कसक बीते हुए लम्हों की
यादें उस गुलिस्तां की…
एक वक्त था जब घर के अहाते के अंदर बागीचे में तरह तरह के पेड़ पौधे हुआ करते थे। अलग अलग किस्म के पेड़ पौधों के लिए अलग अलग क्यारी बनी थी। 1950 में बाबूजी ने रक्सौल स्थित अपने निवास ‘शांति सदन’ के निर्माण के दौरान इस बाग का भी निर्माण कराया था। बाहरी दीवार पर एक मार्बल प्लेट लगा था जिस पर इस बाग का नाम खुदवाया गया था…#दुर्गा_बाग।
मुझे भी उन पेड़ पौधों से बेहद लगाव था। बचपन की कई मीठी यादें जुड़ी हैं इस फुलवारी के साथ…
अहाते के किनारे रातरानी की झुरमुठ सड़क पर आनेजाने वालों को मदहोश बना देती थी। मेन गेट पर एक धनुषाकार मेहराब बना था और दोनों तरफ लंबी लताओं वाली रातरानी के पौधे लगे थे। साल में पांच छः महीने खिलने वाले ये सफेद फूल बेहद खूबसूरत और लुभावने लगते थे। बाकी दिनों में इसके पत्ते झड़ जाते थे… केवल डालियाँ रह जाती थीं। मध्य क्यारी में पांच लौंगिया के पेड़ थे। पतले डालों वाला यह पेड़ काफी घना होता है। लौंग आकार के पतले लंबे और हल्के लाल रंग के फूलों के गुच्छे सारे पत्तों को ढक देते थे। क्यारियों में बेली चमेली कचनार के बीच कुछ दुर्लभ प्रजातियों के पौधे भी थे। सामने मेन गेट के दोनों तरफ गुलमोहर के पेड़ थे। खिलने के मौसम में इन फूलों की चादर सी बिछ जाती थी जमीन पर।
तीन चार घनेरे झौआ के पेड़ थे। एक कांटेदार झौआ भी था काफी लंबा घर के मेन गेट के ठीक दांयी तरफ। उसकी लकड़ी में चंदन की खुशबू आती थी। उस झौआ के साथ तो एक अजीब वाकया हुआ। कोई संत घर पर आये थे। आते ही बता दिया कि घर के सामने यह पेड़ रखना शुभ नहीं। उस पेड़ को हटाते हुए घर में सभी को दुःख हुआ था।
आम, अमरुद, अनार, शरीफा, नींबू के पेड़ों के साथ करौंदा के पेड़ भी थे। करौंदा खट्टा और बड़ा ही लजीज फल होता है… बागीचे के बीच में उसके दोनों पेड़ आस पास में थे। दिन भर आस पड़ोस के बच्चों की नजर उन रंग बिरंगे करौंदों पर लगी रहती थी। स्कूल से लौटने पर सहपाठियों के साथ बागीचे में बैठकर नमक के साथ करौंदे का मजा लेना हमारी रोजमर्रा में शामिल था। उसकी चटनी और अचार का तो क्या कहना…
90 का दशक आते आते मेन रोड पर ट्रैफिक कई कई गुना बढ़ चुका था। सड़क पर उड़ती धूल और प्रदूषण से इस बाग की रक्षा करना कठिन होने लगा। सुबह में पानी का छिड़काव भी कराया जाये तो शाम तक पत्तों पर धूल की परत जम जाती थी।
दिनों दिन देखभाल का काम मुश्किल होता गया। बागीचे के एक हिस्से में जब कुछ निर्माण कार्य आरंभ हुआ तो वहां से पेड़ पौधों को हटाने की विवशता भी हुई।
सबसे दुःखद यह हुआ कि बरसों पुराने पौधों को जब दूसरी जगह पर लगाने की कोशिश की गई तो अधिकांश पौधे नई जगह पर पनप नहीं पाये।
उन फूलों… उन पौधों… उन बीते हुए लम्हों की कसक दिल में हमेशा बनी रहेगी…यादें
#डॉ. स्वयंभू शलभ
परिचय : डॉ. स्वयंभू शलभ का निवास बिहार राज्य के रक्सौल शहर में हैl आपकी जन्मतिथि-२ नवम्बर १९६३ तथा जन्म स्थान-रक्सौल (बिहार)है l शिक्षा एमएससी(फिजिक्स) तथा पीएच-डी. है l कार्यक्षेत्र-प्राध्यापक (भौतिक विज्ञान) हैं l शहर-रक्सौल राज्य-बिहार है l सामाजिक क्षेत्र में भारत नेपाल के इस सीमा क्षेत्र के सर्वांगीण विकास के लिए कई मुद्दे सरकार के सामने रखे,जिन पर प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री कार्यालय सहित विभिन्न मंत्रालयों ने संज्ञान लिया,संबंधित विभागों ने आवश्यक कदम उठाए हैं। आपकी विधा-कविता,गीत,ग़ज़ल,कहानी,लेख और संस्मरण है। ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं l ‘प्राणों के साज पर’, ‘अंतर्बोध’, ‘श्रृंखला के खंड’ (कविता संग्रह) एवं ‘अनुभूति दंश’ (गजल संग्रह) प्रकाशित तथा ‘डॉ.हरिवंशराय बच्चन के 38 पत्र डॉ. शलभ के नाम’ (पत्र संग्रह) एवं ‘कोई एक आशियां’ (कहानी संग्रह) प्रकाशनाधीन हैं l कुछ पत्रिकाओं का संपादन भी किया है l भूटान में अखिल भारतीय ब्याहुत महासभा के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में विज्ञान और साहित्य की उपलब्धियों के लिए सम्मानित किए गए हैं। वार्षिक पत्रिका के प्रधान संपादक के रूप में उत्कृष्ट सेवा कार्य के लिए दिसम्बर में जगतगुरु वामाचार्य‘पीठाधीश पुरस्कार’ और सामाजिक क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए अखिल भारतीय वियाहुत कलवार महासभा द्वारा भी सम्मानित किए गए हैं तो नेपाल में दीर्घ सेवा पदक से भी सम्मानित हुए हैं l साहित्य के प्रभाव से सामाजिक परिवर्तन की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किए हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-जीवन का अध्ययन है। यह जिंदगी के दर्द,कड़वाहट और विषमताओं को समझने के साथ प्रेम,सौंदर्य और संवेदना है वहां तक पहुंचने का एक जरिया है।