एक कली थी , खिल रही थी ,
हँसती खिलखिलाती , हर फूलों से मिल रही थी ,
कभी सूरज से छुपछुपाती , कभी तितलियों संग इठलाती ,
रहती हमेशा , हँसती गुनगुनाती ।
वक़्त बीतता गया ,
समय बढ़ता गया ,
पर क्या पता था , बीतते वक़्त के साथ , मुस्कुराहट भी बीत जाएगी ,
क्या पता था , बीतते वक़्त में , वो भी खो जाएगी ।
एक दिन की बात हुई , वो वक़्त की रात हुई ,
एक हाथ उसकी ओर बढ़ा ,
वो डरी , सहमी , चिल्लाती रही ,
और वो हाथ , बस उसकी ओर बढ़ता गया , वो चीखती रही ,
कर दिया अलग , उसके पंखुड़ियों को , जो लहराते थे ,
कर दिया अलग उसे , उन पत्तों से , जो कभी वजूद थे उसके ।
सुना था कभी उसने द्रौपदी की कहानी ,
कोई तो होगा , जिसे आती होगी, गोविंद के कर्तव्य को निभानी !
फिर सोचा, मैंने आश भी किससे लगाया,
उस जहां के लोंगो से , जो अपने जहां का ही न हो पाया ,
उस जहां के लोगो से , जहाँ सिर्फ दु:शाशन भरे पड़े है ,
उस जहां के लोगो से , जहाँ गोविंद सिर्फ पन्नो में ही खड़े है ,
खो दिया अपने वजूद को ,
मिट गई उस कली की कहानी ,
जो कभी इठलाया करती थी ,खुद की ही जुबानी ,
फिर हुआ नया सवेरा ,
फिर एक नई कली खिली ,
पर उसकी कहानी भी ,
यूँ ही दु:शाशन तले ढ़ली ,
कब तक ढलेगी ये कलियाँ ?
कब तक होगा, इनका यूँ तिरस्कार ?
अब तो संभालना कलियों को ही है , खुद पर होता ये तिरस्कार ,
न गोविंद कभी आये थे , न गोविंद कभी आएंगे ,
खुद को अब दुःशाषणो से , हम खुद ही बचाएंगे ,
खुद का वजूद , खुद ही संभालना होगा ,
हर कलियों को , अब फौलादी बनाना होगा ।
#खुशबू कुमारी