समाज में ज़रूरी है ऑटिज़्म विकृति के प्रति जागरुकता

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ऑटिज़्म जागरुकता दिवस (2 अप्रैल) विशेष

परिवर्तन प्रकृति का नियम है और स्वीकृति उस परिवर्तन का आगाज़। ऐसी ही कुछ स्वीकृति और जागरुकता की आवश्यकता है, ऑटिज़्म के प्रति भी। ऑटिज़्म मानसिक विकलांगता नहीं हैं, अपितु मस्तिष्क में न्यूरोलोजिकल असामान्य परिस्थित से उत्पन्न अवस्था है। न्यूरोलोजिकल डिसऑर्डर से तात्पर्य है कि हमारे मस्तिष्क में न्यूरोन्स और नर्वस सिस्टम का एक अलग प्रकार से प्रोसेसिंग करना। एक व्यक्ति के मानसिक नर्वस सिस्टम की जैसी संरचना होती है, उसकी तुलना मे आटिस्टीक व्यक्ति या बच्चे की वही संरचना उलझी हुई होती है। और मकड़ी के जाले के समान होती है, जिसे किसी भी साधारण बाहरी व्यक्ति देखकर सुलझा पाना मुश्किल है। परन्तु जिस मकड़ी का जाला है उसे उसके बारे मे संपूर्ण ज्ञान प्राप्त है। ऐसा ही व्यावहारिक डिसआर्डर है स्वलीनता (Autism), जिसमें बच्चा ख़ुद सिर्फ़ स्वयं में लीन रहता है। उसके लिये अपनी ही दुनिया होती है। अब प्रश्न यह है कि क्या ऑटिज़्म एक ऐसी बीमारी है, जिससे कभी उभरा नहीं जा सकता या जीवन भर अक्षमताओं का सामना करना मजबूरी है, फिर वो अक्षमताएँ मानसिक हों, स्वयं ऑटिस्टिक बच्चे की हों या फिर समाज द्वारा की गई अस्वीकृति और ग्लानि की हों। शुरूआती दौर में ऑटिस्टीक बच्चों में भावनात्मक लगाव की कमी होती है परन्तु भावनात्मकता का अभाव कदापि नहीं होता। ऑटिज़्म के आरंभिक लक्षण 3 साल तक की उम्र में दिखने शुरू होते हैं, जिसमें मुख्य लक्षण है दूसरे बच्चो के साथ ना खेलना, आई कॉन्टैक्ट (eye contact) ना होना या कम होना, नये लोगों के साथ और नई जगहों पर चिड़चिड़ा हो जाना। कुछ बच्चों में ऑटिज़्म के लक्षण 1.5- 3 साल की उम्र में मुख्य रूप से दिखाई देते हैं परन्तु कुछ बच्चों में ऑटिज़्म, रिग्रेशन (मूल जाना /पिछड़ना) के रूप मे आता है, जिसमें स्पीच रिग्रेशन (speech regression) मुख्य रूप से दिखाई देता है। और माता-पिता उसी रिग्रेशन को समझने की कोशिश करते हुये ऑटिज़्म से जा मिलते हैं।


सामान्य तौर पर एक अवधारणा है ऑटिज़्म को कभी ठीक नहीं किया जा सकता।(Autism can never be cured )
मैं व्यक्तिगत तौर पर इस कथन का समर्थन नहीं करती। आवश्यकता ऑटिज़्म को ठीक करने की नहीं, उसे स्वीकृत करके, उसे अपनाकर एक स्वतंत्र जीवन जीने की है। ठीक बीमारी को किया जाता है, यह एक डिसऑर्डर है, जिसे शायद ऐसा समझना उचित रहेगा कि 1- 10 की गिनती के क्रम को ईश्वर द्वारा अलग क्रम मे लिख दिया गया है जैसे 1,3,4,5,2,7…10और सभी
Autistic बच्चों में इसका क्रम अलग है। यदि अब हम इस क्रम को 1-10 के सही क्रम में लाने की कोशिक में लगे रहेंगे तो परिणाम शायद विफलता ही होगा। लेकिन यदि हम बच्चों को ये सिखा सकें कि क्रम की आवश्यकता ही नहीं, हमें हर एक अंक का महत्त्व पता होना चाहिये तो फिर भले ही सामान्य तौर पर बच्चे के लिये 1-10 की गिनती का क्रम कुछ भी हो, उन अंकों का महत्त्व समान होगा। समाज और माता-पिता को ये समझना और
उसके प्रति जागरुक होना आवश्यक है कि ऑटिस्टिक बच्चों को आपकी मदद की आवश्यकता है। उन्हें आश्रित करके नहीं अपितु रोज़मर्रा में संवेदना और सहयोग के द्वारा आपकी आवश्यकता है। ऑटिज़्म मे मदद के लिये डेवलपमेंटल न्यूरोलॉजिस्ट, ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट, स्पीच थैरेपी, साउण्ड थेरेपी म्यूज़िक थेरेपी, एप्लाइड बिहेवियर थेरेपी, ब्रेन जिमिंग एक्सरसाइज इत्यादि के टीम वर्क से की जा सकती है। दवाएं आमतौर पर फ़ोकस बढ़ाने और हाइपरएक्टिविटी कम करने को दी जाती है। कुछ ब्रेन टॉनिक, आयरन सप्लमेंट्स, फ़िश आयल, ओमेगा 3 भी सुधार सकते हैं। शोधकर्ताओ के अनुसार काऊ थेरेपी (cow therapy) भी ऑटिज़्म में काफ़ी मददगार साबित हो रही है।

A-Accepted
U-Universally
T-Together
I- Intelligence of
S-special
M- Mental ability

आज 2 अप्रैल को ऑटिज़्म जागरुकता दिवस है, इस दिन यह संकल्प लेना चाहिए कि हम समाज में जन जागरुकता का हिस्सा बनेंगे, ऑटिज़्म से जूझ रहे परिवारों के दोस्त बनकर उनकी सहायता करेंगे, तभी समाज को ऑटिज़्म के प्रति ज़िम्मेदार भी बनाएंगे और उन परिवारों को सबलता भी दे पाएंगे, जो इस समय इस विकृति की समस्या से जूझ रहे हैं।

#हिना सोनी
इन्दौर, मध्यप्रदेश

परिचय:
विधि विशेषज्ञ ( एलएलबी, एलएलएम, क्रिमिनल साइकोलॉजिस्ट, एटीसी) एवं लेखिका

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