मैं एक गृहिणी हूँ,और हिन्दी को राष्ट्रभाषा रूप में प्रचारित एंव प्रसारित होने और न हो पाने के कारणों पर मेरा दृष्टिकोण,भाषा अधिकारियों से वैभिन्यता रखता हो,उनकी दृष्टि में उतना तर्कसम्मत और वैज्ञानिक न हो,इसके बावजूद मेरा दृष्टिकोण एक आम भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व अवश्य करता है, ऐसा मेरा मानना है।
भारत सतरंगी संस्कृति का समागम है,कितनी भाषाएं, उपभाषाएं,आंचलिक भाषाएं यहाँ बोली जाती हैं,इसका आंकड़ा तो मुझे ज्ञात नहीं, इतना जानती हूँ कि,१५ प्रमुख भाषाओं को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त है। लोग अंग्रेजी को हिन्दी का कट्टर दुश्मन मानकर चल रहे हैं,पर अपने ही घर में हिन्दी अपने अस्तित्व के बचाव में जूझ रही है,यह भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।
कभी आठवीं अनुसूची में भोजपुरी शामिल के लिए अनशन,कभी राजस्थानी की मांग, ‘बोलियों’ के आधार पर नए राज्यों के गठन की मांग,कहीं ‘तेलंगाना’,तो कहीं ‘झारखंड’…ऐसे अनेक उदाहरण हैं। गौरतलब बात यह है कि जूझा किस समस्या से जाए???? घर के भेदी से? या विदेशी आक्रमणकारी से।
‘अनेकता में एकता’ की बात बड़े गर्व से ‘कलम’ से हम लिख देते हैं,पर क्या यह जुमला हमारे दिलों में अंकित है?????
एक वटवृक्ष-सी है ‘हिन्दी’,कई आंचलिक,क्षेत्रीय भाषाओं की शाखाएं इसे घनीभूत करती हैं,सशक्ता प्रदान करती है। और हम भाषाई राजनीति की कुल्हाड़ी बड़ी निर्ममता से चला रहे हैं।
अब करती हूँ बात अंग्रेजी भाषा की,तो जनाब भाषा कोई भी बुरी नहीं होती,जिसमें अभिव्यक्ति मुखरित हो, वही भाषा मधुर बन जाए,परन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान बनाकर किसी भाषा को जबरन बोलने और सीखने पर मजबूर कर देना,अभिव्यक्ति की मधुरता और स्वाभाविकता का गला घोंटता-सा दिखता है।
घरों में बच्चे के जन्म लेते ही माँ, ‘जो सार्वजनिक स्थलों पर अंग्रेजी बोलना सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक है’ की दुर्भावना से ग्रसित है,बच्चे द्वारा प्रथम उच्चारित शब्द ‘माँ’ नहीं ‘मम्मी’ सुनना पसंद करती है। ‘पिता’ के लिए ‘बाबा’, ‘बापू’ ‘बाबूजी’ न सिखाकर ‘पापा’ या ‘डैड” बोलना सिखाती है।
स्कूलों में अंग्रेज़ी ‘आसान वाक्यों’ वाले पर्चे वितरित किए जाते हैं,अविभावक-शिक्षक मिलन दिवसों पर शिक्षकों द्वारा यह ‘गुर’ दिए जाते हैं कि रोज़मर्रा में प्रयोग आने वाली चीज़ों के नामों के लिए अंग्रेज़ी शब्द व्यवहार में लाए जाएं।
मतलब आप अगर ठंडे दिमाग से सोचें तो पाएंगें कि- किस तरह से किसी भाषा को नसों में खून की तरह बहाया जा सकता है,वह मनोवैज्ञानिक खुराक़ हम ले रहे हैं।
ऐसी ‘मनोवैज्ञानिक खुराकें’ यदि ‘हिन्दी’ के लिए दी जाती तो आज ‘हिन्दी’ इतनी खस्ताहाल होकर अपने खिरते स्तर को बचाने की गुहार न लगाती पाई जाती।
तो बंधुओं और विस्तार की आवश्यकता नहीं, शायद,इसी से अनुमान लगा लिया जा सकता है कि-‘माॅम-डैड’ के प्रथम शब्द उच्चारण सीखने वाली संस्कृति के लोग जब नौकरशाह बन बैठते हैं,तब हम जैसे लोग ‘हिन्दी दिवस’ के आयोजनों पर हिन्दी के गिरते स्तर पर ‘चर्चा और उपाय पर अपने विचार लिखते नज़र आते हैं।
#लिली मित्रा
परिचय : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर करने वाली श्रीमती लिली मित्रा हिन्दी भाषा के प्रति स्वाभाविक आकर्षण रखती हैं। इसी वजह से इन्हें ब्लॉगिंग करने की प्रेरणा मिली है। इनके अनुसार भावनाओं की अभिव्यक्ति साहित्य एवं नृत्य के माध्यम से करने का यह आरंभिक सिलसिला है। इनकी रुचि नृत्य,लेखन बेकिंग और साहित्य पाठन विधा में भी है। कुछ माह पहले ही लेखन शुरू करने वाली श्रीमती मित्रा गृहिणि होकर बस शौक से लिखती हैं ,न कि पेशेवर लेखक हैं।