
जुबा पर अब तेरा ही
नाम बार बार आता है।
जुबा से एक शब्द भी
निकलता नहीं समाने।
ये कैसी मोहब्बत हम
कर बैठे इस जमाने में।
न तुम जानों मोहब्बत को
न हम जाने मोहब्बत को।
दिलो के धड़कनो को
मिला बैठे अपने दिलो से।
कभी तो रंग लायेगी
दिलो की ये धड़कने।
मोहब्बत तब शयाद
हमें समझ आ जायेगी।
चलती क्यों तुम अपने
नैनो से तीर सदा।
झलक आते है फिर
मेरी आँखो में आँसू।
तड़प उठता मेरा दिल
तुम्हारी चाहात में अब।
इरादा क्या है जानम
तुम्हारे प्यारे दिलका।
लगी है आग दोनो तरफ
बुझाओगे अब इसे कैसे।
कोई तो उपाय तुमने
सोचा होगा अपने दिलमें।।
जय जिनेंद्र देव
संजय जैन (मुंबई)