर लेटे-लेटे ही कहा था -जी।
– हं… जी ने हुंकारा भरा था।
-जद हूं बड़ो हुई जउवां,थारा सरू एक बहोत अच्छी लुगड़ी लउवां।
-बहोत अच्छी…जी का झुर्रीदार चेहरा चमक उठा और उसने खुशी से भरकर पूछा था –कैसी?
-वैसी…डूंगा ने आसमान में जगरमगर करते तारों की ओर इशारा करते हुए कहा था।
उस रात डूंगा की जी का कलेजा भर आया था। अचानक अधेड़ और पतली पलकों से खारा पानी ढुलक गया था। वह खारा पानी,जिसे उसने पंद्रह बरस में कभी ढुलकने तो दूर,पलकों के आसपास भी नहीं आने दिया था। पंद्रह साल पहले वह ब्याहकर आई थी,और फिर साल भर बाद ही डूंगा उसके पेट में हिलने-डुलने लगा था। उन दिनों एक रात डूंगा के दायजी (पिता) ने उसकी जवान,किंतु गर्भवती होने के कारण नर्म और ढीली पड़ती जांघ पर माथा रखकर कहा था-हूं थारा सरू अबकी एक बहोत अच्छी लुगड़ी लउआं।
-कैसी? उस रात भी डूंगा की मां ने ऐसे ही पूछा था और डूंगा के दायजी ने आसमान में चमकते सितारों की ओर इशारा करके कहा था-वैसी..लेकिन डूंगा के दायजी ने जीवन में ऐसा गच्चा खाया। लुगड़ी तो दूर,वे कभी लाख का एक चूड़ा भी नहीं पहना सके। डूंगा दस बरस का ही था,जब उसके दायजी के पैर भरोसे के धागों से बुने जाल में उलझ गए। दायजी के माथे उनके दायजी का लिया कुछ कर्जा था,जिसे वे चुका नहीं सके; और जाल उन्हें लील गया। जिन्होंने दायजी को मारा,वे दायजी के भाइयों के बहादुर बेटे थे। उन्हीं ने उस कर्ज की वसूली के बदले दायजी से दो खेत के कागजों पर अगूंठा लगवाया था। कागज पर लिखा था-कर्जा न चुकाने की स्थिति में खेत उनके हो जाएंगे।
दायजी को खेत अपनी जान से भी प्यारे थे। जीवन का एक ही मकसद-जल्दी से जल्दी खेतों को कर्जे़ से मुक्त करना। वे फसल के गोड़ में मेहनत,भावना और नींद के मिश्रण से बनी खाद डालते थे। एक-एक पौधे को खून के पसीने से सींचते थे। फसल को अच्छी होना ही पड़ता था। एक दिन उनकी अदा ने दायजी के भाइयों के बेटों के मन में शंका का बीज बो दिया-यह ऐसी मेहनत करता रहा,ऐसी फसल काटता रहा,कर्जा तो यूं पटा देगा,पर रुपए के बदले रुपए लेने को थोड़ी दिया था कर्जा। कर्जा दिया था,ताकि उसके बदले खेत आ सके,पर लगता है ये तो उलटी गंगा बहाने पर तुला है। उन्होंने एक रात दायजी को खेत पर करंट लगाकर मार दिया। जब दायजी का नुक्ता-घाटा हो गया,उन्होंने वे खेत कब्जा लिए। डूंगा की जी ने जैसे-तैसे उसे बड़ा किया और ब्याह के साल-छः महीने बाद ही वह चली गई। उसे कोई बीमारी थी,ये तो कभी कुछ उजागर न हुआ,पर उसकी उम्र और पड़ौस की संपत की,बाखल की और दूसरी औरतों की सुने,और मानें तो,यही सुनने-समझने में आता-डूंगा की जी को आराम और खुशी नहीं फली।
डूंगा अपनी जी को दी जबान पूरी करने को भरसक अपटा था,पर हर बार उसके सामने कोई-न-कोई मुसीबत खड़ी हो जाती। उस पर मुसीबतें कुछ ज्यादा ही महरबान थीं। कुछ इस तरह की गांव में से कोई भी मुसीबत को बाहर खदेड़ता,तो मुसीबत माकणों की तरह डूंगा के घर में आ बसती। डूंगा का घर यानी मुसीबतों का पिहर। अगर डूंगा का घर मुसीबतों की नजर में न चढ़ता। डूंगा और उसका परिवार मुसीबतों को चकमा देने का हुनर सीख लेता। लुगड़ी तो वह एक नहीं,सौ-सौ कभी का;और कई-कई बार खरीद चुका होता,क्योंकि डूंगा अपने दायजी की तरह मेहनती था। फसल के रूप में नगद उगाता,पर वह मेहनत से कमाए पैसों को अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर पाता। उसकी सभी इच्छाएं,जरूरतें और सपने धरे रह जाते। पैसा किसी-न-किसी मुसीबत की भेंट चढ़ जाता। अब उसके ब्याह के बरस की ही बात ले लो। ब्याह से पहले तक उसकी जी एकदम टनटनाट थी। न सर्दी,न खांसी,न गठिया,न कोई और अमका-ढिमका रोग। डूंगा के दायजी के चले जाने के बावजूद उसने जिस दमदारी से डूंगा को पाल-पोसकर बड़ा किया,खेती-बाड़ी के गुर सिखाए,वह सब अच्छे-अच्छे मूंछ वालों के सामने मिसालें थीं। कैसे वह अपनी बची-खुची जमीन को जेठ,देवर और उनके छोरों की नजर से बचाती रही। कैसे उसने डूंगा को घड़ी भर भी अपनी नजर से दूर नहीं जाने दिया। उसे पढ़ाने-लिखाने की इच्छा का गला घोंट दिया। उसने अपनी और डूंगा की रक्षा के लिए कभी कमर से बंधा हंसिया घड़ी भर को दूर नहीं रखा,लेकिन डूंगा के ब्याह के बाद तो जैसे उसकी सारी मुरादें पूरी हो गई। बहू पारबती ऐसी गुणवंती मिली थी कि,सास को तिनका तोड़ कर दो नहीं करने देती। उसे लगा-अब उसकी जिम्मेदारी पूरी हो गई। उसे डूंगा के दायजी की याद सताने लगी। यह रोग उस पर इस कदर हावी हुआ कि वह मिट्टी की तरह गलने लगी,और उस दिन जब डूंगा ब्याह के बाद पहली फसल बेचकर लौटा। उसने अपनी जी की गोदी में नोटों की नवली रखी। फिर उसमें से कुछ नोट लेकर वह जी के लिए एक लुगड़ी खरीदने जाने लगा। अपने सपनों की लुगड़ी,अपने दायजी के सपनों की लुगड़ी,छापादार लुगड़ी। डूंगा की जी अपने जीवन पर,अपने सपूत पर मुग्ध हो गई। उसकी आंखों से खुशी के दो गर्म रेले ढुलके-मानो विधवापन में सहे सभी दुःख धुल गए। उसने अपने शरीर पर छापादार लुगड़ी को महसूस किया। खुशी का एक गोला उसकी श्वांस नली में फंस गया और वह खुशी-खुशी अपनी देह से बाहर चली गई। डूंगा के पैरों तले की धरती धंस गई। सिर पर आसमान टूट पड़ा। नुक्ते-घाटे का खर्चा पहाड़ की तरह छाती पर खड़ा हो गया। डूंगा खूब नटा। उसने कहा कि वह जीते-जी अपनी जी को मनपसंद एक लुगड़ी न ओढ़ा सका। मरे पाछे नुक्ते-घाटे का ढकोसला करने का क्या फायदा? समाज के ठेकेदारों ने अच्छे-अच्छों के घर-खेत बिकवा कर नुक्ते करवाए थे,फिर डूंगा को कैसे बख्शते? फसल का पूरा पैसा जी के किर्याकर्म और नुक्ते-घाटे में खर्च हो गया।
फिर एक रात जब मंदिर में शंख,झांझ,खंजड़ी और ढपली की आवाज थमी। रोज की तरह पारबती समझ गई,आरती खत्म हुई। आरती से लौटकर डूंगा खाना खाया करता। आरती खत्म होने के साथ ही खत्म हुआ था पारबती का खाना बनाना भी। उसने जिस दाथरी में आटा गूंथा था,उसी में हाथ धोए,दाथरी धोई। दाथरी का पानी पनहरी के नीचे रखे कुंडे में डाला। दाथरी को भीत से खड़ी टिका दी,ताकि पानी निथर जाए। फिर अपने पूरे नौ महीने के पेट को लेकर उठी। बारी में से पीतल की थाली निकाली। पनहरी के ऊपर भीत में ठूंकी खूंटी पर रखे पटिए पर से कांसे का गिलास उठाया। बारी में से छाछ का चूड़ला निकालकर बाहर रखा। बैठकर थाली में खाना परोसने लगी,लेकिन परोसने से पहले थाली पोंछने का ख्याल आया। इधर-उधर नजर मारी,थाली पोंछने का चीथरा कहीं नजर न आया। उठकर ढूंढ़ने की इच्छा न हुई,अलसा गई,तो अपनी घाघरी से थाली पोंछी और खाना परोसने लगी।
उस रात खाना भी क्या बनाया था उसने! देखते ही गलफों से लार की तिरपने फूट पड़तीं। कड़ेले पर छींटादार सेंकी ज्वार की रोटी,मटूरिया,भरता,लीली मिर्चा,लूण..यह सब जब पीतल की थाली में परोसा और चूड़ले में से गिलास में गाढ़ी और चार-पांच दिन पुरानी खट्टी छाछ कुड़ ही रही थी कि डूंगा आ गया। आरती में जाने से पहले ही डूंगा के सिर में हल्का-हल्का दर्द था। जब थाली में अपना मनपसंद भोजन देखा,तब दर्द तो भूला ही,भूला खाने से पहले हाथ धोना भी,और दोनों साथ-साथ खाने लगे।
खाने के बाद फिर सिर में दर्द ने आंखें खोली और धीरे-धीरे चटीके पड़ने लगे। वहीं सामने वाली भीत से सटी अनाज से भरे थैलों की थप्पी लगी थी। कुछ दिन पहले ही आई ताजी फसल अवेरकर रखी थी। बेचना बाकी थी। थप्पी पर गोल घड़ी कर खजूर के खोड्यों से बनी छादरी धरी थी। डूंगा ने छादरी उठाई और जमीन पर बिछाकर लेट गया। पारबती से माथा दुखने का बताया,तो वह पास आ गई। भीत से टिककर बैठी,पैर लंबे किए। डूंगा का माथा अपनी नर्म और ढीली जांघों पर रखा और कपाल को हथेली के गुद्दे से कूचने लगी। पारबती के हाथों में जैसे जादू था। दर्द छू मंतर होने लगा था। अपने सिर के नीचे पारबती की नर्म और ढीली जांघों को महसूस कर डूंगा को अपनी जी की याद आने लगी। डूंगा की आंखें बंद होने लगी। उसके कपाल के नीचे से दर्द के छू मंतर होने पर जो जगह खाली हुई,वहां लुगड़ी लहराने लगी। लुगड़ी के पीछे ही जी के न रहने का ख्याल भी आया। उसका मन इस मलाल से भर गया कि,जीते-जी जी को लुगड़ी न ला सका। जी होती तो आज गल्ले से भरे थैलों की थप्पी बेचकर लुगड़ी ले आता,पर अब किसके लिए…?
उसके मन में आए इस प्रश्न के पीछे-पीछे ही उत्तर भी चला आया-जी न सही,पारबती तो है। वह पारबती को कम नहीं चाहता, बस,कभी मन में लुगड़ी लाने का खयाल ही नहीं आया,लेकिन उस क्षण अचानक हृदय में पारबती के लिए भी प्रेम की क्षिप्रा किनारे तोड़कर बहने लगी। फिर उन दिनों तो पारबती के दिन भी पूरे चल रहे थे। वह किसी भी दिन बच्चे को जन्म दे सकती थी। डूंगा सोच में पड़ गया। शायद मगज में गूंजने लगा-म्हारा ही अंश के जनम दइगी। उना गेंहूं का खळा में म्हारा ही एक टिपका(बूंद)के कोख में छिपइ ल्यो थो;और उनाज टिपका के अब फूल बनई के म्हारी गोदी में रखी देगी। पारबती म्हारी बैरां तो है ही,जी भी बनी जावेगी। उस क्षण डूंगा अपनी भावना में भीग गया। पारबती की जांघों पर से सिर उठाकर उसकी छातियों पर रख दिया। उसके फूले पेट पर आहिस्ता-आहिस्ता हाथ फिराता और छातियों से सटे मुंह को ऊपर उठाया। पारबती की आंखों में देखता बोला-गल्लो बेचने जउंआ,तो थारा सरू बहोत अच्छी लुगड़ी लउंआ।
-कसी (कैसी)? पारबती ने उसके बालों में अंगुली फेरते पूछा।
-लाल छींटादार। डूंगा ने भौहों को उचकाकर और होंठों पर मुस्कान लाकर कहा था।
उन्हीं दिनों दो दिन बाद की एक सुबह,इधर डूंगा ने मंडी ले जाने को मेटाडोर में गल्ला भरा। उधर पारबती की कोख के भीतर बच्चा जोर-जोर से लात मारने लगा-मानो पेट का बच्चा भी अपने बाऊजी के साथ मंडी जाने को जल्दी से बाहर आना चाह रहा था। उसी मेटाडोर में पारबती को बैठाया। अस्पताल में उसकी देख-रेख करने को पड़ौसन संपत काकी को साथ बैठा लिया। बड़ी भली बैरां थी संपत काकी। ऐसे मामलों में कभी मना नहीं करती। वह सुबह पांच-साढ़े पांच का वक्त था। संपत काकी लोटा लेकर झाड़े (दिशा फारिग) फिरने जा रही थी,पर उसने लोटे का पानी फेंक दिया। लोटा अपने घर की ओटली पर रखा और बाहर से हांक देकर अपनी छोरी को बुलाया। छोरी भीतर चाय बनाने को चूल्हा सुलगा रही थी,वह हाथ का काम छोड़कर बाहर आई,तो उसे बस इतना कहा-थारा बाऊजी के बता दे,हूं पारबती काकी की साथ में हस्पताल जय री हूं।
छोरी आठ-दस साल की ही थी। उसे कुछ संपट नहीं पड़ी,तो उसने पलटकर पूछा-क्यों र्कइं हुई ग्यो?
-थारो माथो हुई ग्यो,तू तो थारे बतायो,उतरो बता दी जे,वी सब समझी जायगा। उसने मेटाडोर में बैठते-बैठते कहा था।
गांव से शहर की दूरी आधे घण्टे की थी। शहर पहुंचते ही महात्मा गांधी अस्पताल था। पारबती और संपत काकी को अस्पताल में छोड़ा और वह गल्ला लेकर मंडी पहुंचा। मेटाडोर भरकर गल्ला बेचा और मुट्ठी भर नोट लेकर दो घण्टे में वापस अस्पताल आ गया था। आते ही उसने देखा-अभी तक पारबती को भर्ती ही नहीं किया था। वह फर्श पर लेटे चीख रही थी। उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई थी। डूंगा ने भाग-दौड़कर अस्पताल का कोना-कोना एक कर दिया। तब नर्स और डॉक्टर के कान पर जूं रेंगी, पारबती को भर्ती किया। बच्चा हिल-हिलकर भीतर उलझ गया था। डॉक्टर ने अपने और अस्पताल के खर्चे का मुंह फाड़ा,तो डूंगा ने पूरे के पूरे नोट उसके मुंह में ठूंस दिए थे। तब पारबती को ऑपरेशन के लिए ले गए। उधर पारबती को ले गए,इधर संपत काकी ने भाल का पसीना पोंछते हुए कहा-डूंगा,बीर तू यां बैठी जा,हूं झाड़े फिरीन अभी अऊं।
उस दिन बड़े ऑपरेशन और लंबे इंतजार के बाद आई थी-पवित्रा। पवित्रा के आने की खुशी से डूंगा उछल पड़ा। उसने उन क्षणों में संपत काकी को भी एक लुगड़ी ओढ़ाने का वादा किया। संपत काकी ने सात-आठ दिन तक अस्पताल में पारबती की देखभाल,अपनी सगी बेटी की तरह की थी।
जब अस्पताल से पारबती को छुट्टी दी,तब डॉक्टर ने डूंगा को अपने कैबिन में बुलाकर समझाया-पारबती का केस कुछ ज्यादा बिगड़ गया था। उसकी कोख बिल्कुल खराब हो गई। अब वह दुबारा मां नहीं बनेगी।
सुनकर डूंगा को दुख तो हुआ था। एक क्षण को उसके जेहन में कौंधा-पढ़ा-लिखा होता,या शहरी पैसे वाला होता,तो शायद पारबती के केस में ढीलपोल नहीं होती,लेकिन दूसरे ही क्षण उसने नन्हीं पवित्रा की ओर देखकर सोचा-यही छोरा और यही छोरी,अब जो करी,वही खरी।
वही पवित्रा जो आठवी-नवीं तक दुबली-पतली और लंबी नाक वाली बच्ची दिखती थी,ग्यारवीं-बारहवीं पास करते-करते एकदम बदल गई। पारबती से तीन-चार इंच लंबी दिखने लगी। उसके बदन पर भी मानो किसी ने पीली मिट्टी की छबाई कर दी। अब उसकी नाक पहले से कम लंबी दिखती,क्योंकि नाक के दाएं-बाएं सुलगती छाणी के टापू की तरह गाल उभर आए थे। कभी जिन आंखों में कीचड़ भरा रहता,अब उनके सामने कुलांचे भरती हिरणी की आंखें भी कमतर लगती। गरदन के नीचे की हड्डियां भी छाती पर उभरे मांस के नीचे छुप गई। अब तो बस…उसकी देह ऐसी हो गई थी कि,उसे छूते हुए हवा जिस बाखल से गुजरती,पवित्रा के हमउम्र और चारेक साल बड़ों तक का मगज पगला जाता।
पारबती की नजरों से भी न पवित्रा का शरीर छुपा था,न खिलते शरीर की खुशबू। उसने इस संबंध में न डूंगा से कोई सलाह-मशविरा किया,न पवित्रा से कुछ कहा। खुद ही यह तय किया-अब पवित्रा को कहीं अकेली जाने-आने नहीं देगी।
वे कुएं या हैण्डपम्प से पानी लेने जाती,तो मां-बेटी साथ जाती। खेत पर जाती,तो साथ-साथ जाती। यहां तक कि,झाड़े फिरने भी एकसाथ जाती। बस,पारबती नहीं जा सकती थी,तो पवित्रा के साथ पढ़ने,इसलिए पवित्रा का पढ़ना बारहवीं के बाद पारबती ने छुड़वा दिया,लेकिन इतना पढ़कर भी वह गांव की छोरियों में सबसे ज्यादा भणी-गुणी थी।
पारबती की आंखों में छोरी के हाथ पीले करने का सपना जवान होने लगा। वह डूंगा पर पवित्रा के लायक लड़का ढूंढ़ने का दबाव बढ़ाने लगी। डूंगा सालों से खेती में मेहनत और बस मेहनत करता आ रहा था। उसकी दुनिया घर,मंदिर और खेत के बीच फैली थी। गांव से बाहर जाने के नाम पर कभी अनाज मंडी जाता। सोसायटी में खाद लेने जाता। बिजली का बिल भरने जाता। लुगड़ी खरीदने के सपने के अलावा,भी कुछ चिंताएं थीं-मसलन कभी खाद का महंगा होना,कभी बिजली का कटौत्रा बढ़ना, कभी बीज-बोदा निकलना,कभी डंकल का डसना,कभी अंकल का हंसना,लेकिन अब गांव-परगांव आना-जाना बढ़ने लगा था। छोरा भले ही ढंग-ढोरे का नहीं मिल रहा था,पर छोरा ढूंढ़ते हुए जो कुछ देखने-सुनने और जानने-समझने को मिल रहा था,वह भी उसे आश्चर्य से भरता था। उसे अपने आसपास की दुनिया में बहुत कुछ बदलाव नजर आता। बदलाव,कुछ समझ में आता और कुछ समझ से परे भी रह जाता।
पवित्रा का जन्म अब तक उसे जैसे कल की घटना लगती,लेकिन अब लगने लगा-वह बीस बरस पुरानी बात है। इतिहास में बीस बरस जो भी मायना रखते हों,लेकिन एक जीवन में बहुत मायना रखते हैं। उसने तो बीस बरस में बीस बार ढंग से आईना तक नहीं देखा। आईने के सामने बस बैठता। नाई हजामत बना देता और वह उठकर चला आता,लेकिन पिछली बार जब एक सांझ वह नाई से गाल के बाल छिलवाने गया,आईने के सामने बैठा। आईने में खुद को देखा,तो एकदम अपना चेहरा पहचान न सका। पलटकर पीछे देखा कि पीछे कौन बूढ़ा है,जो आईने में दिख रहा है। पीछे नाई के सिवा कोई नहीं था। वह सफेद बालों से भरा उसी का चेहरा था। जब नाई ने चेहरे से सफेद बालों को साफ कर दिया,तो चेहरे पर मकड़ी का जाला उभर आया था। वह आंखें बंदकर मानस पटल पर अपना पुराना चेहरा देखने लगा। गालों पर हाथ फेरकर पुराना चेहरा ही महसूस किया,पर जब आंखें खोली तो वही चेहरा सामने था-पुपलाता मुंह,आंखें धंसी। पुतलियों के आसपास फफूंद जैसा कुछ जमा हुआ। भाल,नाक और गाल पर मकड़जाल। जाल के नीचे आटा छननी के माफिक छोटे-छोटे ऐसे छेद,जैसे कोई बहुत सावधानी से चोरी-चुपके कई दिन-रात बेर के सीधे कांटे से करता रहा था और डूंगा ने पहली बार उसी सांझ को देखे थे। वह उठ खड़ा हुआ। नाई को पांच रुपए थमाकर घर की ओर चल पड़ा। उस सांझ उसे लगा-वह बूढ़ा हो गया। वह चलते-चलते अचानक रुक गया। दरअसल अनायास ही उसकी जीभ ऊपरी जबड़े की बायीं बाजू के दांतों को टटोलने लगी। उसने महसूस किया,बायीं बाजू का तीखा दांत नहीं था,जिसे अक्सर वह सांटे (गन्ने) की पंगेर में सबसे पहले धंसाता और बाकी अड़ौसी-पड़ौसी दांतों की मदद से सांटे को चीर देता था। उसे जोर का धक्का तब लगा,जब अगले क्षण महसूस किया-तीखे दांत की बगल वाली दाड़ भी नहीं है। जीभ जैसे एक-एक दाड़-दांत का समाचार लेने लगी। मानों मुंह का बाड़ा छोड़कर चले गयों के प्रति दुःख और सहानुभूति प्रकट करने लगी। बचे हुओं को,जाने वालों के गम से उभारने का सोच ढांढ़स बंधाने लगी। जीभ जैसे ही मसूड़ों पर चलकर अगले दांत के पास पहुंचती,कोई अकड़कर और कोई विन्रमता में अपनी जगह खड़ा रहता। कोई रूठकर पीछे हट जाता। जैसे जता रहा हो-मैं ज्यादा दिन रुकने वाला नहीं।
फिर वह अपनी जगह खड़ा-खड़ा ही हंसा। सचमुच में नहीं,लेकिन मन-ही-मन खुद की खोपड़ी में पीछे से एक टप्पू मारा और बुदबुदाया-कसो घनचक्कर है हूं भी।
दरअसल उसे चार साल पहले की वह घटना याद हो आई थी,जब सरपंच ने मजे-मजे में बिजली कटौत्रा के विरोध में विद्युत मंडल का घेराव करवा दिया था। उसने गांव में डोन्डी फिरवाकर हर घर से ‘एक आदमी को जाना जरूरी है’ बता दिया था। डूंगा के घर से डूंगा गया था,वहीं जब बात बढ़ गई और पुलिस वालों के डन्डे अपनी कला दिखाने लगे थे,तो डूंगा का जबड़ा सामने आ गया और कुछ दाड़-दांत से हाथ धो बैठा था।
हालांकि उसके बाद डूंगा के जबड़े का मुआवजा सरपंच और टुल्लर ने प्रशासन के हलक से निकालकर अपने हलक के नीचे उतार लिया था। डूंगा तो अपनी धुन में खेत में जुतकर लुगड़ी के सपने को साकार करने में भिड़ गया था।
उस दिन एक-एक दांतों पर जीभ घुमाते हुए महसूस किया-बचे हुए दाड़-दांत पर मैल की जाने कितनी परतें चढ़ गई हैं। वह जीभ के साथ मुंह में उलझे मन को वापस अपनी जगह पर लाया। घर की ओर चलने लगा।
थोड़ी दूर चलने के बाद उसकी नजर अपने कबरे टेगड़े पर पड़ी-टेगड़ा हांप रहा था। उसकी लटकती जीभ से लार टपक रही थी। वह एक गुमटी के पीछे था और उसका मुंह डूंगा की तरफ। डूंगा खड़ा हो,टेगड़े को बुलाने लगा। टेगड़ा देख तो रहा था डूंगा की तरफ,पर आ नहीं रहा था। डूंगा जहां खड़ा होकर टेगड़े को बुला रहा था,वहां उसके पीछे एक ओटला था। ओटले पर छोरों का एक टुल्लर बैठा था,जो बैठे किस काम से थे नहीं मालूम,पर जब डूंगा टेगड़े को बुलाने लगा,तो वे डूंगा को ही ऐसे देखने लगे थे,मानो यह देखने के लिए ही वहां आकर बैठे थे। वे डूंगा का कबरे टेगड़े को बुलाना देख रहे थे और मुस्करा रहे थे।
डूंगा ने फिर थोड़ी जोर से हांक लगाकर कबरे टेगड़े को बुलाया। कबरा नहीं आया,पर डूंगा को लगा कि कबरे ने आने की कोशिश की,मगर किसी ने पीछे से खींच लिया। उसे कबरे के पांव जमीन पर पीछे की ओर घीटते लगे। डूंगा ने सोचा-कबरा गुमटी के पीछे गड़े अर्थिन्ग के तार में या किसी मुसीबत में तो नहीं उलझ गया। वह थोड़ा तिरछान में आगे बढ़ा,ताकि कबरे का पिछला धड़ देख सके। दो कदम बढ़ते ही देखा कि,कबरा के पीछे एक टेगड़ी भी है। डूंगा वापस दो कदम पीछे चला और मुड़ा,तो ओटले पर बैठा टुल्लर हथेली पर हथेली मारकर जोर से ठहाका लगा उठा। डूंगा ठहाके को अनसुना कर आगे बढ़ गया।
डूंगा अभी भी अपने घर से डेढ़-दो सौ मीटर की दूरी पर था कि,उसके दाहिने कान में एक खास मौके़ पर बजाई जाने वाली सीटी की आवाज पड़ी। उसने उधर देखा,उसकी बाखल के रामा बा सीटी बजा रहे थे। रामा बा अपनी भैंस को गाबन कराने के लिए पटेल बा के पाड़े के सामने लेकर खड़े थे। रामा बा ऐसे मौके पर बजाई जाने वाली सीटी बजाकर पाड़े को भैंस पर डाकने के लिए राजी कर रहे थे। भैंस टेंटा हिलाती,थोड़ी-थोड़ी देर में पूंछ उठाती,पाड़ा पूंछ के नीचे सूंघता,आंखें मीचता,नकसुर सिकोड़ता,ऊंचा मुंह करता,थोड़ा आगे-पीछे कदम करता और फिर भैंस की पूंछ नीचे सूंघता। थोड़ी दूरी पर गुल्ली-डंडा खेलना छोड़कर छोटे-छोटे चार-पांच छोरे रामा बा,भैंस और पाड़े को कौतुहल से देख रहे थे।
डूंगा कुछ सोचता हुआ रामा बा की ओर बढ़ गया। राम..राम..कह दुआ-सलाम करने के बाद पूछा-या कित्ता बैत झोंटी है,यानी अब तक कितनी बार जन चुकी है।
-अब तीसरी बैंत होगी। रामा बा ने कहा और फिर पाड़े की ओर देखते बोले-बड़ा ढीला नाड़ा को पाड़ो है,आधा घण्टा से भैंस लीने खड़्यो हूं,पर इको मन ही नी होतो।
डूंगा और रामा बा की एक साथ हंसी निकल पड़ी। फिर डूंगा ने राम-राम की और घर की ओर चल पड़ा। घर पहुंचा तो देखा-आंगन में बैठी पारबती साग-भाजी काटने की बंकी से बिजाला (बैंगन) के टुकड़े कर रही थी। वह उसकी तरफ मुस्कराया। वह ऐसी मुस्कान थी,जिसे पारबती ने बरसों बाद देखी थी-जैसे चेहरे पर फैले मकड़जाल के धागों में बिजली दौड़ रही थी। झुर्रियां भी झुर्रियां नहीं,मकड़जाल के बीच में चमकते जुगनू लग रही थीं। वह जरा-सी लजा गई थी। डूंगा पारबती की ओर बढ़ा,उसके नजदीक जाकर बैठ गया। पारबती के हाथ से बंकी और बिजाला थाली में छूट गए;और सोचने लगी-क्या बात है? तभी उसका हाथ पकड़कर डूंगा बोला-पारी तू आज भी उसीज (वैसी) लागे।
-कसीज (कैसी)? पारबती जैसे क्षणभर को खुद को भूल गई,ऐसे देखती बोली थी।
-जैसी पहली बार गेहूं का खळा (खलिहान) में लागी थी। डूंगा ने उसकी आंखों को अपनी आंखों से सेंकते हुए कहा था।
डूंगा ने उन दिनों की याद दिलाई,जब वह ब्याह के बाद पहली बार ससुराल आई थी। कुछ दिन तो उसे डूंगा की मां अपने साथ ही सुलाती रही थी। वह सोचती थी कि बहू छोटी है,इसलिए डूंगा से दूर रखा करती थी। पारबती छेड़ा (घूंघट) भी इतना लंबा काड़ती थी कि,डूंगा एक घर में रहकर भी पारबती की शक्ल नहीं देख पाता। वह मां की नजर से बचकर इधर-उधर छू लेता,लेकिन उस रात जब खलिहान में गेहूं थ्रेशर में से निकाले जा रहे थे। डूंगा गेहूं का पूला उठा-उठाकर थ्रेशर के पास जमाता। उसकी मां पूला थ्रेशर में देती। पारबती थ्रेशर में से निकलते गेहूं को एक तगारी में झेलती। जब तगारी भर जाती,तो उसे गेहूं के थापे (ढेर) में उड़ेल देती। इस काम में दो तगारी लगती। भरी तगारी को उठाते वक्त ही उसकी जगह दूसरी खाली तगारी लगा देती। तगारी को गेहूं से भरने में थोड़ी देर लगती,उतनी देर पारबती खाली नहीं बैठती। डूंगा के साथ गेहूं के पूले उठाकर लाती और सास के पास ढेर जमाती,ताकि सास पूलों को थ्रेशर में लगातार देती रहे।
उस रात यही काम वे कर रहे थे और साथ में कर रहे थे-एक-दूसरे के साथ छेड़खानी,मस्ती,मजाक। तभी अचानक गेंहूं के पूलों के ढेर के पीछे डूंगा ने पहली बार पारबती को बांहों में कस लिया। वह कसमसाई,छुड़ाने की कोशिश की,लेकिन डूंगा उसके शरीर को यहां-वहां छूता रहा। उसकी आंखों में उनाले की रातों की हवा में घुली महुए की मादकता भरने लगी। उसके होंठों पर केसुड़ी खिलने लगी। डूंगा की सांस बढ़ती रही। उसके हाथों से,उसके होंठों से पारबती के बदन का एक गेहूंभर हिस्सा भी ओगला नहीं रहा। वह जैसे पिघलकर गेहूं के पूलों के ढेर पर गिर पड़ी। धीरे से फुसफुसाई-रहने दो…छोड़ दो…जी देखे…
-नी देखेगी…जी…पूला को ढ़ेर…डूंगा ने कुछ समझाया।
उधर थ्रेशर में झोंकने को पूले का ढेर तो छोटा नहीं हुआ,लेकिन कुछ देर में डूंगा की मां को प्यास लग आई। उसने पारबती से पानी मांगा। पारबती तो पीछे पूलों पर सवार हो तारों की सैर कर रही थी,उसने आवाज न सुनी,या आवाज ही ने उसके कान के रास्ते जाकर मगज में खलल पैदा करना ठीक न समझा,और उल्टे पांव वापस लौट आई। सास ने थोड़ी देर बाद फिर पानी मांगा और जब पानी नहीं मिला;तो उसने सोचा-रात काफी हो गई,कहीं बहू सो तो नहीं गई। उसने उधर देखा-जिधर गेंहूं झेलने को तगारी लगी थी। तगारी भर गई थी और उसमें से गेंहूं उबराकर बाहर गिर रहे थे,लेकिन वहां बहू नहीं थी। पानी की गागर की ओर देखा-उधर भी बहू नहीं थी।
वह थ्रेशर के गाले में पूला लगाना बंद कर नीचे आई। नजरों से इधर-उधर ढूंढ़ती पूले के ढेर के पीछे की तरफ गई। अभी पूरी तरह गई भी नहीं थी कि बेटे-बहू पर अड़छड़ती नजर पड़ी…। वह उलटे कदमों से वापस लौट आई। उसने क्या देख लिया? वह खुद को कोसने लगी। अपने छोरा-बहू को…कोई ऐसे देखता…हे भगवान…मैं उन्हें छोटे समझती रही…उसने जैसे-तैसे खुद को शांत किया,पानी पीया। तगारी के गेंहूं थापे में डाले,जो उबरा गये थे,वे भी सोरकर डाल दिए। फिर वह छोरे-बहू के बारे में निश्चिंत होती। थ्रेशर के गाले में पूले देती। थापे पर धरे गोबर गणेश से मन-ही-मन माफी मांगी। फिर मानो थापे पर बिराजमान गोबर गणेश और रात की उस पहर का शुक्रियादा करती धीमे-धीमे गुनगुनाने लगी-धन्य-धन्य ये बखत
बिछावन सुनहरी पूला
खळा बना तखत
तारे फूले-फूले मन से फूल बिखेरे
हवा में उड़े प्रीत की सोरम
निशाचर गावे बधावे
अब पालने झूलुआं
झूला देने वालो आवेगो
या पग कूचणे वाली आवेगी
अब दादी बणूआं
उस दिन जब पारबती को यह रात याद दिलाई। क्षण भर को उस रात की तरह ही खिली केसुड़ी बन गई थी,लेकिन पिघलकर आंगन में फैलने से पहले,जल्दी से संभलकर अपना हाथ खींचती बोली-भांग पी ली कइं,घर में पवित्री रोटी बेली री है।
डूंगा ने फिर उसका हाथ पकड़ने की कोशिश की। पारबती दूर खिसकी और देखा कि डूंगा भी खिसकने वाला है,तो उठकर भीतर जाते-जाते धीरे से फुसफुसाई-यो गेहूं को खळो नी,घर है,और अब बूढ़ा हुई गया हो,थोड़ी सरम करो।
वह भी उठने को हुआ। उठते हुए उसके घुटनों ने उसे एहसास दिलाया-पारबती सच कह रही,वह बूढ़ा हो गया है। उसे शिद्दत से यह महसूस भी हुआ-अब पहले जैसा कुछ नहीं रहा। न शरीर,न घर,न गांव,न दुनिया।
डूंगा का गांव भी ए बी रोड के किनारे बसे अनेक गांवों में से एक था। गांव की एक बाजू में प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी के नाम से विख्यात शहर और दूसरी बाजू में एक औद्योगिक शहर। दोनों शहर गांव के विकास और उद्धार का डंका बजाते। अपनी मस्ती में मस्त सांड की तरह डुकारते। गांव की ओर बढ़ते। गांव के संस्कार,त्यौहार मनाने का ढंग,बोली,पहनावा,खान-पान, शादी-ब्याह के तौर-तरीके,सभी को गोलगप्पों की तरह निगल रहे थे। शहर के हस्तक्षेप से गांवों के हुलिए जिस गति से बदल रहे थे,उस तेजी से डूंगा सरीखे देख-समझ भी नहीं पा रहे थे।
एक सुबह खेत पर जाने को वह घर से निकला। सेरी में संपत काकी के छोरे किशोर से राम-राम हुई। उस बखत किशोर अपनी मोटरसायकिल पोंछ रहा था। डूंगा ने सोचा-कहीं जा रहा होगा। उसे इधर-उधर दौड़ने के अलावा काम भी क्या? रोज एक-दो लुगड़ी का तेल तो फूंक ही देता होगा!
सांझ को जब डूंगा लौटा। बैलगाड़ी को अपनी सेरी में थोबी,तब उसने किशोर के घर सामने नवी-नकोर कार खड़ी देखी। पहले तो उसने सोचा-किशोर के यहां कोई पावणा-पई आया होगा। बैलों के जोत छोड़ते हुए पवित्रा को हेल्ला दिया,तो वह घर से निकल सेरी में आ गई। बैलगाड़ी को डंई पर धरता पवित्रा से बोला-निराव के कोठा में पटकी दे।
वह बैलों की रास थामे उन्हें कोठे में ले चला। पीछे-पीछे निराव को बाँहों में भरकर पवित्रा भी कोठे में पहुंची। उसने बैलों को अलग-अलग खूंटे से बांध दिया। पवित्रा ने एक कोने में निराव पटका और दूसरी खेप लेने जाने लगी। तब डूंगा बोला-छोरी रुक जरा।
पवित्रा रुक गई। डूंगा उसके पास गया और धीमे से पूछा-किशोर्या का घर कोई पावणा आया है?
-ऊं हूं। पवित्रा ने गरदन हिलाकर कहा। यह कहते उसके चेहरे पर ऐसा भाव उभर आया मानो उसने पूछा-क्यों पूछ रहे हो?
-तो फिर वा कार? डूंगा ने जिज्ञासा से पूछा।
-वाऽऽ वा तो किशोर अंकल लाया है। पवित्रा ने कहा,फिर बोली-उनने बादर वाला खेत बेच दिया,कार तो बयाना के पयसे से ही लाए हैं।
-अच्छा! डूंगा ने जैसे कुछ खास जान लिया था।
-म्हारा से भी कार के टिक्को (तिलक) करायो। डूंगा की ओर खुशी से देखते हुए पवित्रा बोली-थाली में सौ रुप्या भी धर्या।
-अच्छा,तू तो भणी-गुणी है,तो थारे मालम है? या कार कितरा रुप्या की आवे? डूंगा ने जानकारी के लिए पूछा।
-या कार तो पांच लाख में लाया है किशोर अंकलजी। पवित्रा ने कहा और आगे बताया-संपत माय को बता रहे थे,बादर वाला खेत का तीस लाख रुप्या मिलेगा। फिर वह बोली-अच्छा,अभी निराव पटकी दूं,फिर सीरियल देखूंआं,थोड़ी देर में आने वालो है।
-तीस लाख…। दो बीघा का तीस लाख। डूंगा बुदबुदाया। उसके मगज में तीस लाख की एक बड़ी जबरी पोटली उभर आई थी।
डूंगा ओसारी में आया। अपनी खाट और तकिया उठाकर बाहर सेरी में लाया। किशोर की कार को देखते हुए खाट ढाली और उस पर कूल्हे टिकाए ही थे कि पारबती आ गई थी। पारबती का रोज का नियम था। बैलगाड़ी बाहर सेरी में थुबती और वह चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा देती। डूंगा कोठे में बैल बांधकर आता। खाट ढाल कर बैठता। पानी के लोटे और चाय के गिलास के साथ पारबती हाजिर हो जाती,लेकिन उस सांझ पारबती के हाथ में न पानी का लोटा था,न चाय के कप-बशी। डूंगा ने उसके खाली हाथों की तरफ देखा। डूंगा कुछ पूछता,उससे पहले पारबती ने ही बताया-रोज चाय-पानी दूं,तो संपत माय देखे। उनने आज एक बात समझय म्हारे।
-कईं बात…? डूंगा ने पूछा।
-उनने बताया…पारबती बताने लगी-धरधरी बखत दिया-बत्ती को टेम रय।
-त … ? डूंगा ने पूछा।
-त… इतरी बखत सरग में भगवान हमारा पुरखा हुण के पीने को कुल्हड़ी भर पानी,और खाने को चना दय। पारबती थोड़ी रुकी। संपत माय के घर तरफ देखा और फिर बोली-संपत माय ने बतायो-जो धरधरी बखत (सूरज डूबने के वक्त) चाय-पानी पीए,सरग में उनका पुरखा भूखे मरे।
-अरे रहने दे ओ … डूंगा ने कहा-तू भी कां संपत काकी की बात में अयगी। फिर हंसकर बोला-म्हारा जी-दायजी तो भगवान का हाथ से छोड़य ने खई लेगा,तू फिकर मत कर। जा चाय-पानी ल्या।
पारबती घर में गई और चाय-पानी ले आई। डूंगा ने पारबती के हाथ से पानी का लोटा लिया। पानी के कुछ छींटे मुंह पर छांटे,फिर कुल्ला किया,मुंह ऊंचा कर खोला और लोटे का आधा-पौन लीटर पानी गट-गट गटक गया। लोटा पारबती को पकड़ाया और अपने गले में पड़े गमछे से मुंह पोंछा। हाथ पोंछे,पारबती के हा…आगे
Bhag…2
पारबती के हाथ से चाय का गिलास लेता बोला-बैठी जा।
-बैठी कैसे जऊं,दाथरी में आटा गून्धा धरा है,रोटा थेपी लूं। थेपणा तो है,फिर देर कईं सरू करूं-पारबती ने कहा।
-पवित्री थेपी लेगी। डूंगा ने चाय का घूंट लेने के बाद कहा।
-वा टीबी का सामने जमीगी,अब सोती बखत ही वां से हलेगी। पारबती ने कहा-टीवी में जाणे कसी-कसी डाकण आवे,पर पवित्री के उनके देखने को घणो चुरुस है।
उसके कहने में कुछ गुस्सा था। वह नहीं चाहती थी कि,जब तब पवित्रा टीवी के सामने बैठी रहे। टीवी में जाने क्या-क्या आता-जाता रहता है। कहीं पवित्रा भी टीवी की डाकनों जैसी करने लगी तो? पवित्रा की कुछ आदतें थीं भी ऐसी,जो पारबती को लगता कि वह डाकनों से सीखी होगी। घर में छोटी टीवी भी पवित्रा की जिद पर आई थी।
-अगी देखने दे,बालक है। डूंगा गिलास की चाय को ऐसे फूंक मारकर ठंडी कर रहा था,मानो चाय नहीं,पारबती के गुस्से को ठंडा कर रहा था।
-कर्इं की बालक,म्हारा से हाथ भर ऊंची हुई गयी। म्हारे तो इससे छुटपन में ही ब्याह दी थी। अन तमने खळा में जबड़य भी ली थी। पारबती ने कहा और खाट पर बैठ गई। धीमें स्वर में बोली-सवेरे म्हारा पेर (मायका) चल्या जाओ। म्हारा भई मदन ने आज संपत काकी का फोन पर म्हारे बतायो। कोई छोरो देख्यो है,तम भी देखी आवो।
-अच्छा,या तो अच्छी बात है,सवेरे जऊंआ। डूंगा ने चाय का आखिरी घूंट लेकर गिलास खाली कर पारबती को दिया। पारबती गिलास और लोटा लेकर घर में चली गई। तभी मंदिर तरफ से शंख की आवाज आई। समझ गया,आरती का टैम हो गया। उठा और आरती में चल पड़ा।
आरती से लौटकर खाना खाया,और वापस अपनी खाट पर आ गया। पारबती ने खाट पर एक गुदड़ी बिछा दी। रात उनाले की थी,पर रात बारह के बाद एक कंबल की ठंड तो उनाले में भी लगती,इसलिए पैताने कंबल भी रख दी थी।
डूंगा के दिमाग में वही सवाल रहा-तीस लाख कितने होते होंगे? उसने कल्पना की-अगर बैलगाड़ी में चारा,बगदा की तरह नोट भरूं,तो गाड़ी कहां तक भरा जाएगी? आधी-आधी मुंडियों तक तो भरा सकती है!और अगर तीस लाख की खन्डार बनाऊं,तो कितनी लंबी,चौड़ी और ऊंची बनेगी? दो बीघा के चनों की खन्डार बराबर तो बनेगी ही!किशोर के दो बीघा के तीस लाख,तो मेरे दस बीघा के कितने होंगे। अं अं डेढ़ सौ लाख। बहुत ऊंची और चौड़ी खन्डार होगी। पूरी बैलगाड़ी भर जाएगी,लेकिन एक बैलगाड़ी भर नोट में कितनी बैलगाड़ी भर लुगड़ी आएगी। फिर मैं,मेरी पड़ौसन संपत काकी को ही नहीं,परगांव की भी कई संपत काकियों,पारबतियों और पवित्रियों को लुगड़ी दे सकूंगा। धरती मां की हरेक बेटी को लाल छींटादार लुगड़ी ओढ़ा दूंगा।
तभी उसके मगज की सभी भीतों से प्रश्नों की तिरपन रिसने लगीं-डूंगा खेत बेच देगा,तो काम क्या करेगा? रोटी कहां से कमाएगा? क्या तू धरती का बेटा,धरती को बेचे पैसों से रोटी खरीद कर खाएगा? क्या तू अपने भाई और बेटों सरीखे प्यारे बैलों को भी बेच देगा? नहीं बेचेगा,तो उन्हें खिलाएगा क्या? खेत में मेहनत करे बगैर तुझे रोटी हजम हो जाएगी? नींद आ जाएगी? कोई बेटा अपनी मां का सौदा करके चैन से सो सकता है? तेरे मन में ये लालच कैसे आया? तुझे अपना ही नहीं,पवित्रा और पारबती के भी सपने पूरे करने हैं,लेकिन धरती मां की गोदी से ही,उसे बेचकर नहीं। यही सब सोचते-सोचते उसके रोम-रोम से नकार का पानी यों झिरपने लगा-मानो बदन रेत का था,जिसके भीतर पानी न ठहरता। वह लेटा था,उसकी आंखें छोटे-छोटे दो डोबनों की तरह डबडब थी,और आसमान की ओर खुली थी,जिनमें मोती से भरा थाल कांप रही था। धीरे-धीरे नींद के बोझ से पलकें बंद हो गई। कांपती थाल भीतर ही रह गई,जो लाल छींटादार लुगड़ी में बदल गई और पूरी रात मगज के चौगान में फरफराती रही।
सवेरे मुंह झांकले के टैम पर उठा। रोजमर्रा के कामों से निपटा। कई दिनों के बाद उसने बालों में खोपरे का तेल लगाया। साबुत और धुले हुए धोती-कमीज पहने। कई सालों के बाद डूंगा ससुराल की ओर चल पड़ा। लोंडी पिपल्या गांव में डूंगा का ससुराल था। ससुराल जो कभी,व्यावसायिक राजधानी के नाम से ख्यात शहर के कुछ ज्यादा ही नजदीक था,अब नजदीक नहीं रह गया था,शहर की आंतों में समा चुका था। जब वह वहां पहुंचा। अचम्भे में पड़ गया। गांव के आसपास जहां कभी फसलें लहलहाया करती,वहां कहीं बंगले, तो कहीं मल्टियां खड़ी थीं। गांव के भीतर भी कई बड़े-बड़े घर उग आए थे। गांव में कभी लोग ढूंढे नहीं मिलते थे। पिछली बार कई बरस पहले जब आया था,तो साले से मिलने खेत पर जाना पड़ा था,लेकिन इस बार साला बीच गांव में इमली के पेड़ की छांव में जुआ खेलता मिल गया। साले के खेतों में भी फसलों की बजाय मल्टियां खड़ीं थीं। उसे अपने खेतों के इतने रुपए मिले थे,जितने कभी सपने में भी नहीं देखे थे। उसने खूब सोचा-इतने रुपयों का क्या करे? घर बना लिया! कार खरीद ली! थैला भरकर बैंक में रख दिया;और क्या करे? उसे कभी नहीं सूझा। उसे ही क्या?,कइयों को नहीं सूझा! गांव के लोग खेती करना जानते थे,और जमीन बिक गई थी। जो थोड़े-बहुत भणे-गुणे थे,वे तो शहर में जाकर किसी न किसी रोजगार से लग गए। कुछ ने किसी दूर के गांव में जमीन खरीद ली और वहीं बस गए,लेकिन कई लोग थे,जो कहीं नहीं गए। उनमें से कई दिनभर इमली के पेड़ के नीचे जुआ खेलते। रात को बायपास या रिंग रोड के ढाबों पर पीने-खाने चले जाते। डूंगा का साला मदन भी इन्हीं में से एक था। उस दिन जब डूंगा को मदन ने देखा,तो बोला-अरे जीजा,आ गए,बैठो। ये बाजी हो जाए,फिर चलते हैं। इमली की दूसरी तरफ कोल्ड्रिंक्स की दुकान वाले को आवाज दी-चार-पांच ठंडी शीशी दे इधर। उसने जीजा डूंगा के अलावा वहां खेल रहे साथियों के लिए भी कोल्ड्रिंक्स मंगवाया।
डूंगा जुआ खेलने वालों के बीच पैसे का ढेर देख,सोच रहा था-इतनी रकम में तो जाने कितनी लुगड़ी आ जाए,पर ये तो ऐसे ही खेल रहे हैं,जैसे मैं बचपन में राखी के ख्याल और खाली आग पेटी खेला करता। उन दिनों तो आग पेटी भी कोई बिरला ही लाता,ज्यादातर तो चूल्हों में राख के भीतर अंगार भारकर रखते थे। थोड़ी देर में बाजी खत्म हो गई। पूरे रुपए डूंगा का साला अपनी जेब में ऐसे भर रहा था,जैसे रुपए नहीं रद्दी कागज के टुकड़े हों। उसे देख डूंगा का मन हुआ-साले को डांटे। उससे रुपए ले ले,उनकी अच्छी घड़ी करे,एक बरसाती की थैली में धरे और फतवी के भीतरी जेब में दिल से लगाकर रखे-एकदम सुरक्षित। साले को तो रुपयों की कद्र करनी ही नहीं आती,लेकिन फिर उसने खुद को समझाया-कमाने में पसीना बहाया हो,तो कद्र करे?
साले ने अपने साथी खिलाड़ियों से उठते हुए कहा-यार जीजा के साथ जाना पड़ेगा,बाद में फिर बैठता हूं।
डूंगा को लगा-साला ऐसे कह रहा था,जैसे उसके साथ जाने की इच्छा नहीं,मजबूरी हो। मन हुआ,साले को दो बातें सुनाए। फिर सोचा-साला दस-पंद्रह साल छोटा है,अब छोटे को कुछ सुनाने से क्या फायदा? बराबरी का होता,तो सुनाता। उसे बात लगती भी,पर इतने छोटे को क्या कहना,छोड़ो। मन के किसी कोने में यह आशंका भी थी कि कहा,और कहीं माजना बिगाड़ दिया तो ..? दोनों चलने लगे,पवित्रा के लिए छोरा देखने। थोड़ी ही देर में दोनों वापस लौट आए। डूंगा को वह छोरा अपने गांव के टुल्लर के छोरों का ही साथी लगा,सो पसंद नहीं आया।
डूंगा सांझ तक वापस अपनी खाट पर आ गया। पारबती ने उसे पानी का लोटा दिया। उसने मुंह पर पानी के छींटे मारे। गट…गट पानी गटका। फिर खाट के पैताने की तरफ बैठी पारबती को बताया-छोरा नी जंचा।
पारबती जाकर चूल्हे-चौके में लग गई। पवित्रा टीवी के सामने बैठी थी,जो थोड़ी देर बाद डूंगा को चाय दे गई। चाय पीकर वह खाट पर आड़ा पड़ गया। सांझ श्याम रंगी सितारों जड़ी लुगड़ी ओढ़ चुकी थी। कहीं-कहीं सितारे भी टंक गए थे। उसके मगज में ए.बी. रोड किनारे के कई गांव आ-जा रहे थे। सभी के हुलिए बदल रहे थे,और न केवल हुलिए,बल्कि लोगों के रहन-सहन का ढंग,बातचीत के तौर-तरीके,त्यौहार मनाने के तौर-तरीके जैसा बहुत कुछ बदल रहा था। शादी-ब्याह में दिखावटीपन बढ़ गया था। बाल विवाह,घूंघट,पवणई,मामेरा, त्यारी जैसी कई बुराईयां बरकरार थीं और उन्हें करते वक्त आधुनिकता हावी रहती,बाजार हावी रहता,महंगी और अनावश्यक चीजों की भरमार और दबदबा रहता। रिश्ते तेजी से अविश्वसनीय होने लगे और अपने अर्थ भी बदलने लगे।
अब कॉलेज में पढ़ने वाले लड़कों की संख्या बढ़ रही थी। वे बी.ए.,एम.ए.के अलावा दूसरे व्यावसायिक विषय भी पढ़ने लगे थे। लड़कियां अभी भी दसवीं-बारहवीं से आगे कम ही पहुंच रही थीं। इस पढ़ी-लिखी पीढ़ी में कोई बिरला छोरा ही होता,जो खेती-बाड़ी के काम में रुचि दिखाता। कितने ही प्रॉयवेट नौकरियों में शहर चले गए। कई पुलिस और सेना में चले गए। जो नहीं गए थे,गए हुओं से ज्यादा मजे़ में थे, क्योंकि सड़क किनारे के डूंगा के गांव में और उसके आसपास के गांव के उन छोरों को जमीन की दलाली का रोजगार मिल गया था। रोजगार धीरे-धीरे ऐसा पनपा कि वह उन छोरों के लिए बिजनेस बन गया था। बिजनेस में होड़ शुरू हो गई। होड़ में मारकाट शुरू हो गई। डूंगा के गांव के छोरे अब आईटीसी, रिलायंस या ऐसी किसी भी बड़ी कम्पनियों के नुमाईंदों के संपर्क में रहने लगे। चूंकि गांव ए.बी. रोड किनारे पर और इंदौर-देवास जैसे शहरों के बीच था,तो कम्पनियों को काम करने के लिहाज से यहां की जमीन ज्यादा उपयुक्त लगीlll। युवाओं ने इन दोनों शहरों के बीच रिलायंस और एस्सार कम्पनियों के कई पेट्रोल पम्प खोलने की जमीन बिकवाई। आईटीसी को अपना हब और चौपाल `सागर` खोलने को जमीन बिकवाई। पिछले चार-पांच साल से दलाल डूंगा के पीछे पड़े थे कि,वह अपना खेत बेच दे। उस पट्टी में डूंगा का खेत कुछ फंस ही ऐसी जगह गया था कि,अब वह मिट्टी का नहीं रह गया। खेत के एक बाजू आईटीसी का चौपाल `सागर`, दूसरी बाजू रिलायंस पेट्रोल पम्प तो सामने भारत पेट्रोलियम पम्प। अब तो यह कि उस खेत का दाम जो डूंगा के मुंह से निकल जाए,लेकिन डूंगा खेत नहीं बेचना चाहता। वह उसमें फसल पैदा करके ही पैसा कमाना चाहता था। अपनी धरती मां को बेचने या उसकी दलाली करने की सोच ही उसे कंपकंपा देती थी। वह मेहनत के दम पर लुगड़ी खरीदना चाहता। घर चलाना चाहता,पर सरकार की नीतियां और बाजार के छल ने कभी हाथ में इतना पैसा आने ही न दिया।
जमीन खरीदने-बेचने वाले गांवदी और शहरी दलालों के मगज में उसकी जमीन चढ़ गई थी। टुल्लरों द्वारा उसका घर गूंधना बढ़ रहा था। दलालों के एक टुल्लर ने मदन को भी अपने साथ मिला लिया था। सभी डूंगा को किसी-न-किसी तरह से पटाने की कोशिश में लगे रहते। दलालों ने डूंगा ही नहीं,पारबती, पवित्रा की जरूरतों और सपनों को भी भांप लिया था। दलाल किसी भी वक्त डूंगा के यहां आ धमकते। डूंगा घर पर नहीं होता,तो वे पारबती और पवित्रा को पटाते।
एक बार भाई दूज पर मदन आया,तो अकेला नहीं आया,उसके साथ दलालों का एक पूरा टुल्लर आया। मदन जानता था कि बहन के यहां टुल्लर की खातिरदारी कुछ खास नहीं होगी,इसलिए वह पहले ही बायपास रोड के एक ढाबे पर खा- पीकर आया। पारबती ने खाने को पूछा,तो वह नट गया।
-मामा चाय तो पियोगे न,बनाऊ? पवित्रा ने टीवी में आए ब्रेक के वक्त पूछा।
-अं…हं..कुछ भी नहीं। मदन ने कहा था।
पूरा टुल्लर आंगन में डली दो खाटों पर बैठा था। ये दोनों खाट पवित्रा और पारबती की थी। डूंगा की खाट भीत से टिकी खड़ी थी और उसके पाए पर तकिया भी धरा था। टुल्लर में से एक ‘जो अपनी रियाज से ज्यादा पी गया था,ने सोचा थोड़ी देर खाट पर आड़ा पड़ जाए। आड़ा पड़ने के लिए सिर नीचे तकिया रखने की जरूरत थी,तो वह उठा और डूंगा की खाट पर का तकिया उठाया,तकिया उठाते ही उसे लगा,तकिया नहीं ईंट के टुकड़ों से भरी छोटी बोरी उठा ली। उसने तकिया झटपट वापस रखा और उलटे कदम आकर खाट पर बैठ गया।
तभी पारबती भी दोनों ढली खाट के सामने आकर नीचे आंगन में बैठ गई और मदन के सामने पवित्रा के ब्याह की चिंता सरकाई। पवित्रा जो धारावाहिक देख रही थी,वह खत्म हो गया था,तो वह भी आकर धीरे से पारबती के पीछे बैठ गई।
मदन,पवित्रा की ओर देख धीमे से मुस्कराया और फिर उसे गुदगुदाने के अंदाज में पारबती की ओर देखता बोला-हीरोईन की हीरोईन दिखती भांजी को चाहे जिसके साथ फान्द दें क्या? भणी-गुणी भांजी को किसी के यहां गोबर सोरने और कंडे थेपने को परना दें क्या? इतना कह उसने फिर पवित्रा की ओर देखा-पवित्रा का चेहरा बता रहा था,मामा मदन की बात उसके गले से रसगुल्ले की तरह उतर रही थी,क्योंकि पवित्रा भी टीवी के धारावाहिकों में आते हीरो-सा दूल्हा चाहती थी। वैसा ही घर,सोफे और बेडरूम। वह धारावहिक देखते-देखते दुल्हन के जेवर के,सितारों जड़ी लाल चुनड़ी के और जाने किस-किस चीज के सपने देख लेती। उस दिन उसे लगा-मदन मामा उसके बारे में कितना अच्छा सोचते हैं।
मामा मदन के चेहरे पर जरा-सी उदासी उतर आई। वह उदासी के पीछे से बहन पारबती का चेहरा बांचता बोला-दुनिया में छोरों की कमी थोड़ी है,छोरा तो टीवी में से अच्छा हीरो पकड़कर बाहर ले आऊं। तू चाहे तो घर जवांई बना के रखना। चाहे उसके साथ रहना,पर अच्छा छोरा भी अच्छी जगह ही रुकेगा न? अब कोई भणा-गुणा यहां आकर जीजा के साथ खेत में तो नहीं खपेगा?
-मामा की बात तो सही है। धारावाहिकों में छोरे या तो कारखाने के मालिक हैं,मैनेजर हैं या इतने पैसे वाले हैं कि कुछ करते ही नहीं। पवित्रा ने मन-ही-मन खुद से कहा-सच में मामा ने किसी धारावाहिक वाले छोरे से बात पक्की कर दी,तो वह ऐसे घर में कैसे रहेगा?
फिर वह सोचने लगी-धारावाहिक में किस-किसके लिए लड़की ढूंढ़ी जा रही है? उसे कोई याद आता,तो वह मन-ही-मन उसके साथ अपनी जोड़ी बनाकर देखती। जोड़ी न बनती,तो मन में यह भी आता-किसकी आपस में नहीं पट रही है,या किसकी जोड़ी कैसे तोड़ी जा सकती है,जिससे अपनी जोड़ी बन सके। पवित्रा इसी में उलझ गई थी।
भाई मदन की बात बहन पारबती को भी सुहाती लग रही थी, इसलिए उसने मदन से ही पूछा-तो फिर र्कइं करां बीर,तू ही बता।
-जाजी के राजी कर लो,जमीन के छाती पर बांध कर तो ले न जानी है। मदन ने हल सुझाते कहा।
तभी पवित्रा,पारबती और टुल्लर ने देखा। सेरी में बैलगाड़ी थुबी। रोज की जगह से थोड़ी पीछे थुबी थी,क्योंकि रोज की जगह पर टुल्लर की कार थुबी थी। पवित्रा उठी और बैलगाड़ी में से निराव उतरवाने चली गई। पारबती चाय का पानी चढ़ाने चली गई। डूंगा ने हाथ में पकड़ी रास को गाड़ी के जुए के ऊपर से बैलों के सामने फेंका। फिर जुए के ऊपर से ही वह भी उतरा। समेले में से जोत के आंटे खोल बैलों के गलों को मुक्त किया। गाड़ी की ऊद पकड़ ऊपर उठाई और बैलों को टचकारा तो वे इधर-उधर हट गएl गाड़ी की डंई को जमीन पर टिकाया और बैलों को कोठे में बांधने ले गया। इस बीच उसने दो बार आंगन में बैठे टुल्लर की ओर देखा,पर मदन भीतर की बाजू बैठा था,तो दिखा नहीं और किसी ओर को वह जानता नहीं था। फिर भी घर आए पावणों से उसने औपचारिक राम-राम बैलगाड़ी थोबती बखत ही कर ली थी। डूंगा ने कोठे में बैल बांधने के बाद पवित्रा से पावणों के बारे में पूछ लिया था,इसलिए जब वह आंगन में आया,तो चेहरे पर पावणों से बेओलखान (अपरिचय) का भाव नहीं था।
टुल्लर खाट पर बैठा,आपस में खुसुर-फुसुर कर रहा था। एक दो ने चलने के लिए कहा। मदन ने समझाया-जीजा अभी आए हैं,उनसे मिले बगैर कैसे चलें। उनसे भी दो बात करना पड़ेगी।
वह डूंगा से मुखातिब हो बोला-कर्इं जीजा,मजे में हो?
-हां,मजा में ही है। गेहूं बो दिया है,सरी बांध रहा हूं। डूंगा ने खेत पर कर रहे काम के बारे में बताया था।
-जीजा आप भी इस उमर में खेत में खटते रहते हो। वह गरदन हिलाता ऐसे उपेक्षित भाव से बोला,मानो खेत में खटना बहुत बुरा काम है।
-किरसान का बेटा खेत में खटता नी,अपने मन से जुटता है। डूंगा बोल रहा था-अपनी धरती मां की गोदी में खेलता है।
-हां,ठीक है,ये सब मन समझाने की बात है। मदन ने कहा- खेत बेच रहे हो तो बताओ,इस बार बम्बई की भोत जबरी पार्टी है। मन हो,तो बात करूं?
-मदन,जिको मन जी का दूध से नी भरयो,जी का खून पीना से,गोश्त खाना से कैसे भरेगो? यह कहते हुए डूंगा का गला भर आया,पर कुछ नहीं बोला। पारबती ने चाय दे दी,तो नीची घोग (गरदन) से चाय को फूंककर ठंडी कर रहा था। अभी उसने एक घूंट सुड़की थी कि,वहीं खड़ी पारबती बोली-और कर्इं पूरी उमर तो बीत गई,गारो खोदते-खोदते। ढंग की एक लुगड़ी भी नी ला सके। बुढ़ापा में तो गार के सुधार लो!
पारबती की बात से डूंगा तिलमिला उठा। चाय पिघला लोहा बन गई और भीतर तक फफोले पाड़ती गई। ढंग का एक ही तो सपना था डूंगा का,जिसकी खातिर उसने कितने श्याले,उनाले और बरसात लट्ठे की फतवी में काट दिए थे। उस क्षण उसे लगा-उसकी मेहनत पर पारबती का भरोसा पोला था,जो मदन द्वारा फेंके लालच की मार से पिचक गया। उसे लुगड़ी खरीदने के लिए उस जमीन को बेचने का कहा जा रहा,जिसे उसकी जी और दायजी ने उसे सौंपी थी। जिसके गारे में जी-दायजी की उम्र भर का पसीना मिला हुआ था। उसने चाय पीकर खत्म की और पीछे खिसककर भीत के सहारे टिक गया था,चुप। उसके मगज में चल रहा था-इस बार आधी सोयाबीन बांझ रह गई। आधी का पानी की ताण के कारण दाना छोटा रह गया। ई-चौपाल वाले ने खरीदी नहीं। कस्बे में बाण्या को बेची,उसमें गेहूं के लिए खाद और टेमपरेरी बिजली कनेक्षन लिया। बरसात चकमा न देती,तो पारबती को तो इसी बरस एक लुगड़ी ला देता। पारबती ने जो ताना दिया,वह तो कभी संपत काकी ने भी न दिया। पारबती के सिर पर एक लुगड़ी आ जाती,तो मदन की बातें उसे न भरमा पाती।
-बीस लाख रुपए बीघा तक दे सकते हैं। सोचो,दस बीघा का कितरा रुपया होगा। मदन ने डूंगा की ओर देखते कहा और फिर पारबती की ओर देखते हुए बात खत्म की-वारा न्यारा हुई जायेगा। चाहो तो लुगड़ी बनाने का कारखाना खोल लेना। सौ-दो सौ लुगड़ी रोज बांटोगे,तो भी कम नी पड़ेगी।
-और क्या? कारखाने को संभालने के लिए मामा धारावहिक के किसी हीरो को राजी कर लेंगे। पवित्रा मन-ही-मन बुदबुदाई और डूंगा की ओर यूं देखा,मानो उसकी आंखें कह रही हो-हां कह दो? पर डूंगा तो जैसे बहरा हो गया। मदन की बात न सुन पा रहा,न समझ पा रहा। हालांकि,मदन और उसके साथियों ने,और भी कुछ बातें सुझाई। मसलन-अभी बेचने का मन न हो,तो मत बेचो। बीस-तीस लाख रुपए बम्बई की पार्टी से यूं ही दिलवा देते हैं,घर बनवा लो। पवित्रा को परना दो और आराम से बैठे-बैठे बुढ़ापे का मजा लो। बस, एक छोटा-सा एग्रीमेंट करना होगा-जब भी बेचोगे,उसी पार्टी को बेचोगे,जिससे पइसे दिलवाएंगे।
डूंगा हां-ना कुछ नहीं बोला। वैसा ही बैठा रहा,बाहर गुमसुम पर भीतर खदबदाता।
खाट पर बैठा टुल्लर जाने को उठा। कोई और पावणा होता, तो डूंगा कहता-और आवजो,लेकिन जब वह टुल्लर जाने को उठा,तो उसके साथ डूंगा भी उठा। वह सेरी में खड़ी कार तक साथ-साथ गया,उन्हें हाथ जोड़ बिदा करता मन-ही-मन बुदबुदाया-म्हारो पिंड छोड़ दी जो।
मदन के जाने के बाद पारबती ने फिर से चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा दिया। वह उसी वक्त समझ गई थी कि,डूंगा की चाय का स्वाद बिगड़ गया है। तभी से डूंगा गुमसुम भी था। चाय के पानी में पत्ती-शक्कर और दूध मिलाने के बाद, उसने चाय की जिम्मेदारी पवित्रा को दे दी। डूंगा सेरी में खड़ा डूबते सूरज की ओर देख कर,शायद अंदाजा लगा रहा-आरती में कितनी देर बाकी है। पारबती ने डूंगा की खाट को लाकर सेरी में ढाल दी। सिरहाने तकिया भी धर दिया।
डूंगा बुरी तरह थका-मांदा-सा खाट पर बैठा। पैरों से पनहीं निकाल दी। धोती की कांछ ऊपर चढ़ा ली। दोनों पैरों को उठाकर खाट पर रखा और फिर आड़ा पड़ गया। तकिए पर सिर रखा और आंखें आसमान में टिका दी। सूरज डूबने के बाद की लाली पर सांझ की श्याम रंगी झीनी लुगड़ी अभी पूरी तरह फरफराई भी नहीं थी कि,गांव के छोरों का एक टुल्लर आया,तो डूंगा उठकर बैठ गया।
सभी छोरे गांव के ही थे। सभी अधकचरे पढ़े-लिखे थे। उनके बाप-दादा की जमीनें बिक गई थी। उनमें से एक के बाप ने तो बाहर दूर गांव,जहां की जमीन गारे की थी,यहां की जमीन की तरह सोने की नहीं,वहां जमीन खरीद ली थी। जमीन पर हाली छोड़ दिए थे। बीच-बीच में जाकर देख आते थे। फसल अवेर लेते थे। इस गांव में बाप के पास ताश पत्ते खेलने के अलावा कोई खास काम नहीं था। बेटा लोगों की जमीन बिकवाता,गांव की बहू-बेटियों को ताकता। उसका अपने सरीके पांच-सात छोरों का एक टुल्लर था। गांव में यही इकलौता टुल्लर था,ऐसा हरगिज नहीं था। टुल्लर तो और भी थे,पर उनके भीतर लाज और गांवदीपन अभी बचा था। अभी वे बुजुर्गों से आंख मिलाते या उन्हें धमकाते झिझकते थे,लेकिन ये टुल्लर बिन्दास और पॉवरफुल था।
इसी टुल्लर की महरबानी से डॅूंगा के घर की मगरी पर तीन तरह के खापरे थे,यानी देशी नलिए,देशी खापरे तो पुराने ही डले हुए थे,लेकिन जब इस टुल्लर का मन दगड़्या चौदस मनाने का होता,मना लेता। टुल्लर तो पत्थर को आसमान की ओर उछालता। पत्थर ही हवा और अंधेरे की मदद से डूंगा के घर के ऊपर जाता। खपरेलों पर वहां गिरता,जहां नीचे पवित्रा सोई होती,लेकिन कवेलू,खापरा और नलिया डूंगा के मगज में टूटता। जहां-जहां का खापरा,नलिया टूटता,वहां-वहां डूंगा अंग्रेजी कवेलू लगा देता। टुल्लर ऐसा हर उस घर पर नहीं करता,जिसमें जवान छोरी रहती। उस घर के साथ करता,जो टुल्लर की लाई पार्टी के साथ सौदा नहीं करता।
डूंगा को सबसे पहले इसी टुल्लर ने ऑफर दिया था कि,खेत बेच दे। दस लाख रुपए बीघा के हिसाब से बिकवा रहे थे तब, पर नहीं बेचा,तो नहीं बेचा। उस वक्त रामा बा जैसा कोई मामला फंसा नहीं था,लेकिन तभी से उन्होंने दगड़्या चौदस मनाने का काम जारी रखा था,ताकी डूंगा भूले नहीं। गांव के सभी टुल्लरों के बीच थाना-कचहरी आने-जाने में इसी टुल्लर का नाम सबसे ऊपर था। अगर उसकी लाई पार्टी के साथ किसी ने सौदा नहीं किया,तो फिर कोई खां हो,उनकी सहमति के बगैर उस जमीन को बिकवा नहीं सकता। यह ऐसा अलिखित समझौता था,जिसके विरूद्ध कभी कोई नहीं गया था।
डूंगा ऐसे समय और महान देश के गांव का किसान था, जिसमें डूंगा तो क्या? उसके जैसे गांव के किसी भी रामा बा या सामान्य किसान का पेट भरने के अलावा कोई सपना देखना और मेहनत की फसल बेचकर जीते-जी सपना पूरा करने का सोचना गुनाह से कम न था। ऐसा करने का मतलब सरकार और उसकी नीतियों की खुल्लम-खुल्ला तौहीन करना था। हालांकि,सरकार इतनी गेली नहीं थी,न उसकी नीतियां इतनी ढीली-ढाली थी कि डूंगा जैसे धोती छाप लोग अपने सपनों को पूरा कर लेते। सरकार ने बहुत ही विकसित और ताकतवर देशों की सरकारों की मंशानुसार जो नीतियां बनाई थीं,उन्हें समझना डूंगा जैसे धोती छाप गांवदियों के बस का तो था ही नहीं,लेकिन सरकार के भीतर-बाहर बुद्धि की खाने वालों का दावा करने वालों के लिए भी,बगैर चन्द्रायन के चांद पर जाने का सपना देखने जैसा था।
ऐसी बखत में डूंगा का एक मनपसंद लुगड़ी का सपना। पारबती का बूढ़ी हड्डियों को आराम और जवान छोरी को परनाने का सपना। पवित्रा की आंखों में अच्छे घर और दूल्हे का सपना। सपना कोई बुरी बात नहीं,लेकिन जीते-जी पूरे करने की जिद। मेहनत की फसल से पूरे करने की अड़। ये सरकार की नजर में क्या था नहीं पता,पर गांव के टुल्लर की नजर में यह एक गेलचौदापना था। उसके मगज में कोई उलझाव नहीं था। जब टुल्लर के सामने डूंगा और उसके परिवार के सपनों की पोल खुली थी,कई मुंह से हंसते-हंसते टुल्लर के कई पेट में बल पड़ गए। फिर टुल्लर में से ही एक मुंह ने अपनी हंसी को काबू में करके यह राज खोला-डूंगा जमीन को बेचे बगैर सपना पूरा करना चाहता है।
तब अचानक सारे मुंह की हंसी थम गई। टुल्लर के लीडर के भेजे में एक गर्म सुई धंस गई। एक क्षण को सन्नाटे की तूती बोल गई,लेकिन दूसरे क्षण…l
-टुल्लर का लीडर अंगुलियों के बीच सुलगती आधी सिगरेट को पटक एडिडॉस के जूते से मसलता बोला-अपना गांव में रामा बा जैसे हुड़क चुल्लुओं की कमी नी है…
सांझ का वक्त था,उस सांझ सरपंच ने पंचायत भवन में टुल्लर,हल्के के पटवारी और क्षेत्र के थानेदार का खाना-पीना रखा था। खाना-पीना रखने की कोई खास वजह नहीं थी,बस, उस सांझ सरपंच का टर्न था। जब टुल्लर को यह भनक लगी कि,चौधरी बाखल का टुल्लर डूंगा की जमीन की फिराक में है। उसने डूंगा के साले मदन को पटाकर अपने साथ जोड़ लिया है,और डूंगा के साथ एक बैठक कर ली है,तो उनका सुलग उठना जायज ही था। टुल्लर के लीडर ने सरपंच के टुनटुने (मोबाइल) पर अपने टुनटुने के मार्फत बता दिया कि खाना-पीना नौ बजे के बाद,और टुल्लर सीधे पहुंच गया था डूंगा की सेरी में।
टुल्लर में एक लंबी नाक वाला छोरा था। करीब अट्ठाइस- उनतीस साल का। उसकी आंखों की पुतलियां गहरी काली,भौंहे चौड़ी। सिर के बाल घने,गहरे काले और चेहरे का रंग साफ था। वह टुल्लर की सेकण्ड लाइन का लीडर था। डूंगा के ठीक सामने बैठा था। वह बोल कुछ नहीं रहा था। बस,एक-एक,दो-दो मिनिट के अन्तराल पर डूंगा को घूरता। फिर उधर देखता,जहां आंगन में बैठी पवित्रा रात को रांधने के लिए,दरांती से आल काट रही थी। टुल्लर की पहली लाइन का लीडर डूंगा की बाजू में बैठा। दिखने में शरीफ गाय का गोना। डूंगा को टेकल करने के अंदाज में समझा रहा-रामा बा बनने की खुजाल क्यों मची है?
डूंगा के सामने वह सब पसर गया,जो रामा बा के साथ दो साल पहले घटा था। रामा बा,डूंगा की ही बाखल में रहने वाला बूढ़ा,और दो जवान छोरियों का बाप। उसकी पहली छोरी पवित्रा से दो-तीन साल बड़ी,दूसरी पवित्रा की ही दई (उम्र) की। वह डोलग्यारस का दिन था। पूरा गांव मंदिर सामने के चौक में था,और डोल को सजा-धजाकर तलाई पर ले जा रहे थे। वहीं से बड़ी छोरी अलोप हो गई। आठ-दस दिन तो पता ही नहीं चला,छोरी कहां रही,उसके साथ क्या-क्या हुआ?
एक रात जब उसी चौक में वह पड़ी मिली,तो लोगों ने कहा –इससे तो अच्छा होता कि मर जाती। न उसे खाने की सुध, न पीने की। छोटी बहन और उसकी मां जोर-जबरदस्ती से कपड़े पहना देती,तो वह उतारकर फेंक देती। फिर किसी पहलवान की तरह अपनी जांघ को ठोंकती। टुल्लर के लीडर का,उसके साथियों का,सरपंच का,थानेदार का,पटवारी का एक-एक का नाम पुकार कर चुनौती देतीl
दो साल से वह रामा बा के घर की एक अंधेरी ओड़ली में बंद है,पर रामा बा के घर के अलावा कोई नहीं जानता-वह जिन्दा है कि मर गई। छोटी छोरी पवित्रा की तरह जवान हो गई,पर उसके लिए न कोई रिश्ता आता,न कोई लाता। कोई भूला भटका आ जाता,तो उसे टुल्लर का कोई-न-कोई छोरा मिल जाता और उलटे पांव भगा देता। टुल्लर ने ये अघोषित ऐलान किया हुआ था-रामा बा की छोटी छोरी उनकी प्रॉपर्टी है,जिसका उपयोग वे जब चाहे,तब मिल-बांटकर करते हैं।
यह सब,क्यों सहा रामा बा ने? क्या रामा बा को अपनी छोरियों से ज्यादा जमीन प्यारी थी?
क्या गजब गुनाह था रामा बा का भी। उनका खेत सड़क किनारे था और शहर के एक सेठ को पसन्द आ गया था। उसे पेट्रोल पम्प डालने के लिए,रामा बा के खेत से मुफीद जगह दुनिया में कहीं नहीं मिली थी। सेठ टुल्लर से मिला। टुल्लर के पहली लाइन के लीडर ने सेठ को खेत दिलवाने की जबान दे दी,और दिलवा भी दिया,लेकिन न बेचने और बेचने के बीच,रामा बा और उसके परिवार के साथ जो कुछ हुआ था वह,बल्कि पिछले दस-पंद्रह बरसों से सड़क किनारे के गांवों में रामा बाओं के साथ जो कुछ घट रहा था। किसी की फसल में आग लग जाती। कोई फसल बेच कर लौटता,तो रास्ते में रकम लुटा जाती। रास्ते से बच आता,तो घर में से चोरी हो जाती। ऐसी हर एक बात का तार टुल्लर की तरफ जाता दिखता,पर कोई तार को पकड़ टुल्लर की ओर कदम बढ़ाता, तो कुछ कदम के बाद ही वह तार को गला पाता। फिर वहां से आगे कुछ नजर न आता।
उन दिनों ए.बी. रोड किनारे के हर गांव में टुल्लर,रामा बा और डूंगा की संख्या में बढ़ोत्री हो रही थी। यह बढ़ोत्री तरक्की की झकाझक पोशाक पहनकर इतराती थी। उस सांझ टुल्लर की पहली लाइन के लीडर की बातों से डूंगा को सबकुछ समझ में आ गया था। इस कदर साफ-सुथरा और पारदर्शी समझ में आया था कि,आंखें समझ को छुपा न सकी। कुछ बूंद समझ चू ही गई।
टुल्लर के जाने के बाद,पारबती हाथ में चाय से भरे कप-बशी लेकर आ गई थी। डूंगा ने कांपते हाथों से कप-बशी को पकड़ा। आधा कप चाय बशी में उड़ेली और धूजते होंठों से फूंक मारता चाय ठंडी करने लगा। दो फूंक के बाद ही चाय सुड़क ली,तो इस्सऽऽ कर उठा। जीभ से निचले होंठ की भीतरी सतह को छूकर महसूस किया-जीभ की नुक्खी और निचले होंठ की भीतरी बाजू में सरसों के दाने के बरोबर के छाले उपक आए हैं।
पारबती,जो चाय का कप-बशी पकड़ाकर अपने घर के बाहर ओटली पर बैठी संपत काकी और सेरी में कार को कपड़ा पहनाते किशोर को देख रही थी। शायद उसके मन में चल रहा था-जल्दी ही उसके घर सामने भी एक कार खड़ी होगी। पवित्रा का लाड़ा कार को कपड़ा पहनाएगा। डूंगा और वह खाट पर बैठे-बैठे देखेंगे।
तभी डूंगा की लंबी इस्स से उसका ध्यान टूटा। वह बोली- जरा धीरपय से फूंकी-फूंकी के पियो,चाय कप-बशी से न्हाटी (भागी) जई री है कर्इं?
डूंगा के होंठ और जीभ जलने से आंखों में जलजले आ गए थे। उसने पारबती की ओर देखा,पर बोला कुछ नहीं। सोचा- काश उसकी आंखों में आए जलजले के पीछे पारबती झांक पाती,तो समझती-आंखों में पानी जीभ और होंठ के जलने से हैं या किसी बेबसी से है? वह फिर से फूंक-फूंककर चाय पीने लगा,पर उसे अब ठंडी चाय भी गरम जैसी ही लग रही थी, क्योंकि उसने पारबती के मन में सरबलाती हसरत को भांप लिया था।
चाय खत्म हुई। डूंगा ने खाली कप-बशी पारबती को पकड़ाए। वह कप-बशी लेकर घर तरफ बढ़ी कि,उसने देखा-किशोर और संपत काकी डूंगा की खाट तरफ आ रहे हैं,तो वह रुक गई। काकी और किशोर को नजदीक आते देख,डूंगा बोला-आ काकी बैठ।
काकी और किशोर खाट पर बैठ गए। तब पारबती ने काकी और किशोर की ओर देख,पूछा-चाय लाऊं?
किशोर ने तो गरदन हिलाकर नकारा कर दिया और काकी बोली-अरे अग्गी बाल चाय के,आधो कप भी पी लूं,तो पेट फुगी के ढोल हुई जाए।
पारबती धीमे से मुस्कुराती खाट के पास आ गई। खाट के पास सेरी में नीचे ही बैठ गई। टीवी में धारावाहिक भी समाप्त हो गया था,तो पवित्रा भी आकर पारबती की बगल में बैठ गई थी।
-का रे डूंगा,इ छोराना कुण था? काकी ने सीधे काम की बात पूछी थी,क्योंकि जब टुल्लर आया था,तब भी काकी वहीं बैठी थी। किशोर नहीं था,वह थोड़ी देर पहले ही आया था।
डूंगा ने सोचा,कह दे,ऐसे ही मिलने वाले थे। वह काकी को सच बता भी देगा,तो काकी उनका क्या कर लेगी? पर दूसरे ही क्षण डूंगा को लगा-वह काकी को झूठ बताकर भी टुल्लर का क्या बिगाड़ लेगा? काकी के किशोर ने तो अभी ही जमीन का बयाना लिया है,तो हो सकता है,वे कुछ उपाय सुझा दे? उसने टुल्लर के बारे में सही-सही बताया। कौन-कौन थे और क्या-क्या बोल रहे थे।
पारबती ने वह सब सुना,तो धड़कन बढ़ गई,लेकिन वह डूंगा को हिम्मत बन्धाती बोली-डरने की बात नी,म्हारो भई मदन सब ठीक कर देइगो,पर जब उसे डूंगा ने बताया कि मदन भी ऐसे ही टुल्लर का साथी है,तो फिर वह चुप हो गई।
वहीं बैठे किशोर के सामने अपनी जमीन का सौदा करते वक्त आई आफतें तैर गई। काकी को भी वह सब याद आ गया-कैसे किशोर को घापे में लेकर जमीन का बयाना पकड़ाया,कैसे सौदा चिट्ठी बनवाई! शुरूआत में किशोर ने सख्ती से जमीन बेचने से मना कर दिया,तो उसके साथ क्या हुआ?
काकी ने अपनी बूढ़ी और लरजती आवाज में कहा-देख,म्हारी बात कान धर। जितरी जल्दी हुई सके,पवित्री का हाथ पीला कर दे। कोई भी जमीन का बारा में पूछे,तो बस,यूंज बोल- छोरी के परना देने का बाद योज करनो है।
-हां,इनको कोई भरोसो नी। अपने तो रात-बेरात पाणत करने भी आनो-जानो पड़े। किशोर ने कहा था।
पाणत करने ही तो गया था किशोर उस रात। यूं कहने को तो उस रात टुल्लर ने किशोर को एक झापट भी नहीं मारी। जब वह पाणत कर रहा था टुल्लर के पांच-सात छोरे पहुंचे। उसके सारे कपड़े उतार दिए। हाथ-पांव बांध के पानी के पाट में पटक दिया। सवेरा होते-होते किशोर राजी हो गया था।
जब सवेरे घर आया,काकी को बताया। काकी ने कहा-जान से प्यारो नी है खेत,बेच दे।
फिर टुल्लर ने जहां कहा,वहां अपना नाम लिख दिया। सात लाख रुपए बयाना पेटे ले लिए,जिसमें से एक लाख दलालों ने रख लिए थे। बाकी की रकम छः महीने में देगें,न देने पर सौदा रद्द माना जाएगा। किशोर ने पांच लाख की एक कार खरीद ली। बाकी रकम मिलने पर,कहीं सड़क से दूर गांव में जमीन भी लेगा,घर बनवाएगा।
टुल्लर डूंगा की भी ऐसी ही कोई नस दबाना चाह रहा था। हो-होकर मजाक उड़ाना,पी-खाकर कवेलू पर पत्थर फेंकना, जैसे टुल्लर के प्रयोग पुराने और असफल हो गए थे,लेकिन टुल्लर को टेन्शन नहीं थी। वह जानता था-डूंगा जमीन को फतवी की जेब में रखकर कहीं भाग नहीं सकता। टुल्लर की सहमति के बगैर कोई दलाल बिकवा नहीं सकता। फिर भी बीच-बीच में टुल्लर छोटे-मोटे प्रयोग करता रहता,ताकि लोगों को लगे-वे सब मेहनत भी करते हैं।
ऐसे ही टुल्लर ने धुलेण्डी की रात में एकदम ताजा प्रयोग आजमाने का मन बनाया। हालांकि,प्रयोग पर टुल्लर में सांझ को ही बातचीत हुई थी। टुल्लर की दोपहर बाद से पंचायत भवन में पार्टी-शार्टी चल रही थी। जब पार्टी खत्म होने को आई,तब नए प्रयोग का आइडिया आ गया। फिर बातचीत में तय हो गया-रात में ही प्रयोग कर लिया जाए। प्रयोग में डूंगा का सोना जरूरी था। डूंगा के सोने के टेम तक पार्टी को जारी रखना था। फिर हुआ ये कि पार्टी नए सिरे से शुरू हुई।
टुल्लर के लीडर ने खुश होकर दो बोतल और खुलवा दी।
लीडर ने टुल्लर के एक छोरे से कहा-सरपंच साब की कार लेकर जा और प्रॉपर्टी को बैठा ला।
जाने से पहले छोरे के मन में पवित्रा का खयाल आया। उसने लीडर को पवित्रा का ध्यान दिलाया-भइया,डूंग्या का घर में भी तो गद्दर तोतापरी है!
लीडर ने कहा-अबी नी,अबी जा,जीतरो बोल्ये उतरो कर।
छोरा चला गया। लंबी नाक वाले की तरफ लीडर ने भौंहें उछाली,जैसे पूछा-कोई कमी तो नहीं। उसने दोनों हाथ और चेहरे के भाव से ऐसे बताया कि,तृप्त हो गया। तब लीडर बोला-तो तू प्रयोग की प्रॉपर्टी का बंदोबस्त कर ले।
लंबी नाक वाला एक पोलीथिन लेकर पंचायत भवन से बाहर निकला। पंचायत भवन ए.बी. रोड के किनारे नया-नया ही बना था। रोड और खास गांव के बीच में लंबा-चौड़ा कांकड़ था। कांकड़ पर ज्यादातर बलाई,चमार और भंगी रहते थे और टॉयलेट तो गांव में पटेलों-चौधरियों के भी पुराने घरों में नहीं थे। फिर कांकड़ वालों की झोंपड़ियों में तो टॉयलेट का सवाल ही नहीं। कांकड़ के लोग,रोड से थोड़ी दूरी पर,रोड के समानन्तर खुदी खन्ती में ही फारिग हुआ करते थे।
लंबी नाक वाला एक मेहतर की झोपड़ी पर गया। मेहतर तो था नहीं,उसका तेरह-चौदह बरस का छोरा मिला। लंबी नाक वाले ने उसी को पोलीथिन पकड़ाई और छोरे से कहा-खन्ती में जा और इके गू से आधी भरी ला।
फिर पंचायत भवन के बाहर रखी पानी की टंकी की तरफ इशारा करता बोला-पानी ली ने उके घोल दीजे। फिर पन्नी का मुन्डो बान्धी ने दीवाल से टिकइन धरी दीजे।
छोरे का बाप भी होता,तो मना करने का तो सवाल ही नहीं था। थोड़ी देर में छोरा घोल बनाकर रख गया। तब तक गांव में से कार में प्रॉपर्टी भी ले आई गई थी। फिर देर रात तक उनकी मौज-मस्ती चली। प्रॉपर्टी को वापस छोड़ा। फिर सब चले प्रयोग करने।
डूंगा के घर से थोड़ी दूर इमली के नीचे कार और जीप रोकी। पहले गाड़ी में से ही देखा-दूर से उन्हें भी डूंगा,खाट पर पड़े डूंड की तरह ही नजर आया। खाट के नीचे कबरा जगकर सतर्क हो गया था। लंबी नाक वाले से लीडर ने पूछा-भई थारा प्रयोग में टेगड़ा को कईं बंदोबस्त है?
लंबी नाक वाला बोला-पूरो बंदोबस्त है। वह एक छोटी पन्नी में हड्डियां दिखाता-इ इका सरू तो भेली करी रियो थो।
लीडर ने कहा-आज तो थारी खोपड़ी के मानी ग्यो यार।
दो जने गाड़ी से नीचे उतरे। एक ने घोल की पोलीथिन पकड़ी,दूसरे ने हड्डियों की और डूंगा की खाट तरफ बढ़े। कबरा देख रहा था। सतर्क था,पर भौंक नहीं रहा था। चूंकि, डूंगा के घर सामने से रास्ता था। कोई-न-कोई आता-जाता रहता। कबरा हर किसी पर न भौंकता। वह तब भौंकता,जब उसे भरोसा हो जाता-कोई ओगला आदमी उसकी तरफ आ रहा है।
लंबी नाक वाले ने दूर से ही उसकी तरफ हड्डी का टुकड़ा फेंका। कबरा टुकड़े के पास गया। हड्डी की गंध से उसका मुंह लार से भर गया। वह करड़-करड़ चबाने लगा। फिर लंबी नाक वाले ने पूरी पोलीथिन उसके पास रख दी,कबरा गदगद…।
लंबी नाक वाले के साथ वाला खाट की ओर बढ़ता गया। खाट पर करवटे सोए डूंगा के पीछे पोलीथिन धरी। उसमें ब्लेड से एक चीरा लगाया। पोलीथिन में से घोल बाहर निकलने लगा। यहीं से टुल्लर बिखरा। सब अपने-अपने घर जाकर आराम करने लगे।
डूंगा इस प्रयोग से दुखी हुआ,चिन्तित भी हुआ,पर जमीन बेचने को राजी न हुआ। तब टुल्लर को लगा-डूंगा है मरियल, पर है बड़ा चामठा। जब तक सूखेगा नहीं,टूटेगा नहीं। कुछ नया प्रयोग करना पड़ेगा।
टुल्लर कल्पनाशील तो था ही। कुछ ही महीनों बाद देव उठनी ग्यारस पर गांव के खाती पटेल के यहां बारात आई। बारात में दो बस,तीन-चार कार,जीप भरकर लोग,एक मेटाडोर में बैंड-बाजा,एक में दूल्हे की घोड़ी,कार की डिक्की में शराब की पेटी,आदि-आदि। कहने का मतलब-पूरे तामझाम के साथ पधारी थी बारात।
डूंगा ने किसी खाती पटेल की ऐसी बारात पहले कभी नहीं देखी थी,लेकिन जबसे खातियों की जमीनें बिकने लगी थीं, ऐसी बारातें अक्सर देखने को मिलती थी। पहले तो खाती पटेल शराब और मांस को चोरी-छिपे भी नहीं छूते थे। अगर कोई खाता-पीता तो बच्चों की सगाई-शादी नहीं होती। पहले से हुई होती तो टूट जाती,पर अब खातियों की युवा पीढ़ी में खाने-पीने का ही नहीं,औरतबाजी का शौक भी बढ़ गया।
उस रात बारात डूंगा के घर सामने इमली के पेड़ के नीचे थी। बैंड-बाजा बज रहा था,छोरे नाच रहे थे,पीने वाले डिस्पोजल में पी रहे थे। पटाखे छोड़ने वाले पटाखे छोड़ रहे थे। तभी अचानक टुल्लर को एक ऐतिहासिक आइडिया आया। उसने तुरंत ही पटाखे वाले से डिब्बानुमा पटाखा लिया। यह ऐसा पटाखा था,जिसे एक बार सुलगाव तो उसमें से दस-बारह पटाखे निकलते। ऊपर आसमान में जाकर फूटते,लाल,नीली और पीली रोशनी के फूल बिखेरते।
वह रात आरती के बाद का वक्त था। उस रात डूंगा के घर में खाना नहीं बना था,क्योंकि पटेल बा के यहां से साकुट्म्या निमंत्रण था,सो सभी सांझ को जीम आए थे। सर्दी थी इसलिए डूंगा की खाट भी ओसारी में ढली थी। पारबती बारात को अपने घर तरफ आने का सपना देखती खाट पर बैठी थी। पवित्रा घोड़ी पर बैठे दूल्हे को टी.वी. से बाहर निकल आया हीरो समझती देख रही थी। डूंगा खाट पर लेटा-लेटा बैंड-बाजा सुन रहा था। उसके मगज में अपनी बारात का दृश्य चल रहा था। उसकी बारात में न बैंड-बाजा था,न पटाखे थे,न घोड़ी। बस,बैलगाड़ी से बारात गई थी और पारबती को बैठा लाए थे। उसने खुद से पूछा-कितरी फसल का पइसा फूंका जाता होगा,इनी तोबगी में?
खुद ही ने जवाब दिया-फसल का होता तो नी फूंकता,इ तो जमीन का पइसा हैं,असज बंगे लगेगा।
जब डूंगा का खुद से सवाल-जवाब चल रहा था,तभी उसकी ओसारी में ढेर सारे पटाखे वाला डिब्बा आकर गिरा। उसमें एक-एक पटाखा राकेट की तरह बाहर निकलता। डिब्बा आड़ा पड़ा था,उसमें से पटाखे भी आड़े-तिरछे ही निकलते। कोई दीवार से टकराकर फूटता। कोई डूंगा की धोती में घुसने की कोशिश करता,कोई पारबती की घाघरी में,कभी पवित्रा की तरफ लाल,नीली,पीली रोशनी के फूल बिखरते,कभी पारबती और डूंगा की तरफ। कभी पवित्रा की चीख निकलती,कभी पारबती की। डूंगा के घर की ओसारी,ओसारी नहीं जैसे इरान थी। थोड़ी देर में धुआं ही धुआं भर गया था,न कुछ देखते बनता,न सांस लेते बनता। डूंगा समझ गया था-यह अनायास नहीं है। टुल्लर का ही नया प्रयोग है।
उसके बाद जब भी बारात आती। डूंगा परिवार सहित घर के भीतर बंद हो जाता। ओसारी में मिसाइलें दग चुकी होतीं। बारात घर सामने से आगे बढ़ जाती,तब किवाड़ खोलता ओर ओसारी के आंगन की साफ-सफाई करते।
टुल्लर ने पिछले डेढ़-दो बरस में यह प्रयोग कई बार आजमाया। कुछ नए प्रयोग भी ट्राय किए,पर डूंगा न टूटा। टूटा भले न हो पर डूंगा झटका जरूर गया था। पहले की तुलना में काफी कमजोर हो गया था। चिंता उसे भीतर से घुन की तरह खा रही थी। कभी रामा बा और उसकी छोरियों के साथ हुआ वाकया याद आता। पवित्रा और पारबती की फिक्र सताती,कभी किशोर के बारे में सोचता। खेत पर आते-जाते मन में खुटका रहता। खाट पर सोता,तो कई बार ऐसा होता। आंखों में लुगड़ी के सपने की बजाय,कभी खेत में खड़ी फसल के जलने का सपना आता,कभी रामा बा की बड़ी छोरी की जगह पवित्रा को देखता…l
यह सितम्बर की एक रात थी। डूंगा ओसारी में खाट पर आड़ा पड़ा था। उसकी नजरें ओसारी के चद्दरों में पड़े दोचों पर टिकी थी। दोंचें पटाखों के टकराने और वहीं फूटने से बने थे। देव उठनी ग्यारस कुछ ही दिन दूर थी। उसके मगज में चल रहा था-फिर ब्याह होंगे,फिर बारात आएगी। फिर आंगन में पटाखे का डिब्बा आकर गिरेगा,चद्दरों में फिर दोचें पड़ेंगे। ठंड ज्वार की बुरी की तरह ही काट रही थी,पर वह कांप रहा था। कनपटियों से जैसे पसीने की नहीं,गाढ़े खून की तिरपन रिस रही थी।
तभी शंख की ध्वनि उसे हमेशा की तरह बुलाने आई,लेकिन डूंगा ने ध्वनि का आना,कान में प्रवेश करना,महसूस ही नहीं किया। पारबती घर में चूल्हा-चौका का काम कर रही थी, पवित्रा टीवी के सामने बैठी थी। डूंगा के मगज में देव उठनी ग्यारस के पटाखे फूट रहे थे।
करीब दो-तीन मिनिट से उसकी खाट के पास किशोर आकर खड़ा था। वह डूंगा काका…काका…कहकर उसे उठा रहा था। जब किशोर ने उसे झिंझोड़कर उठाने की कोशिश की,तब तंद्रा टूटी। किशोर ने बताया-डूंगा काका…आज आरती में नी गयो। आज खंजड़ी नी बजावेगो।
डूंगा के पास तो जैसे भीतर कुछ था ही नहीं,जो कहता। किशोर ने ही कहा-काका जा,थारो खेत अभी नी बिकेगो। थारो खेत लेने वाली बम्बई की पार्टी तो डूबी गई।
डूंगा के मन में जैसे कुछ बुलबुले उठे-न बरसात हुई,न बाढ़ आई,पार्टी कैसे डूब गई। कुछ समझ में नहीं आया। वह भौंचक्क किशोर की ओर देखता रहा। किशोर ने जो टीवी में देखा-सुना,वही समझाना चाहा,पर डूंगा ने न कभी दलाल पथ का नाम सुना था,न वॉल स्ट्रीट का,न मंदी का,शेयर मार्केट का…। उसे यह सब एक नाम से ज्यादा कुछ नहीं लगे।
वह जानने की इच्छा में चुप ही रहा। किशोर ने टी.वी. में जो देख-सुनकर समझा था,उसी के आधार पर डूंगा को अथक प्रयास से कुछ समझाना चाहा। डूंगा को इतना ही समझ में आया। कहीं बहुत भयानक बाढ़ आई-मंदी की बाढ़। उधर दलाल पथ और वॉल स्ट्रीट के बीच,शायद बरसात को मंदी कहते होंगे। उसी बाढ़ में बम्बई की पार्टी डूब गई।
उसी पार्टी को टुल्लर ने किशोर का खेत बिकवाया था। वही पार्टी डूंगा का खेत खरीदने की सोच रही थी,पर अब वह डूब गई। उसका किशोर को दिया बयाना डूब गया,क्योंकि लिखा-पढ़ी के मुताबिक छः महीने से ज्यादा का वक्त हो गया था। दुनिया में जिधर देखो उधर से डूब की खबर आ रही थी। न डूंगा को पता,न किशोर को मालूम था।
टुल्लर तो रोज ही शहर के दलालों और भू-माफियाओं के संपर्क में रहता था,सो वह भी सब कुछ जान ही गया था। डूब का हाहाकार पूरी दुनिया में फैला था। ये डूब उनका क्या कुछ डुबाएगी! खेत डुबाएगी या मेहनत डुबाएगी? ,पर डूंगा को किशोर की बातों से इतना समझ में आ गया था-जब तक खेत बचा है,खेती करने की इच्छा बची है। अपनी मेहनत की फसल के दम पर लाल छींटादार लुगड़ी लाने का सपना बचा है। जब तक सपना बचा है,बहुत कुछ बचा है।
उस सांझ शंख की ध्वनि भी जैसे अड़बी पड़ गई थी। जब तक डूंगा मंदिर में नहीं आएगा,वह उसे हांक दे-देकर बुलाती रहेगी। डूंगा में जैसे पूरा करंट लौट आया। वह यूं खटाक से उठा,जैसे पूरी रोशनी के साथ गुलुप भिड़ा। वह और किशोर तेज कदमों से मंदिर में पहुंचे। डूंगा ने चैनल गेट के पास धरी खंजड़ी की ओर देखा,उसे लगा-खंजड़ी उसके इंतजार में बावली हो गई थी। उसके छूते ही यों बोलने लगी-जैसे डूंगा के भीतर जख्मी सदी झूम-झूम कर नाचने लगी।
आरती खत्म होने पर भी डूंगा का खंजड़ी बजाना जारी था। खंजड़ी और किशोर की ताली बजना। रामा बा के पांव के पंजों का ऊपर-नीचे उठना। सबने मिलकर ऐसा समा बंधा था कि,आरती में आए किशोरवय के छोरा-छोरी किलकने लगे थे। पंडित खड़ा-खड़ा देख रहा था। उसे प्रसाद बांटकर जल्दी जाने की चिंता न थी,पर यह तो डूंगा को ही पता था। वह भक्ति में लीन था या अपनी खुशी में डूबा था। उस रात मंदिर में खंजड़ी और ताली ही बज रही थी। हो-हो नहीं थी।
#सत्यनारायण पटेल