ओ हक़ीक़तों की दुनिया,
मुझको मेरा यार लौटा दे..
संग हवा के खेलता था जो,
वैसा ही अखबार लौटा दे।
जाने किन रंगों से तुमने,
उसका वर्ण भिगो दिया है..
दिखलाकर कितने मोती,
सपनों मे यूं डुबो दिया है।
हमने भी तो खेली थी वो,
बिन रंगों की एक होली..
बिन फागुन आया था जो,
फिर से वो त्योहार लौटा दे..
मुझको मेरा यार लौटा दे।
कदमों को लंबा करके वो,
भाग-दौड़ करता है अब..
भूल गया पंखों का करतब,
रातों को भी चलता है अब।
हमने भी तो काटी थी रातें,
नापे थे जाने कितने विवर..
तोड़ रही है दम अपना जो,
फिर से वो पुकार लौटा दे..
मुझको मेरा यार लौटा दे।
#सत्येंद्र वर्मा