गरीब खुश हुआ ,शाबासी देगा

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pradeep upadhyay
गरीब तब भी खुश था जब कहा गया था कि दिल्ली से एक रूपया चलता है और गरीब तक पन्द्रह पैसे ही पहुँचते हैं।गरीब तब भी खुश हुआ था,शाबासी दी थी।गरीब आज भी खुश है जब कहा जा रहा है कि दिल्ली से एक रूपया चलता है और गरीब तक सौ पैसे पहुँच रहे हैं।वह आज भी खुश हुआ है और शाबाशी दे रहा है। क्योंकि उसकी यही खुशकिस्मती है कि रूपया उसके लिए चल कर आ रहा है कितना निकला है और कितना पहुँचा है इसका टेंशन वह पाल भी नहीं रहा है।पहले भी नहीं पाला,आगे भी नहीं पालेगा।गरीब जानता है कि उसे कोई हिसाब नहीं लगाना है।क्योंकि उसके हिसाब लगाने से होना भी क्या है।पहले भी जो कहा गया, वह भी सच ही रहा होगा और आज भी जो कहा जा रहा है उसे भी सच तो मानना ही पड़ेगा।आखिर वह इन बातों को झूठा कैसे साबित कर सकता है।

गरीब और गरीबी के मसीहा तो चहुंओर हैं।जो सरकार में हों वे भी और जो विरोध में हों वे भी! क्योंकि गरीबी शाश्वत है और गरीब भी शाश्वत है और इन्हें बनाए रखने वाले भी। ये दोनों अन्योन्याश्रित जो ठहरे।आदमी पैसे से अमीर हो भी जाए तब भी उसके साथ गरीबी जुड़ी रहना लाजमी है।उसे दिल से गरीब होना ही पड़ता है।इसीलिये जब जेब से खर्च करने की बात आएगी तो आदमी को अपने दिल की गरीबी का ख्याल आ जाता है और जब किसी ओर के पैसे खरचना हो तो दिल दरिया हो जाता है तब तो रूपये पैसे को दरिया की तरह बहाया जा सकता है।सरकारी खजाना भी कुछ इसी तरह का दरिया है जिसे उसके काबिजदार दरिया की तरह बहा देते हैं।हाँ, इस खजाने के साथ बपौती की बात इसलिए नहीं जोड़ी जा सकती क्योंकि बपौती का धन ऐसे नहीं बहाया जाता।

बहरहाल,पैसा तो अपनी गति से अपनी सही जगह पहुँच ही जाता है।यह तो दरिया के पानी जैसा है,जहाँ जगह मिली अपनी जगह बना ही लेता है।बहते पानी को भला कोई रोक सका है आजतक!

वैसे भी गरीब आदमी को इस बात से कोई सरोकार भी नहीं कि ऊपर से कितना पैसा चला और कितना उस तक पहुँचा।क्योंकि जिस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था मानसून पर निर्भर करती है ठीक उसी तरह से गरीब का चूल्हा दिल्ली और उसके जैसी अन्य दरियाओं से बहने वाले रूपये पर निर्भर करता है।रूपया बहेगा तो चूल्हा जलेगा।पानी भी ऊपर से नीचे की ओर बहता है तो दूसरी ओर रूपया भी ऊपर से नीचे की ओर ही आता है।कुछ पानी भूखी प्यासी जमीन सोख लेती है तो कुछ हवा संग उड़ जाता है ऐसा ही कुछ रूपये के साथ भी है।कुछ रूपया बड़े पेट वाले भूखे प्यासे लोग डकार लेते है और कुछ हवा में लहराता रहता है,ठीक बिन बरसे मानसूनी बादलों की तरह!जब रूपया गरीब के पास पहुँचता है तो वह उसके अन्नदाता के नाम का चढ़ावा अलग से रखता ही है।वैसै भी गरीब के हिसाब में तो सौ पैसे ही लिखे जायेंगे न।जिसके नाम का पैसा उसी के खाते में ही तो चढ़ेगा!भेंट पूजा,चढ़ावा कभी अलग से तो दर्शाया भी नहीं जाता है।वह उसी के खाते में लिखा जाएगा तब भी वह खुश है।कम से कम रूपया उसके लिए चलकर आ तो रहा है,उसका बहाव अवरुद्ध तो नहीं हुआ है।

परिचय

नाम- डॉ प्रदीप उपाध्याय

वर्तमान पता- 16,अम्बिका भवन,उपाध्याय नगर, मेंढकी रोड,देवास,म.प्र.

शिक्षा – स्नातकोत्तर

कार्यक्षेत्र- स्वतंत्र लेखन।शासकीय सेवा में प्रथम श्रेणी अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त

विधा- कहानी,कविता, लघुकथा।मूल रूप से व्यंग्य लेखन

प्रकाशन- मौसमी भावनाएँ एवं सठियाने की दहलीज पर- दो व्यंग्य संग्रह प्रकाशित एवं दो व्यंग्य संग्रह प्रकाशनाधीन।

देवास(मध्यप्रदेश)

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