मेरे अंतस्थल में जो है
संवेदनाओं का ताना-बाना
तुम्हारा ही तो है बुना
मैं तो निपट था अनजाना.
मैं ठिठुरती सर्दी-सा,
था बहुत सहमा-सहमा,
कड़क कॉफी की महक-सी
तुम ,मेरे भीतर गई समा.
नाजुक उंगलियों की छुअन तेरी
भर गई मुझमें चिर नरम -सिहरन
कहने का अंदाज़ नया वो
वो भोला -सा अपनापन.
पलकों के बंद कपाटों में
बेरोक तेरा आना- जाना.
भूल कहां पाया अब भी
दिन-रात तुम्हारा मुसकाना.
दिन बदले, दुनिया बदली
बदल गई तकदीरें भी.
मेरे जज़्बातों से खेलकर
तुम भी हो कुछ यूं बदली
नाम उछाल सरेआम हमारा
‘मी-टू’ सबसे हो कहती.
#पूनम कतरियार, पटना
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