एक पैगाम आपके नाम….

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नमस्कार दोस्तो,

मुझे नहीं पहचाना ! कैसे पहचानोगे, अरे आज जब मैं अपने-आप को आईने में देखता हूँ तो मैं ही अपने-आपको नहीं पहचान पाता हूँ, तो आप मुझे कैसे पहचानोगे ? दरअसल क्या है न ! जैसे एक बच्चा बचपन में कितना प्यारा लगता है लेकिन बड़े होते-होते देखो, उसका पूरा हुलिया ही बदल जाता है । बस ! कुछ यही हाल मेरा है ।

अभी भी लगता है कि शायद पूरी बात समझ नहीं आई, चलो ! विस्तार से बताता हूँ……….

आज से बहुत सालों पहले इस धरती पर मेरा स्वतंत्र अस्तित्व था । कोई और ऐसा न था जो मुझ पर राज करता हो । मैं अपने-आप का राजा था और मेरा क्षेत्रफल भी बहुत बड़ा था, लेकिन समय बलवान होता है । धीरे-धीरे बाहर के लोगों ने मुझे पहचाना, पहले तो वे मेरे पास आए और उन्होंने मेरे साथ काम करना चाहा तो मैंने सोचा इसमें क्या बुरा है यह तो अच्छी बात है मिलकर काम करेंगे तो ज्यादा काम कर पाएँगे और दो अच्छी बातें और सीखेंगे सो अलग !

इस चक्कर में मैंने दूसरों के साथ काम करना शुरू कर दिया लेकिन मेरी सोच का लोगों ने गलत अर्थ निकाला और धीरे-धीरे उन्होंने मेरे साथ काम करने के बजाय मुझे इस्तेमाल करना शुरू कर दिया क्योंकि अब हम साथ काम नहीं करते थे वो काम बताते थे और मैं काम करता था यानी कि अब वे मेरे मालिक बन बैठे थे और मैं उनका नौकर !

जब मुझे इस बात का एहसास हुआ तो मैंने विद्रोह किया और सफल भी हुआ । फिर मैंने उनके साथ काम करना बंद कर दिया लेकिन ऐसा एक बार नहीं, बार-बार हुआ; जब साथ काम करने और कुछ अच्छा नया सीखने की चाह में मैं औरों का गुलाम बन बैठा । हालांकि बाद में मैं स्वतंत्र हो जाया करता था लेकिन इस पराधीनता का नुकसान मुझे बहुत उठाना पड़ा और एक समय तो ऐसा आया जब मेरे साथ काम करने आए लोगों ने मुझे लम्बे अरसे तक गुलामी की जंजीरों में जकड़े रखा और जंजीरों से मुक्त भी किया तो अपाहिज बना कर !

हाँ ! उन्होंने मेरे अंदर बहने वाले ज्ञान के लाखों स्रोत ऐसे गुरुकुलों को जला डाला, लाखों शास्त्रों को जला डाला, मेरी भाषाओं को मेरे बच्चों के ज़हन से दूर कर दिया, यहाँ तक कि मेरी ही भाषाओं के प्रति ऐसा जहर घोल दिया कि आज यह तक सुनने में आ जाता है कि हिंदी-संस्कृत भाषाओं को बच्चे ओछा समझते हैं उनको बोलने-पढ़ने में उन्हें शर्म महसूस होने लगी है तब मन दुखी होता है ।

बात यहीं नहीं थमीं वे विकास के नाम पर अपनी नयी शिक्षा पद्धति से संस्कारों व वात्सल्य भावना  से विहीन स्वार्थपूर्ण, रूखी  व निष्ठुर विचारधारा मेरे बच्चों के मन-मष्तिष्क में भरते गये और मेरी संस्कृति और सभ्यता पर निरंतर चोट करते रहे ।

इसी का परिणाम है कि आज मेरे बच्चे मेरा नववर्ष ही भूल गए हैं, न सिर्फ नववर्ष अपितु कई सारे त्योहार, पर्व, आयोजन इत्यादि उन्हें याद ही नहीं हैं । उन्हें बस अंग्रेज़ी कैलेंडर वाला नववर्ष ही याद रहता है फिर भी मैं अपनी गुणग्राहकता की पुरानी आदत के कारण आज भी आपको इस नववर्ष की हार्दिक बधाइयाँ दे रहा हूँ क्योंकि दूसरों को गलत ठहराना या उनका विरोध करने की आदत मेरी कभी नहीं रही । लेकिन एक बात जरूर कहूँगा कि दूसरों के खातिर अपने को नहीं भूलना चाहिए  क्योंकि आज यह स्थिति बन गई है दूसरों का आदर करते-करते मेरा अपना आदर कहीं खो गया है दूसरों की इज्जत करते-करते मेरी अपनी इज्जत ही खो गई है दूसरे से अच्छी बातें सीखने के चक्कर में मेरी अपनी अच्छी बातें ही ना जाने कहाँ लुप्त हो गई हैं ।

ऊँचाइयों को छूने की चाहत में मैंने अपनी पतंग की डोर दूसरे के हाथ में थमा दी थी और यही कारण रहा कि विकास की चाह में डोर कभी इस हाथ तो कभी उस हाथ अर्थात् कभी इसकी गुलामी तो कभी उसकी गुलामी और गुलामी के बाद आजादी मिली भी तो ऐसी जैसे डोर काट के छोड़ दी हो, सो मेरी पतंग गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, तनाव, आक्रोश, आतंकवाद और ऐसी ढेरों समस्याओं की खाई में जाकर गिर पड़ी । आज अपनी पुरानी धरोहरों का अध्ययन करता हूँ तो ख्याल आता है कि ऊँचाईयों को छूने की चाहत हो तो पेड़ की तरह जमीन में गड़ना पड़ता है तभी शायद पेड़ की तरह सदियों तक ऊँचाईयों पर बने रह पायेंगे । इतना मिटाने पर भी जितना मैं आज बचा हूँ वो इसीकारण कि पहले मैंने जितनी ऊँचाइयों को पाया वो पेड़ की तरह जमीन में गड़ कर तथा अपनी जड़ों को मजबूत बनाकर ही छू पाया जो आज तक किसी न किसी रूप में बरकरार है । यदि आगे भी मुझे अपना अस्तित्व बरकरार रखना है तो पुनः अपनी जड़ों के पास जाना होगा । इस नये वर्ष पर आप मुझे अपनी जड़ों के पास ले जाने में मदद करोगे इसी भावना से अपनी बात पूरी करता हूँ ।

आपका प्यारा भारतवर्ष

कृपया भारतवर्ष का यह निवेदन हर भारतवासी तक पहुँचाए…

साकेत जैन शास्त्री ‘सहज’
जयपुर(राजस्थान)

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