मुलाकाती

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“गरीब का कोई रिश्तेदार नहीं होता साब ” हमेशा की तरह डेविड का यही जवाब था और हो भी क्यों न, उसे इम्फाल की जेल में कैद हुए लंबा अरसा हो गया था पर अब तक उससे मिलने एक भी शख्स नहीं आया था। जेल की मोटी-मोटी दीवारें अब उसकी चिंता का सबब नहीं थीं। उसकी सारी रिस्तेदारी अब जेल के ओहदेदारों से ही थी।

सात साल से ऊपर का समय हो गया था उसे जेल में बंद हुए। पत्थर तोड़ता था बेचारा अपने गांव के ही पहाड़ पर… और अपनी रोजी रोटी चला ही लेता था लेकिन किसी मनहूस नजर का साया उसपर पड़ा और मिलिट्री वालों को उसके विद्रोही होने की झूठी सूचना दे दी गई। मैडल पसंद अफसर के लिये तो वह एक आसान टारगेट था ही..।

रातों रात उसे पकड़कर जब छावनी इलाके में लाया गया तब उसे अंदेशा भी नहीं था कि उसपर इतना बड़ा इलजाम मढ़ दिया जाएगा। घर में बूढ़ी माँ के सिवा उसका कोई नहीं था। पर उसकी माँ के लिए तो जैसे वही सबकुछ था।

उसके जेल आ जाने के बाद वो जिंदा भी होगी या नहीं इसका भी वो सिर्फ अंदाजा ही लगा सकता था।

एक दो दिन में छूट जाने की उम्मीद लिए वह इस जेल से उस जेल और अंततः राज्य की राजधानी इम्फाल तक आ गया। जिस माँ को वह एक पल के लिए भी छोड़ना नहीं चाहता था। उसी से इतनी लंबी दूरी हो गई थी कि वह चलते समय उसे एक बार अलविदा भी न कह पाया था। पहले तो उसे आभास भी नहीं था कि उसपर इतने संगीन आरोप लगा दिये जायेंगे पर हुआ बिल्कुल उलट … पहली ही पेशगी के दौरान जब न्यायाधीश ने उसपर लगे आरोपों की लिस्ट पढ़ी तो उसके पाँव के नीचे की जमीन खिसक गई। पसीने से सराबोर एक मजदूर बेटे को कब इतना खूंखार विद्रोही बना दिया गया, ये सवाल जायज तो था ही पर शायद तमगे के भूखे शिकारियों ने अपने आप से भी पूछा नहीं था।

“डेविड चलो तुमसे कोई मिलने आया है।” अर्दली ने आवाज लगाई…

मुझसे कौन मिलने आया होगा साब…. यकीन कर लीजिए मेरा तो दुनिया में एक बूढ़ी माँ के सिवा कोई है नहीं …. और वो यहाँ तक आ नहीं सकती , कारण कि एक तो वो इतनी पढ़ी लिखी नहीं है जो वो पता लगा सके कि मैं कहाँ हूँ। और दूसरा इतने पैसे भी तो नहीं हैं उसके पास…

लेक्चर बाद में झाड़ लेना… मिलना हो तो चलो वरना मना कर रहे हो तो मैं अभी रजिस्टर में लिख देता हूँ उसमें शाइन कर दो कि मुझे नहीं मिलना… संतरी ड्यूटी पर खड़े सिपाही ने धौंस जमाया।

“जिससे गॉड ही रूठा हो साब उससे आदमी सीधे मुंह बात क्यों करेगा?” चलिये साब जी… मिल ही लेता हूँ। डेविड उठा और दरवाजे की ओर चल पड़ा….

मुलाकाती कक्ष के अस्त ब्यस्त पड़े फर्नीचर हाथ लगाते ही इधर-उधर हिल डुल रहे थे। कुर्सियां दीवारों के सहारे इत्मिनान से तीन टांगो के सहारे आराम फरमा रहीं थी। डेविड उन्हीं में से एक पर विराजमान होकर मुलाकाती की प्रतीक्षा करने लगा…

सामने का दरवाजा खुला … “डेविड बेटा” आगंतुक के अधर कांप उठे…

डेविड विस्मय भाव से बस उन्हें देखता रहा… उसका बाप .. अरे नहीं नहीं… वो तो बचपन में ही गुजर गए थे।

बूढ़ा डेविड से लिपटकर रोने लगा ”बहुत ढूढ़ा बेटा… इस जेल से उस जेल इस थाने से उस थाने… पर तेरा कहीं पता नहीं चला.. रोते-रोते आंखे चली गईं। तेरी बोली सुनने की आस में कान भी बहरे हो गए पर मैंने कोशिश नहीं छोड़ी ….और देख आज परमेश्वर ने हमें मिला ही दिया।”

डेविड कहना चाहता था कि वो उसका डेविड नहीं है। पर शब्द हलक में ही अटक गए… वह बुजुर्ग की थक चुकी आंखों से बेटे के मिलने की खुशी छीनना नहीं चाहता था और वह भी उससे लिपट कर रोने लगा….!

#चित्रगुप्त

नाम- दिवाकर पांडेय ‘चित्रगुप्त’
जलालपुर( उत्तर प्रदेश )


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