मज़दूरों से

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हम मेहनतकश मजदूरों से जब कोई लुक्मा छीनेगा
हो जितने ऊंचे आसन पर वो अपना ओहदा छीनेगा

वह जमा हुआ जो आसन है
जो सत्ता और सिंहासन है
जो केवल थोता भाषण है
जो रोके रस्ता शासन है
हम बढे चलेंगे दिल्ली तक क्या मेरा रास्ता छीनेगा
यह बेघर करने वाला ही कल अपनी दुनिया छीनेगा
हम मेहनतकश मजदूरों से…..

ये खेतों की हरियाली में
है मेहनत डाली डाली में
पर जीवन है बदहाली में
न होली न दिवाली में
कानून बनाकर वो मुझसे जब पत्ता पत्ता छीनेगा
हम नहीं हटेंगे रास्ते से वो मेरा बस्ता छीनेगा
हम मेहनतकश मजदूरों से…

हम जुल्मो सितम सब सह लेंगे
हम फूटपाथ पर रह लेंगे
वह रोकें भी तो बह लेंगे
जो हक़ है अपना कह लेंगे
हम देखेंगे कब तक वो मुझसे टुकड़ा टुकड़ा छीनेगा
हम बढ़े हैं हक़ की खातिर तो वह कितना धंधा छीनेगा
हम मेहनतकश मजदूरों से….

यह मुझको जो तड़पाते हैं
सब अन्न हमारे खाते हैं
हम उन तक सब पहुंचाते हैं
हम भूखे पर रह जाते हैं
बेशर्म है हम जैसों से वह जो पैसा पैसा छीनेगा
हम डटे हुए हैं मंजिल तक फिर कब तक दाता छीनेगा
हम मेहनतकश मजदूरों से…..

डॉ. जियाउर रहमान जाफरी

नालंदा (बिहार)

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