। ले चलो ऐ ‘अश्व’ मुझको उस धरा के छोर, पाप रहित क्षेत्र हो; तम न हो; हो भोर। भ्रमण करता ‘क्षेत्र’ में; गर्दभ-मति लिए हुए, पशु,प्रेत बन भटक रहा अज्ञात; शून्य से परे। देखता हूँ ‘मन की हलचल’ लोचन का प्रकाश ले, कह न ‘बधिर’; सुन सका न-गूँज अन्तर्रात्मा […]
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(1) नमस्कार भी है नहीं,उनको क्यों स्वीकार। मेरी अच्छी पोस्ट भी,देते वह दुत्कार।। देते वह दुत्कार,रहें निज भौंहें ताने। तुले हुए जो लोग,झूठ को सत्य बताने।। कह सतीश कविराय,न उगलें निज गुबार भी। सरस नहीं स्वीकार,है जिनको नमस्कार भी।। (2) मंच दिलाने बढ़ रहे,प्रतिभाओं को चोर। कलियुग की महिमा सरस,फैली […]
