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हम तो कभी चला ना पाये,खंजर तानों के।
कैसे लोग चला लेते है, तीर जबानों के।।
शायद इसीलिए हर बेटी,रोज कुचल दी जाती है,,
बन्द झरोखे पड़े हुए है, सभी मकानों के।।
कैसे उनको घर कह दूँ,जिनमें बस होते ही शाम,,
जाम छलकने लगते है, सारे मयखानों के।।
कैसे कोई मीठा बोले,और करे मीठा व्यवहार,,
फीके है पकवान यहाँ सब,बड़ी दुकानों के।।
नफरत की राहों से”प्रियतम”अब किस किस को रोकूँ,,
दुश्मन सभी बने बैठे है, अपनी जानों के।।
#प्रखर शर्मा”प्रियतम”
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