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जमीं हमारी देश हमारा,
भूल हुई जो दिया सहारा।
आए थे सौदागर बनकर,
छुपे हुए हमलावर दल।
कर बैठे सौदे उस ईमान के,
लाल हम जिस देश महान के।
होकर परतन्त्र ग़ुलाम हुए तब,
सदियाँ बीतीं आजादी पाने में।
आज़ाद हुए जाकर हम तब,
आए फिरंगी फिर भेष बदल कर।
सौदे होते कुछ बैसे ही फिर अब॥
# विवेक दुबे
परिचय : दवा व्यवसाय के साथ ही विवेक दुबे अच्छा लेखन भी करने में सक्रिय हैं। स्नातकोत्तर और आयुर्वेद रत्न होकर आप रायसेन(मध्यप्रदेश) में रहते हैं। आपको लेखनी की बदौलत २०१२ में ‘युवा सृजन धर्मिता अलंकरण’ प्राप्त हुआ है। निरन्तर रचनाओं का प्रकाशन जारी है। लेखन आपकी विरासत है,क्योंकि पिता बद्री प्रसाद दुबे कवि हैं। उनसे प्रेरणा पाकर कलम थामी जो काम के साथ शौक के रुप में चल रही है। आप ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं।
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Fri Jun 9 , 2017
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