हे अर्जुन !
क्यों बैठे हो डरकर ?
मोह-माया में फँसकर,
कौन है तेरा अपना,कौन है पराया ?
सबको एक दिन जाना है,जो भी यहाँ आया,
तेरे उत्सुक नयनों पर,अज्ञान का पर्दा छाया।
तोड़ दो मोहमय बन्धन।
क्षण भर का है जीवनll
स्वर्ग का दरवाजा,खोलने तू आजा।
या सांसारिक सुख को,तौलने तू आजाll
बैठे-बैठे क्या करोगे ?
जग-जीवन में जहर भरोगे।
काम करोगे,नाम करोगे,
विश्व में महान बनोगेll
जो ‘सोच्य’ नहीं है उसे सोचते हो क्यों,
ज्ञानी हो,अज्ञानता को सींचते हो क्योंl
जहाँ ‘मैं’ है,वहाँ मैं नहीं,
इस भाव को समझो तो सही।
मैं था,मैं हूँ और रहूँगा मैं।
‘सर्वजन हिताय’ सदा चाहूँगा मैंll
बचपन,जवानी,बुढ़ापा,मौत झेलता है देह।
ओह! फिर भी इसमें फँसकर करता है स्नेहll
वर्षा से गल जाता है।
धूप से जल जाता हैll
ठण्ड से ठिठुरते हुए,
बसन्ती गीत गाता हैll
भूल जाओ जाति-पाति,धर्म,भेद,वर्ग।
समान रहोगे सुख-दु:ख में तभी मिलेगा स्वर्गll
तूफाँ आएगा,ढह जाएगी झूठ की झोपड़ी।
‘सावन’-सत्य इमारत रहेगी युगों तक खड़ीll
दिखा दो निज शक्ति,दिशाओं को कर दो भस्म।
सामने श्रद्धेय द्रोणा हों या पूजनीय भीष्मll
पूजनीय पर कैसे चला दूँ अधम बाण ?
भीख भले मांगूंगा,न लूँगा पुण्य-प्राणll
अरे! क्या वे डर जाएंगे ?
मारोगे ? मर जाएंगे ?
महामूर्ख !
है जो अविनाशी उसका तुम करोगे नाश ?
क्या मिट पाएंगे पावक,पानी,पवन,आकाश ?
चाहते हो नाश करना तो कर दो नाश।
बैठे-बैठे शुभ समय में मत करो बकवासll
युद्ध करो युद्ध,उठाओ धनुष,छोड़ो तीर।
निखर जाएगी आत्मा,बिखर जाएगा शरीरll
कोई कहता मर गया,
कोई कहता है मारा।
सुनो गुमसुम अर्जुन,
अज्ञानी है जग साराll
अजर-अमर व निराकार,
आत्मा की है शाश्वत सत्ता।
आत्मा निकले शरीर से,
ज्यों शरीर से कपड़ा-लत्ताll
न कटारी से कटे,न जले आग से।
न जल से भींगे,न सूखे त्याग सेll
नाश होगा,नाश होगा,होने दो।
सारी दुनिया रो रही है,रोने दोll
जगने वाला जगती में जगता है,
जो सोया उसे सपनों में खोने दोll
हे बलहीन बाहुबली,हे बजरंगबली !
एक दिन बनकर कुसुम,बिखरेगी यह कलीll
भूत में न भविष्य में,नश्वर शरीर है आज।
मध्य में ‘मैं-मैं’ कहे क्यों अहंकारी समाज ?
अचरज में पड़ा है देखो इन्द्रिय-लोक।
कभी झूमे खुशियों में,कभी करे शोकll
विनाशी में अविनाशी बसे,
मोह-माया रावण-सा हँसे।
दिग्भ्रमित दुनिया को देखो,
दिनों-दिन दुनिया में फँसेll
हे अर्जुन,
कर्म करो कर्मl
है कर्म तुम्हारा धर्मll
कहाँ जाओगे भागकर ?
कर्मों को त्यागकरll
कर्मों को त्यागकर,करो न घोर पाप।
हे ज्ञानी प्राणी! जरा सोचो अपने आपll
बिनु प्रयत्न खुल चुका है,स्वर्ग का दरवाजा।
दु:ख-दरिया को त्यागकर,सुख-सागर में समा जाll
बाद में पछताओगे सारा समय गँवाकर।
‘पश्चाताप’ ही पाओगे,स्व सद्कर्म भुलाकरll
इन्सानियत तेरा कर्म है,मानवता तेरा धर्म है।
दया,क्षमा,ममता इस जिन्दगी का मर्म हैll
बदनामी से अच्छी मौत,त्याग दो यह लोक।
लोक-परलोक में कहलाओगे-कायर,डरपोकll
मरकर स्वर्ग पाओगे,जीतकर धरती-धाम।
उठो-उठो हे वीर सपूत,कर दो काम तमामll
सुख मिले या दु:ख,जीत हो या हार।
पश्चाताप त्यागो,करो अरिदल का संहारll
‘अपना-अपना’ मत करो,हिम्मत से करो युद्धl
‘रण-क्षेत्र’ छोड़ भागोगे,बरसेंगे शब्द अशुद्धll
हे वीर अर्जुन !
ज्ञान-लोक में करके सैर।
कर्म-सागर में खुशी से तैरll
कर्म करो कर्म,लेकिन कर्म हो निष्काम।
धर्म,शील,सद्कर्म से मिलेगा मुक्ति-धामll
मनसा,वाचा,कर्मणा कर्म का हो ध्यान।
‘सावन’ सच्चा कर्मयोगी जग में पूज्य महानll
सदा करो सद्कर्म,मत करो कर्म का त्याग।
ज्यों करोगे फल की इच्छा,लग जाएंगे दागll
भूल जाओ हे योगी,सिद्धि व असिद्धि।
सद्कर्म करो फल सोचे बिन,पाओगे प्रसिद्धिll
कर्म-बन्धन में बँधो भले,पर मन में हो समता।
त्याग से नाता जोड़ो,तोड़ो मोह-माया से ममताll
दुर्गुणों के रज से,दूर रखो मन-दर्पण।
तभी स्थितप्रज्ञ संग सत्य का होगा दर्शनll
हे केशव ! स्थितप्रज्ञ प्राणी बोलता है किस तरह ?
उठता,बैठता,चलता,खिलता है किस तरह ?
`हे अर्जुन! स्थितप्रज्ञ प्राणी,सुख देता है त्याग।
स्थिर मन प्रकाशित होता,ज्यों दीपक अनुरागll
सुख मिले या दु:ख,करता नहीं परवाह।
आँख मूँदकर आगे बढ़ता,धूप हो या छाँहll
साधु सदा साधना करे,बैरागी करे न क्रोध।
मुनि मनावे मन को,तपस्वी सहे प्रतिशोधll
है वही स्थितप्रज्ञ,जिसका मन नहीं चंचल।
सुख में शान्ति से रहे,दु:ख में रहे निर्मलll
जिस तरह कच्छप,समेट लेता है अंगों को।
उसी तरह सत्पुरुष,समेट लेता है इन्द्रियों कोll
विषयों के विष से,बच जाने वाला प्राणी।
मोक्ष का अधिकारी है और है प्रज्ञा-ज्ञानीll
विषय से आसक्ति बढ़े,बढ़े कामना-क्रोध।
क्रोध से कुबुद्धि बढ़े,राग,द्वेष,प्रतिशोधll
पूर्णिमा की चाँदनी से स्वच्छ होवे प्रसाद।
चमचम-चमचम चित्त चमके,ज्यों निशा में चाँदll
बुद्धि नहीं तो भाव नहीं,भाव नहीं तो दु:ख।
दु:ख में शान्ति क्रान्ति करे,मिले न मुक्ति-सुखll
संसार-सागर,विषय-जल में,तेरे बुद्धि-नौका।
मन-पवन में फँसी कुबुद्धि,डूबी तो ‘सावन’ चौंकाll
हे विवेकी तोता ! विषय में क्यों तू खोता।
जग में जग जगता,तड़पता और संयमी सोताll
करो भोग का भोग,लेकिन बनो कभी ना भोगी।
घटो,न चढ़ो चोटी,ज्यों सागर,मुनि,योगीll
जिसका तन-मन-वचन,रहेगा सुन्दर-स्वच्छ।
उसको इसी जीवन में,मिलेगा परम मोक्षll
सुख मिले,न मिले,पर मन सुमन-सा खिले।
ममता रहित,समता सहित,तिनका-सा न हिलेll
हे पार्थ ! स्वार्थ,मोह,माया मिटाकर।
जीव परम सुख पाता,विधाता में समाकरll
#सुनील चौरसिया ‘सावन’
परिचय : सुनील चौरसिया ‘सावन’ की जन्मतिथि-५ अगस्त १९९३ और जन्म स्थान-ग्राम अमवा बाजार(जिला-कुशी नगर, उप्र)है। वर्तमान में आप काशीवासी हैं। कुशी नगर में हाईस्कूल तक की शिक्षा लेकर बी.ए.,एम.ए.(हिन्दी) सहित बीएड भी किया हुआ है। इसके अलावा डिप्लोमा इन कम्प्यूटर एप्लीकेशन,एनसीसी, स्काउट गाइड, एनएसएस आदि भी आपके नाम है। आपका कार्यक्षेत्र-अध्यापन,लेखन,गायन एवं मंचीय काव्यपाठ है तो सामाजिक क्षेत्र में नर सेवा नारायण सेवा की दृष्टि से यथा सामर्थ्य समाजसेवा में सक्रिय हैं। विधा-कविता,कहानी,लघुकथा,गीत, संस्मरण, डायरी और निबन्ध आदि है। अन्य उपलब्धियों में स्वर्ण-रजत पदक विजेता हैं तो राष्ट्रीय भोजपुरी सम्मेलन एवं विश्व भोजपुरी सम्मेलन के बैनर तले मॉरीशस, इंग्लैंड,दुबई,ओमान और आस्ट्रेलिया आदि सोलह देशों के साहित्यकारों एवं सम्माननीय विदूषियों-विद्वानों के साथ काव्यपाठ एवं विचार विमर्श शामिल है। मासिक पत्रिका के उप-सम्पादक भी हैं। लेखन का उद्देश्य ज्ञान की गंगा बहाते हुए मुरझाए हुए जीवन को कुसुम-सा खिलाना, सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार कर सकारात्मक सोच को पल्लवित-पुष्पित करना,स्वान्त:सुखाय एवं लोक कल्याण करना है। श्री चौरसिया की रचनाएँ कई समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।