पुलिस की वर्दी का ऐसा खौफ भी हो सकता है क्या? यह प्रश्न परेशान किए हुए है। जो घटना देखने-पढ़ने में आई है,वह यह कि इंदौर के विजयनगर थानाक्षेत्र स्थित कृष्णबाग कॉलोनी में रात में दो पुलिसकर्मी किसी रमेश नामक व्यक्ति का मकान तलाश रहे थे,वहीं मकान के नीचे रामकिशन नामक रिक्शाचालक खड़ा था। पुलिसवालों ने उससे रमेश का पता पूछा। यह सारा माजरा मकान की दूसरी मंजिल से गीताबाई पति रामकिशन देख रही थी। पति से पुलिसवालों की बातचीत देख वह घबरा गई। वह तेजी से नीचे की ओर आने लगी कि पैर फिसला, संतुलन बिगड़ा और दूसरी मंजिल से वह नीचे आ गिरी।वही पुलिस जवान और अन्य लोग उसे एमवायएच ले गए लेकिन बचाया न जा सका।तीन बच्चे और पति इस हादसे से अवाक हैं। क्या वाकई आमजन में खाकी वर्दी का इतना खौफ है? क्या पुलिस जवान किसी नागरिक से वर्दी में बातचीत भी करें,तो अन्य लोगों में यह प्रभाव ही पड़ता है कि निश्चित ही उस आदमी ने कोई अपराध किया होगा, पुलिस जवान उसी संदर्भ में पूछताछ कर रहे हैं। इस मामले में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में तो साबित होगा नहीं कि,मौत का कारण खाकी वर्दी का खौफ है। पुलिस अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके ऐसी शंका वाले कारण आधारित पीएम रिपोर्ट न आने दे,यह भी संभव है। जब तक कारण सामने नहीं आता,तब तक तो खाकी वर्दी का खौफ ही माना जाएगा,तो क्या मृतका के परिवार को किसी तरह की आर्थिक मदद का हक नहीं बनता? किसी वरिष्ठ अधिवक्ता के संज्ञान में ‘वर्दी के खौफ से हुई मौत’ का मामला आ जाए तो,यह मुकदमा अनूठा हो सकता है।या खुद पुलिस ही अपना संवेदनशील चेहरा आगे लाए और इस परिवार की मदद के लिए हाथ बढ़ाए। इस घटना पर मनोवैज्ञानिकों को भी चिंतन करना चाहिए कि, निरपराध आमजन के मन में खाकी का ऐसा खौफ आज तक दूर क्यों नहीं हो पाया है।पुलिस पर काम का दबाव, तनाव का ही यह आलम है कि,अधिकांश पुलिसकर्मी अपने बच्चों की बेहतर शिक्षा पर कम ध्यान दे पाते हैं। यह बात अलग है कि,स्कूलों में बच्चों के बीच खूब ज्ञान बांटते हैं।
खाकी के खौफ का इससे हास्यास्पद पहलू और क्या होगा कि,आज भी जब किसी के मकान में चोरी की वारदात होती है तो पीड़ित व्यक्ति पहले मोहल्ले,कॉलोनी के प्रभावी व्यक्ति से फोन लगवाकर रिपोर्ट लिखे जाने की सिफारिश करवाता है,फिर थाने में दाखिल होने का साहस करता है। यानी खाकी का खौफ जिन अपराधी तत्वों में होना चाहिए,वे तो बेखौफ होकर घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं, पुलिस से जमावट होने पर ही अदालत में पेश होने का इंतजाम कर लेते हैं,गिरफ्तारी हो भी जाए तो जुलूस-मारपीट से बचने के तरीके तलाश लेते हैं। सिर्फ पुलिस ही नहीं,सरकार और समाज को भी मिल-बैठकर सोचना चाहिए कि पुलिस और आमजन में दोस्ताना संबंध की कवायदें क्यों नहीं सफल हो रही हैं। गीताबाई की इस मौत से पुलिस को भी अपनी वर्दी, कार्य,व्यवहार पर मंथन का मौका मिला है। ऐसा क्यों होता है कि,ड्यूटी खत्म करके वह अपने घर में भी पुलिस जवान के रुप में ही प्रवेश करता है। गालियों की बौछार वहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ती, पिता-भाई की जिम्मेदारी निभाते हुए भी उसका अदृश्य पुलिसिया खौफ क्यों घर में भी मंडराता रहता है?
#कीर्ति राणा
परिचय:कीर्ति राणा,मप्र के वरिष्ठ पत्रकार के रुप में परिचित नाम है। प्रसिद्ध दैनिक अखबारों के विभिन्न संस्करणों में आप इंदौर, भोपाल,रायपुर,उज्जैन संस्करणों के शुरुआती सम्पादक रह चुके हैं। पत्रकारिता में आपका सफ़र इंदौर-उज्जैन से श्री गंगानगर और कश्मीर तक का है। अनूठी ख़बरें और कविताएँ आपकी लेखनी का सशक्त पक्ष है। वर्तमान में एक डॉट कॉम,एक दैनिक पत्र और मासिक पत्रिका के भी सम्पादक हैं।