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९ अगस्त १९४६, माँ की उम्र उस समय २२ वर्ष १ माह और आठ दिन थी,वे प्रसव वेदना से जूझ रहीं थीं। गाडरवारा जो आज भी एक क़स्बा ही है,उस समय एक छोटे से व्यवस्थित गाँव की शक्ल लिए हुए था।
श्रावण माह समाप्त होने वाला था,किंतु अपनी विदाई से पहले वह संसार को अपने सौंदर्य के जलवे से अभिभूत करने की मुद्रा में था। पिछले चार दिनों से वर्षा, बिजली,बादल और सूर्य के बीच एक खेल-सा चल रहा था,सूर्य बादलों को फाड़ के धरती का श्रावण श्रंगार देखने के लिए मचल रहा था और बादल, भुवनभास्कर की सभी चेष्टाओं को विफल कर सूर्य को अपनी ओट में लिए हुए गरज कर अट्टहास करते हुए से आकाश में घूम रहे थे।
निरंतर होने वाली बरसात के कारण छब्बीस वर्षीय बाबूजी के लिए माँ को गाडरवारा से १५० किलोमीटर दूर सबसे नज़दीकी शहर जबलपुर ले जाना भी सम्भव नहीं था,किंतु बाबूजी ने निर्णय ले लिया था कि, चाहे कुछ हो जाए, वे कल सुबह माँ के साथ जबलपुर की ओर कूच कर जाएंगे।
उन्होंने ब्रह्ममुहूर्त से पहले उठ के अपनी सर्वाधिक प्रिय और विश्वस्त घोड़ियाँ ‘चंदा और बिजली’ का अपने हाथ से खुरहरा किया उन्हें खिलाया-पिलाया,एक भीषण और लम्बी यात्रा के लिए तैयार किया,स्वयं अपने हाथों से बग्घी को आरामदायक बनाया जिससे माँ जबलपुर तक की यात्रा बिना किसी कष्ट के आराम से सोते हुए कर सकें। साथ ही दाइयों के बैठने की व्यवस्था बनाई, सुरक्षा के लिहाज़ से एक और ताँगा तैयार किया,जिसमें घर के चार विश्वस्त सेवक उनके साथ यात्रा कर सकें। आज अभिनेता बन जाने के बाद जब अपनी वेनिटी वेन देखता हूँ ,तो मुझे बाबूजी की बग्ग़ियाँ याद आ जाती हैं जो इतनी ही सुविधा सम्पन्न हुआ करती थीं।
सुबह के क़रीब छः बज चुके थे,घर में जाग का माहौल था,क़ाफ़िला कूच की तैयारी में था। बाबूजी ने देखा कि, आसमान कल की अपेक्षा आज हल्की से लालिमा लिए हुए था। परमात्मा जैसे पुरुषार्थ से प्रभावित हो सदय जान पड़ते थे,मूसलाधार बरसात रिमझिम फुहार का रूप ले चुकी थी, माँ प्रसव के बोझ से मुस्कुराती हुई उठीं और बग्घी की ओर बढ़ने लगीं कि, तभी बुरी तरह उनके पेट में दर्द होना शुरू हुआ। उपस्थित दाइयों ने( जी हाँ,उस समय नर्स या प्रसूति विशेषज्ञ दाइयाँ ही हुआ करती थीं।) स्थिति की गम्भीरता को समझ माँ को तुरंत कमरे के अंदर लिया और दरवाज़े बंद कर लिए। दरवाज़े के बाहर बाबूजी बेहद बेचैन से चक्कर लगा रहे थे कि, उन्हें अचानक नवजात बच्चे के ‘कुहां- कुहां’ सुनाई दी, बच्चा माँ के गर्भ से निकल संसार में जन्म ले चुका था। उनके कान नवजात शिशु के रूदन की ओर लगे थे और आँखें आसमान की ओर, उन्होंने परमात्मा को धन्यवाद देने के लिए अपने दोनों हाथ जोड़ दिए-जी बाबूजी सूर्य के उपासक थे, और चार दिनों बाद अपने आराध्य सूर्यदेव को आकाश में चमकते देख वे आनंद से भर उठे। उन्हें विश्वास हो गया कि,तेजपुंज ने अपनी उपस्थिति से सब कुछ कुशल होने की आश्वस्ति दे दी है। तभी दाइयों ने दरवाज़ा खोला और बाबूजी के हाथ में बधाई देते हुए उनके पुत्र को रख दिया।बाबूजी अपने नवजात पुत्र को हाथ में लिए हुए सीधा माँ के पास उनके कक्ष में पहुँचे,माँ शांति से उन्हें देखकर मुस्कुरा दीं। बाबूजी भी बच्चे को हाथ में लिए हुए माँ को प्रेम से देखे जा रहे थे,माँ ने प्रसन्नता से पूरित बेहद धीमे स्वर में बाबूजी से पूछा-अपने इस पुत्र का नाम क्या रखेंगे ? बाबूजी कक्ष की खिड़की से कक्ष में पसरते हुए सूर्य के प्रकाश को देखे जा रहे थे,माँ अत्यंत शांति से उनके चेहरे के अनहद आनंद का रसपान कर रहीं थीं। बाबूजी जी ने नवजात शिशु को माँ के पार्श्व में रखते हुए पूछा-आपने क्या नाम सोचा है ? वे दोनों एक दूसरे की निशब्द मुस्कुराहट को जैसे पढ़ना चाह रहे थे कि, यकायक दोनों ही एक साथ बोले-प्रभात! हम इसे ‘प्रभात’ कहेंगे ! आज बहुत दिनों के बाद प्रभाकर की रश्मियाँ अपने चमकीले प्रकाश से सृष्टि के श्रावणीय सौंदर्य को निखार जो रहीं हैं।
और वे प्रभात हो गए, प्रभात भैया हम सभी भाइयों में सबसे बड़े थे। प्रभात- जिसका अर्थ ही प्रकाश, ज्ञान, सकारात्मकता होता है,जो ऊर्जा और सतत सक्रियता से भरा होता है। प्रभात भैया ने अपने नाम के अर्थ को अपने व्यक्तित्व में जैसे सिद्ध ही कर लिया था।
भारत के कई प्रांतों में बड़े भाई को ‘दादा’ भी कहा जाता है,किंतु माँ-बाबूजी को जैसे अपने इस पुत्र की प्रतिभा पर पूर्ण विश्वास था,इसलिए उन्होंने प्रभात के दादा सम्बोधन में भैया और जोड़ दिया था,तो हम सभी भाई-बहन ही नहीं, उनको जानने वाला प्रत्येक व्यक्ति छोटा-बड़ा,जवान, स्त्री-पुरुष या उम्र में उनसे दस बीस साल बड़े बुज़ुर्ग भी उन्हें ‘दादा भैया’ ही कहा करते थे। ९ अगस्त १९४६ के परतंत्र भारत में जन्म लेने वाले दादा भैया ने भारत की स्वतंत्रता के साथ ही अपने पैरों पर खड़े होकर चलना सीखा। वे भारत की आत्मनिर्भरता के साथ ही स्वयं भी आत्मनिर्भर होने के पाठ को सीख रहे थे। माँ-बाबूजी ने फ़ैसला किया कि,वे अपने इस बच्चे को समाज के उत्कर्ष के लिए समर्पित करेंगे, सो उन्होंने दादा भैया को पूरी स्वतंत्रता दी और दादा भैया जो जन्म से ही विवेकी, बुद्धिमान व्यक्ति थे,ने स्वयं को मिलने वाली स्वतंत्रता को जीवनपर्यन्त कभी भी स्वच्छंदता में नहीं बदलने दिया। एक तरफ़ वे बेहद कल्पनाशील कवि थे,तो दूसरी तरफ़ विकट तर्कशक्ति के स्वामी, उनके इन्हीं गुणों के कारण वे आध्यात्मिकता से सम्पन्न एक प्रखर सामाजिक विचारक के रूप में क्षेत्रभर में ख्यातिलब्ध हुए। कला,साहित्य, संस्कृति,राजनीति,लोकनीति,भाव और भाषा पर असाधारण अधिकार,नृत्य तथा संगीत की नैसर्गिक समझ,किसी भी विषय पर तर्कसंगत रोचक व्यावहारिक घंटों आख्यान देने की विलक्षण क्षमता के कारण वे हज़ारों लोगों के जनसमुदाय को मंत्रमुग्ध कर सम्मोहित करने में सुदक्ष थे। क्षेत्र में उन्हें एक बेहद निर्भीक बेबाक़ शेरदिल वक़्ता ही नहीं,एक प्रखर विचारक और चिंतक माना जाता था। मैंने अपने जीवन में कई महानतम व्यक्तियों को सामने बैठकर सुना है किंतु, विश्वास कीजिए इनमें से किसी में भी मुझे वो मोहनी दिखाई नहीं दी,जो दादा भैया के मुख से झरती थी। मेरा लिखना- पढ़ना,बोलना-सुनना या जिस अभिनय की कला के लिए मुझे प्रशंसा या देश के प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया,वह आदरणीय दादा भैया की अप्रतिम प्रतिभा का मात्र एक प्रतिशत भी नहीं है,जबकि ये सभी गुण मुझे उनके सानिध्य से ही प्राप्त हुए हैं। वे हम भाई- बहनों में बड़ी दीदी के बाद दूसरे क्रम पर आते थे और मैं अपने परिवार में सबसे छोटा। मेरे और उनके बीच २१ वर्ष का अन्तर था,किंतु जीवन के अंतिम क्षणों तक उन्होंने कभी हमारे बीच उम्र के इस अंतर को नहीं आने दिया,वे मुझसे से ही नहीं,मेरे दोस्तों के साथ भी बेहद दोस्ताना व्यवहार करते थे। उनके साथ चर्चारत होते हुए हर किसी व्यक्ति को यह लगता कि, वह अपने समवयस्क विद्वान मित्र से बात कर रहा है। एक दिन मैंने उनसे जिज्ञासा की कि,-दादा भैया आपकी इस व्यवहार नीति का मैं मुरीद हूँ,आप अपने आपको कैसे हर उम्र के व्यक्ति के साथ ढालकर सहज कर लेते हैं ? वे हँसते हुए बोले थे-छोटे भाई मैं तुम लोगों का सिर्फ़ दादा या मात्र भैया नहीं हूँ,मैं तुम लोगों का ‘दादा भैया’ हूँ। जो बड़ा भी है और तुम लोगों की बराबरी का भी है। दादा रहना चाहते हो तो भाई बनना सीखना होगा। बड़ा वही होता है, जिसे छोटा होने में एतराज़ न हो। तुम लोगों का साथ मुझे तरुणाई से भरता है और मेरा सानिध्य तुम लोगों में परिपक्वता का भाव जगाता है। जीवन की सफलता ही इसमें है जब परिपक्वता को तरुणाई की बहर मिले और तरुणाई को एक परिपक्व दृष्टि।
कवियों-मूर्धन्य साहित्यकारों का मंच हो या राजनीतिक सभा,आध्यात्मिक सत्संग हो या कुश्ती का अखाड़ा,दादा भैया जिस जगह खड़े होते,वहाँ के वातावरण में आनंद,सकारात्मकता का सैलाब उमड़ जाता। ईर्ष्या या प्रतिद्वंदिता जैसे नकारात्मक भावों से तो जैसे इनका परिचय ही नहीं था।
दादा भैया मुझसे अक्सर कहा करते कि, हमारे मित्र हमारे अभिमान का विषय होते हैं और हमारे विरोधी हमारे मान का। हम उलटा करते हैं अपने मित्रों को हम मान की कसौटी पर कसते हैं,तथा अपने विरोधी को अभिमान की दृष्टि से देखते हैं,इसलिए हमारे मित्र हमारे विरोधी हो जाते हैं एवं हमारे विरोधी हमारे शत्रु बन जाते हैं।
एक बेहद कारगर मंत्र जो उन्होंने मुझे लड़कपन में दे दिया था,जिसका मैं आज भी पालन करता हूँ वह ये कि,अगर बड़े सफल और नामचीन होना चाहते हो तो विरोध व्यक्ति का नहीं,उसके नकारात्मक विचार का करना चाहिए क्योंकि, व्यक्ति का दायरा सीमित और छोटा होता है, जिसमें उलझकर हम भी सीमित और छोटे हो जाते हैं,किंतु विचार व्यापक होता है। इसका विरोध करने पर या तो यह हमारा प्रसार करता है या परिष्कार करता है। मैंने आज तक अपने जीवन में उन्हें हतोत्साहित नहीं देखा,इच्छित लक्ष्य की पूर्ति न होने के बाद वे पहले से अधिक उत्साह और आशा से भर जाते थे। उनके इस व्यवहार को देख मुझे अचरज होता था जिसके शमन के लिए वे हँसते हुए कहते कि, ‘माँगो ऐसे जैसे अपने बाप की हो और नहीं मिला तो क्या वो अपने बाप का था ??’ सफलता और प्रसिद्धी की अपार क्षमता के बाद भी मैंने कभी उनको स्वयं की सफलता या प्रसिद्धी के लिए भागते हुए नहीं देखा, बल्कि किसी अन्य की सफलता के लिए वे जी-जान लड़ा देते थे। कुछ लोग स्वयं के स्वप्न की पूर्ति के लिए नहीं होते, बल्कि वे अन्य लोगों की सफलता का हेतु होते हैं,दादा भैया कई सफल लोगों की सफलता का हेतु भी रहे हैं और सेतु भी बने हैं।
व्यथित दुखी होकर कभी भी निष्क्रिय न होने वाले अखंड आस्थावान,परम आशावादी जिन्होंने अपने हिस्से में आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों के सामने अंत तक घुटने नहीं टेके,दुस्साहस की हद तक साहसी,दबंग किंतु शांति-सहिष्णुता-सौहार्द को अपने जीवन का मूलमंत्र मानने वाले जिनको सुनते हुए लोग घंटों नहीं अघाते थे,आज सदा के लिए मौन हो गए। निंद्रा को पराजित करने वाले जागरूक दादा भैया आज चिरनिंद्रा में लीन हो गए,मेरे दादा भैया ही नहीं,जिलेभर के आदरणीय दादा भैया आज सदा के लिए पंचतत्व में विलीन हो गए।
कुछ अनसंग हीरोज़ होते हैं,जो ख़ुद कभी प्रसिद्धी के प्रकाश से नहीं चमकते, किंतु अपनी प्रतिभा से वे आशुतोष राणा,आदरणीय रामेश्वर नीखरा जी जैसे न जाने कितने ही लोगों को माँज कर प्रकाशित,प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध होने योग्य बना देते हैं। दादा भैया आप हमारे ऐसे ही अनसंग हीरो हैं।
परमपिता परमात्मा पूज्य गुरुदेव से प्रार्थना है कि, वे आपकी आत्मा को सदगति प्रदान करें, और आप सदा के लिए जीवन-मरण के इस चक्र से मुक्त होकर परमपिता के अक्षुण्य प्रकाश की आभा से आलोकित हों। आपकी आत्मीयता से पूर्ण अशेष स्मृतियों सहित सादर चरण स्पर्श।
#आशुतोष राणा
परिचय: भारतीय फिल्म अभिनेता के रूप में आशुतोष राणा आज लोकप्रिय चेहरा हैं।आप हिन्दी फिल्मों के अलावा तमिल,तेलुगु,मराठी,दक्षिण भारतऔर कन्नड़ की फिल्मों में भीसक्रिय हैं। आशुतोष राणा का जन्म १० नवम्बर १९६७ को नरसिंहपुर के गाडरवारा यानी मध्यप्रदेश में हुआ था। अपनी शुरुआती पढ़ाई यहीं से की है,तत्पश्चात डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय से भी शिक्षा ली हैl वह अपनेमहाविद्यालय के दिनों में हीरामलीला में रावण का किरदार निभाया करते थे। प्रसिद्धअभिनेत्री रेणुका शाहने से विवाह करने वाले श्री राणा ने अपनेफ़िल्मी सफ़र की शुरुआत छोटे पर्दे से की थी। आपने प्रस्तोता के रूप में छोटे पर्दे पर काफीप्रसिद्धी वाला काम किया। हिन्दीसिनेमा में आपने साल १९९५ मेंप्रवेश किया था। इन्हें सिनेमा में पहचान काजोल अभिनीत फिल्म`दुश्मन` से मिली। इस फिल्म में राणा ने मानसिक रूप से पागल हत्यारे की भूमिका अदा की थी।आध्यात्मिक भावना के प्रबल पक्षधर श्री राणा की ख़ास बात यह है कि,दक्षिण की फिल्मों में भी अभिनय करने के कारण यहदक्षिण में `जीवा` नाम से विख्यात हैं। `संघर्ष` फिल्म में भी आपके अभिनय को काफी लोकप्रियता मिली थीl लेखन आपका एक अलग ही शौक है,और कई विषयों पर कलम चलाते रहते हैंl
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‘दादा भैया’ के सूर्य समान दैदिप्यमान व्तयक्तित्व को पढ़ एक अद्भुत शक्ति का संचार होता पाय,,। दादा भैया को सआदर नमन्,, आपकी लेखनी को आभार।