आखिर बंदी की मार आम लोगो पर ही क्यूँ

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लाकडाउन या कर्फ्यू से पीड़ित हमारे शहर कस्वों के लोगो पर, जिनकी कमाई पर एक बार पुनः मार पड़ने वाली है ,क्योंकि कोरोना ने अपने पैर फैलाने शूरू कर दिए हैं।कुछ राज्यो की स्थिति विचलित करने वाली हो गयी है।महाराष्ट्र,छत्तीसगढ, पंजाब मध्यप्रदेश, दिल्ली,गुजरात आदि राज्यों के आंकड़े वेचैन कर रही है। कुछ राज्य ने इनकी स्थिति देखकर पहले से एहतियातन सर्तक हो गये है।वैसे देखा जाय तो इसकी बढ़ती रफ्तार ने एक बार फिर सभी को दहशत मे डाल दिया है और लोग विगत वर्ष की मार से उबरने की कोशिश कर ही रहे थे कि अब पुनः बंदी झेलना पड़ रहा है।

सभी नियम और मानक सिर्फ जनता पर ही लागू होते हैं क्या पश्चिम-बंगाल,असम,केरल,तमिलनाडू में कोरोना नही है या वहां कोरोना का कोई मापदंड तय नहीं है? वहां की रैलियों में लाखो लाख की भीड़ और सोशल डिस्टेसिग का पालन न होना समझ से परे है।

अब कोरोना के मामले बढ़ चले है ऐसे में क्या उन तमाम रैलीयो को रद्द न होना, क्या दोहरी मापदंड नही है? एक तरफ रैली- दूसरे तरफ बंदी, आखिर हो क्या रहा है,, इस देश में? जब नियम बने है तो उनका पालन हर जगह और शहर में होना जरूरी है । क्या ऐसी व्यवस्था नही जो इन रैली और प्रचारो पर रोक लगायी जाय? आखिर बढ़ते संक्रमण पर एक दूसरे पर दोषारोपण कर राज्य और केन्द्र कैसे पीछा छुड़ा सकती ?

बढ़ते आंकड़े चाहे कुछ भी कहे लेकिन सत्तासीन को इसका जवाब अवश्य देना होगा और वह भी जिम्मेदारीपूर्वक ? आने वाले समय में हर वह पीड़ित लोग मौजूदा हालात के लिए सवाल अवश्य पूछेंगे। चाहे शिक्षा जगत हो व्यवसायी हो कर्मचारी हो या मजदूर हो सभी के लिए मौजूदा सरकार से सवाल उमड़ रहे है जो आनेवाले समय मे विषाक्त होंगी।

आज हर वो शख्स परेशान है जो रोजाना काम करता था आखिर ऐसी दुर्दशा की जिम्मेदारी कौन लेगा जिसने बाजार और पूरी सिस्टम को ब्लाक कर दिया इन दो वर्षो में हालात और वेवसी के मंजरो ने मानवता को झकझोर दिया है।ऐसी भयावह और विकृत तस्वीर डरावनी लग रही है। जिसमें जीवन दुर्लभ और जटिलता से भरा हुआ है।आखिर बंदी की मार आम लोगों पर ही क्यूँ? क्या यह सही मायने में उचित है ?अगर है तो फिर चुनावों में इसकी अनदेखी क्यों?
आशुतोष
पटना बिहार

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