सरस्वती के साधक -धर्मवीर भारती

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alok premi
कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ लोग कर्म से महान होते हैं। और कुछ लोगों पर महानता लाद दी जाती है।हिन्दी साहित्य में ‘धर्मवीर भारती’ अपने कर्म से महान हुए थे।इसलिए हिन्दी साहित्य में धर्मवीर भारती का नाम भारत के महानतम साहित्यकारों में आता है।धर्मवीर भारती जी ने साहित्य के लगभग सभी विद्याओं में अपनी सोंचों की वे तमाम खिड़कियाँ खोलीं हैं जिनसे होकर आतीं हवाओं की नमी और वैचारिकी की गुनगुने धूप से हिन्दी लेखन की परवरिश हुई है।
                    25दिसम्बर 1926ई•को चिरंजीव लाल वर्मा तथा चंदा देवी के बगीया से एक ऐसे पुष्प का आगमन हुआ जिसके कलमों ने हिन्दी साहित्य को एक नई दिशा प्रदान कर प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को नई राहें दिखते हुए हिन्दी साहित्य ने एक मीठे स्वादिष्ट फल के रूप में धर्मवीर भारती को प्राप्त किया।हिन्दी के निर्माता नामक किताब में कुमुद शर्मा लिखतीं हैं-“धर्मवीर भारती की साहित्यिक यात्रा उस दौर में हुई जिस दौर में मूल्य करवटें  ले रहे थें।आधुनिक हिन्दी साहित्य में प्रयोगवाद दम-तोड चुका था”।एक तरफ जहाँ प्रयोगवाद दम तोड़ रहा था वही प्रगतिवाद का उदय हो रहा था और इस दोनों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले धर्मवीर भारती थें। एक तरह से प्रयोगवाद और प्रगतिवाद दोनों के बीचों बीच पुल का काम धर्मवीर भारती के द्वारा किया जा रहा था,वही दूसरी तरफ यथार्थवादी और मनोवैज्ञानिक कहानियों की दो अलग-अलग धाराओं को एक करने में भीष्म साहनी,रेणु,राजेंद्र यादव,निर्मल वर्मा,महोन राकेश,शेखर जोशी,कमलेश्वर,कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी,उषा प्रियंवदा आदि कथाकारों के साथ मिलकर धर्मवीर भारती ‘नयी कहानी’ आंदोलन का नीव रखने का सफल प्रयास कर रहें थें।बाद चलकर हिन्दी कहानी में प्रेमचंद युग को छोड़कर शायद सबसे अधिक लोकप्रियता इसी समय प्राप्त हुई। जिसमें धर्मवीर भारती जी का महत्वपूर्ण योगदान है।नयी कहानी का जन्म 1956से माना जाता है।1956में भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में ‘नयी कहानी’ नाम की पत्रिका का एक विशेषांक निकला।इसी विशेषांक के आधार पर अगली कड़ी की कहानियों को नई कहानी के नाम से संबोधित किया जाने लगा।
                साहित्य के लगभग सभी विद्याओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले धर्मवीर भारती का जन्म सूखी-संपन्न समृद्ध जमींदार परिवार में हुआ था।लेकिन भारती जी को इसका कोई फायदा कभी नहीं मिला। यूँ तो भारती जी का जन्म इलाहाबाद के अतरसुईया मुहल्लें में हुआ,पर उनकों अपने गाँव शाहजहाँपुर  जिले के खुदागंज से इस कदर प्यार था कि जब भी मौका मिलता या छुट्टी मिलता तो वे अपने गाँव चले आते थें।और वहा जाकर अपने आप से हर्षित होते थे।गाँव के भव्य कोठी,खेत-खलिहान,बाग बगीचों से वे इस तरह आकर्षित होते थे कि अपने सारे दुखों को भुल जातें थें। साथ ही गाँव से जल्दी वापस नहीं आना चाहते थे।
                       अपने युवा अवस्था में भारत विभाजन की त्रासदी देखने बाले भारती जी को बाल्यावस्था में भी परिवारिक विभाजन देखने को मिला था।जिसमें इनके पिता को पैतृक संपत्ति बंटवारे में ना इनसाफी का सामना करना पड़ा था। इसके बाद भी भारती जी के पिता श्री चिरंजीव लाल वर्मा ने उदारता का परिचय देते हुए दादी से प्राप्त पुराने गहने भी अपने भाईयों की पत्नियों में बाँटने के लिए दादी के पास भिजवा दिया। इस घटना से प्रभावित होकर भारती जी ईमानदारी की राह पर चलने का संकल्प ले लेते हैं और फिर कभी पीछे नहीं हट सकें साथ ही अपने पिता के प्रति उनका आदर्श कई गुणा और बढ़ गया। वे खुद त्यागी साधना पृ•सं•10 पर लिखते हैं “मैने उस दिन दरवाजे पास यह वृत्तांत सुना और पिता का भक्त हो गया। उनके मूल्य,उनकी समझौता विहीन ईमानदारी मेरा आदर्श बन गई।”भारती जी के पिता गाँधी,आजाद और भगत सिंह से प्रभावित थें। जिसका  असर भारती जी पर भी हुआ और सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रुप से कूद पड़े।
                 साहित्य संस्कृति और प्रकृति अगर भारत कहीं एक साथ नजर आता है तो वह इलाहाबाद में,इसे यूं कहा जा सकता है कि गंगा,जमुना,सरस्वती का संगम स्थल इलाहाबाद है तो साहित्य संस्कृत,प्रकृति का संगम स्थल भी इलाहाबाद को माना ही जा सकता है।हिन्दी साहित्य के कई साहित्यकारों का जन्म स्थल और कर्म स्थली इलाहाबाद रहा है। धर्मवीर भारती जी का साहित्य भी यही पर संस्कारित साहित्यकार व भाषा-चिन्तक धीरेन्द्र वर्मा के मार्ग दर्शन में हुआ। जिनके आत्मनिरीक्षण में ‘सिद्ध साहित्य ‘विषय से शोध कार्य पूर्ण करने का सौभाग्य प्राप्त भारती जी को हुआ। इनके प्रतिभा का इसी बात अंदाजा लगाया जा सकता है कि 1945 में जब बी•ए•प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए तो हिन्दी विषय में सर्वाधिक अंक मिलने के कारण भारती जी को ‘चिंतामणि घोष ‘ मेडल से सम्मानित किया गया।
                   धर्मवीर भारती की साहित्यिक पहचान कवि,कहानीकार,उपन्यासकार,नाटककार के रूप में रही है।वे मूलतः कहानीकार के रुप में रुमानियत के कथाकार माने गये,किन्तु समयानुकूल उनकी कहानियों का स्वाद बदलता है और कहानी की रुमानी दुनिया से निकलकर सामाजिक यर्थाथ की दुनिया में  प्रवेश करते हैं। धर्मवीर भारती के कथा-लेखन का सफर’तार और किरण'(1943)से लेकर ‘बन्द गली का आखरी मकान'(1969)तक अनवरत चलता रहा।इस दरम्यान उन्होंने कुल चालीस कहानियाँ लिखीं,जिसमें सैंतीस कहानी संग्रह क्रमशः मुर्दों का गाँव 1946,स्वर्ग और पृथ्वी 1949, चाॅद और टूटे हुए लोग 1955, तथा बंद गली का आखरी मकान 1969,में संकलित है जबकि तीन कहानियां असंकलित/अप्रकाशित हैं।
                         सन् 1950 बाद के हिन्दी कथा साहित्य के बदलते  स्वरूप में  कई ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने कहानी की इस नई जमीन को कल्पना के कुछ सूत्र ढूंढे जा सकते हैं। सामाजिक विषमता पर उनकी ‘कफन चोर’ कहानी में देखीं जा सकती है।’कफन चोर’ कहानी भूख की ज्वलंत समस्या पर आधारित है,’ कफ़न’ जैसी समस्या यहां भी देखने को मिलता है या यूं कहें कि इससे भी कहीं ज्यादा भयानक और खौफनाक।’कफन’ में मृतिका बुधिया के लिए कफन की आवश्यकता होती है, लेकिन  कफन चोर में जीवित सकीना के लिए उसका पिता कफन की चोरी करता है। बदनसीब वृद्ध पिता  (कासिम) ठंड तथा बुखार से तड़प रही बेटी (सकीना) के तन को ढकने के लिए इतना विवश हो जाता है की कफन की चोरी करता है पूरी कहानी में सामाजिक विषमता पाठकों को देखने को मिलता है। इस प्रकार इन के सभी कहानियों को देखा जा सकता है।
                       मानव मस्तिष्क संवेदनशील होता है।साहित्यकार के मस्तिष्क में सुख-दुख की संवेदना और भी अधिक होती है, वह समाज की संकीर्ण गलियों से गुजरता है।वह जो भी देखता है, उसकी संवेदना को सही अभिव्यक्ति देता है,यही अभिव्यक्ति साहित्य है।साहित्य समाज का दर्पण तो है ही,पथ प्रदर्शक भी है।किसी भी राष्ट्र की समृद्धि का मापदंड उसका साहित्य ही है।अपनी संवेदना को कई  रूपों में प्रस्तुत करने वाले धर्मवीर भारती का पत्रकारिता के क्षेत्र में आना कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि उनके साहित्यिक व्यक्तित्व का एक कोना था,जो उभरकर सामने ‘धर्मयुग’ के संपादक के के तौर पर मुंबई से होता है। इनके संपादन कार्य से ‘धर्मयुग’ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ सप्ताहिक पत्रिका के रूप में स्थापित हुआ।जो सन 1987 में धर्मवीर भारती के अवकाश ग्रहण करने तक अनवरत जारी रहा।
                         प्रकृति के नियति खेल को कोई नहीं जान सकता कल तक जो कुछ था वह आज बदला बदला सा लग रहा है । ऐसी ही परिस्थितियां हिंदी साहित्य के सामने 4 सितंबर 1997 को  वह बेगाना मनहूस काली रात देखने को मिला जब सरस्वती के साधक धर्मवीर भारती ने नश्वर शरीर को त्याग कर नियति के कालचक्र में समा गए।
       ” जिंदगी वो खाक जिसका, मौत ही अंजाम है।
 जिंदगी के बाद जीना, जिंदगी का नाम है।”
#आलोक प्रेमी
 
परिचय- 
नाम-आलोक प्रेमी 
पिता-श्री परमानंद प्रेमी 
माता-श्रीमती गोदावरी देवी
स्थाई पता-ग्रा•+पो•-भदरिया 
थाना-अमरपुर 
जिला-बाँका(बिहार)
     813101
शैक्षणिक योग्यता-शोधार्थी नेट (हिन्दी)
अन्य-आकाशवाणी भागलपुर से नियमित रूप से स्वरचित कहानी/कविता/आलेख/वार्ता का प्रसारण। 
शौक-अच्छी किताबें खरीदने की 

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