मातृ दिवस – मेरी माँ की वीर गाथा

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ये है देखो वीरगाथा,
मेरी प्यारी माँ की ही,
त्याग और तपस्या की है,
जीती जागती मूर्ति।

सरलता, सहजता उनकी,
एक नई सीख देती,
सकारात्मक बातें उनकी,
प्रेरणा का स्त्रोत बनतीं।

माँ-पिता की थी इकलौती,
अलबेली और अल्हड़–सी,
कर्मठता और लगन शीलता,
की थी वो प्रतिमूर्ति।

रसूखदार पिता की बेटी,
पढ़ने की शौक़ीन भी,
तैराकी, घुड़सवारी की,
बेहद वो शौक़ीन भी।

गाँव की उफनाती नदी को,
पार भी है कर जाती,
बीज लादकर घोड़े पर वो,
गाँव-गाँव में घूम आती।

चौदह वर्ष की बालापन में,
देखो तो है ब्याह गई,
अपनी कर्मठता के कारण,
सबकी चहेती बन गई।

सरल, सहज जीवन जीकर वो,
आगे ही बढ़ती रही,
विषम परिस्थितियों में भी,
मुस्करा कर खड़ी रही।

बचपन बीता लाड़-प्यार में,
फिर भी सरल, सहज–सी थी,
सकारात्मक सोच की,
शिक्षा सबको है देती।

सात बच्चों की परवरिश भी,
देखो हर क्षण हँसकर की,
सारे दु:ख-दर्द उसने तो,
भीतर अपने समेटे ही।

जीवन का एक हिस्सा फिर,
काला अध्याय है बना,
फिर भी एक वीर वाला सी ,
आगे ही बढ़ती रही।

पहले अपने पति को खोया,
बाद में फिर बेटा भी,
नियति के फिर क्रूर हाथों,
खोया अपना नाती भी।

जीवन के इस मोड़ पर,
कुछ विचलित–सी वो हुई,
अकथनीय–सी काली रात,
उसके हृदय को चीर गई।

किन्तु कुछ क्षणों के बाद,
हिम्मत फिर से बांध ली,
अपना धीरज न खोने की,
उसने तो प्रतिज्ञा की।

पुत्र वधू और पौत्रवधू के,
साथ हमेशा खड़ी रही,
परपोतियों की खातिर वो,
अपने आंसू पी गई।

उमर हुई पंचानवे की,
फिर भी ऊर्जा से भरी,
ढोलक की है थाप पर,
गाती ख़ूब गाना भी।

हर वक्त कुछ काम करो,
साथ में ख़ूब खेलो भी,
खाली हाथ कहीं न जाना,
उसकी तो है सीख भी।

याददाश्त तो आज भी ऐसी,
जिसका कोई सानी नहीं,
अंग्रेज़ों के समय की बातें,
सुनाती ज़ुबानी भी।

लिखने और पढ़ने की देखो,
आज भी शौक़ीन भी,
कहावतों–मुहावरों से,
सबका मन बहलाती भी।

पीहर और ससुराल में,
सब की ख़ूब चहेती भी,
हर उम्र के लोगों से,
रखती ख़ूब लगाव भी।

त्याग-तपस्या की है मूरत,
बलिदान की मूर्ति,
ये है मेरी माँ अलबेली,
मैं उसकी प्यारी बेटी।

#साधना छिरोल्या
दमोह (मध्य प्रदेश)

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