फौलादी देश को चट कर रही है मुफ्तखोरी जंग और वेतन विसंगतियां

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अह्म की संतुष्टि के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले राजनैतिक दलों ने देश को खोखला करके रख दिया है। ईमानदार लोगों की मेहनत की कमाई पर बेईमान लोगों को गुलछर्रे उडाने की सुविधा देने वालों ने एक बडी जनसंख्या को हरामखोरी की आदत डालना शुरू कर दी है। कभी गरीबी के नाम पर, तो कभी पिछडा और दलित होने के नाम पर समाज को बांटने वालों के मंसूबे तो केवल राजसत्ता हथियाने के ही रहे है। मध्यम वर्गीय ईमानदार करदाताओं पर नित नये कर लगाकर उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर करने की स्थितियां निर्मित की जा रहीं है। मंत्रालयों में मोटी पगार पाने वाले अधिकारी अपनी डियूटी निभाने के नाम पर लोगों की जिन्दगी को कठिनाइयों से लबरेज करने पर तुले हैं। वहीं सरकारें अपने सचिवों की योग्यता को संचित होने वाली धनराशि के पैमाने पर मापने लगीं हैं। उच्चवर्गीय लोगों के पास तो करों से बचने हेतु रास्ता खोजने वाले वकीलों की फौज होती है। दूसरी ओर गरीब होने के नाम पर चालबाज लोगों की एक बडी जमात करविहीन बिरादरी में शामिल होकर मुफ्तखोरी की चादर में मौज मना रही है। मुफ्त में राशन, मुफ्त में चिकित्सा, मुफ्त में शिक्षा, मुफ्त में जमीन, मुफ्त में मकान, मुफ्त में शौचालय, मुफ्त में तीर्थ यात्रा, मुफ्त में बिजली, मुफ्त में भोजन, मुफ्त में पानी, मुफ्त में रैनबसेरा, मुफ्त में कोचिंग जैसी स्थितियां निर्मित कर दी गईं हैं। सरकारों को सुझाव देने वाले बुध्दि, ज्ञान और विवेक के शिखर पर बैठे प्रशासनिक अधिकारियों ने तो हमेशा से ही सत्ता की मंशा के अनुरूप आचरण करके स्वयं के पौ बारह किये हैं। इसके कुछ अपवाद भी हो सकते हैं परन्तु आधिकांश की मानसिकता आज भी स्वयं के दायरे से बाहर नहीं निकली है। आखिरकार यह कब तक चलेगी यह मुफ्तखोरी? इस यक्ष प्रश्न का जबाब शायद ही किसी के पास हो। परजीवी लोगों की फौज तैयार करने वोटबैंक में बढोत्तरी करने की हमेशा से ही पहल होती रही है। कभी आरक्षण के नाम पर अयोग्य लोगों को सरकारी नौकरियों की सौगात दी गई तो कभी शोषित कहकर उन्हें सुविधाओं की मास्टर चाबी पकडा दी गई। योग्यता को कुण्ठित करने का कुचक्र स्वाधीनता के बाद से ही चलता रहा। परिणामस्वरूप प्रतिभाओं के पलायन ने तीव्र गति प्राप्त कर ली। स्वाधीनता के बाद से देश की लाखों प्रतिभाओं ने अपनी सुगन्ध से विदेशों को सम्मानित करवाया। देश के अन्दर तो कुर्सी की लडाई ने सभी सिध्दान्तों, आदर्शों और नीतियों को हाशिये पर पहुंचा दिया। कभी सम्प्रदायों को लडाने का षडयंत्र हुआ तो कभी जातिगत दंगे फैलाने के प्रयास किये गये। मुफ्त में सुविधायें पाने वालों ने मौज से बचे समय को असामाजिक कृत्यों में लगाकर धन के अत्याधिक संचय को लक्ष्य बना लिया है। सरकारों ने इस मुफ्तखोरी की भरपाई हेतु कभी परिवहन नियमों में बदलाव किये तो कभी करों में बढोत्तरी की नीति बनाई। कुल मिलाकर आम आवाम को सरकारी औपचारिकताओं में उलझाये रखने में माहिर अधिकारी अभी भी सरकारी खजाने भरने हेतु ईमानदारों पर शिकंजी करनेे की तैयारी मेें जुटे हैं। वहीं सरकारी नौकरियों में वेतन निर्धारण का मापदण्ड हमेशा से ही जीवन की सामान्य आवश्यकताओं के दायरे से बाहर विलासता के संसाधनों पर केन्द्रित रहा है। गांव-गांव, गली-गली परिश्रम करने वाली आशा कार्यकर्ता की हथेली बहुत आरजू मिन्नत करने के बाद चंद सिक्के आते हैं जब कि कुछेक छात्रों का दाखिला दिखा कर चलने वाले सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के बैक खातों में प्रतिमाह 60-70 हजार रुपये वेतन के नाम पर पहुंच रहा है। आशा की योग्यता और उपलब्धियों का मूल्यांकन करने के लिए अधिकारियों की एक लम्बी फौज खडी कर दी गई है जबकि सरकारी स्कूलों के अधिकांश शिक्षक स्वयं ही शुध्द इमला लिखने में शायद ही समर्थ हों। महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों की कक्षाओं से अक्सर गायब रहने वाले प्रवक्ताओं के खातों में प्रतिमाह लाख रुपये के आसपास की तनख्वाय पहुंच जाती है। आशा कार्यकर्ता हो या शिक्षक-प्रवक्ता, सभी को सामान्य रूप से भोजन, कपडा और मकान की आवश्यकता ही होती है। इस सभी कारकों पर सामान्य रूप से 5-6 हजार रुपये खर्च आता है, ज्यादा सुन्दर ढंग से जीवन यापन करने पर यही खर्च दो गुना हो सकता है। तो फिर योग्यता के नाम पर 10 से 12 गुना ज्यादा वेतन का निर्धारण क्यों किया जाता है। देश के नीति निर्धारक यह कब समझ पायेंगे कि मंहगाई के पीछे आवश्यकता से ज्यादा मिलने वाली धनराशि ही है। एक आशा कार्यकर्ता 30 रुपये किलो आलू खरीद कर लाती है किन्तु शिक्षक-प्रवक्ता उसी एक किलो आलू को कार में बैठे-बैठे ही 40 से 50 रुपये किलो में खरीदकर अपने अहम को संतुष्ट करता है। जो दूध आशा कार्यकर्ता 50 रुपये में खरीदती है वही दूध शिक्षक-प्रवक्ता के घर पर 80 रुपये किलो में आता है। कारण यह है कि आशा को महीने में बहुत मुश्किल से 5 हजार रुपये मिल पाते है जबकि शिक्षक-प्रवक्ता महोदयों को निविध्न रूप से मोटी राशि निरंतर मिल रही है। फौलादी देश को चट कर रही है मुफ्तखोरी जंग और वेतनविसंगतियां। इसके लिए देश को स्वयं करना होगा मंथन, लेने होंगे निर्णय और करवाना होगा उनका अनुपालन। तभी देश का वास्तविक विकास पटरी पर लौट सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नयी आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

डा. रवीन्द्र अरजरिया

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