
नया वर्ष था।कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। परंतु एक प्रश्न के कारण मेरे पसीने छूट रहे थे,कि मैं अपनी पुस्तक ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ अपने मित्र समूह, परिवारिक सदस्यों एवं शुभचिंतकों को मुफ्त कैसे दूँ?
जिसके कारण बार-बार बुद्धिजीवी लेखकों पर क्रोध आ रहा था।जिन्होंने पुस्तकें मुफ्त बाँटने की कुप्रथा चलाई हुई थी।जो क्रोध का मुख्य कारण था।क्रोध पर नियंत्रण करने का जितना प्रयास करता उतना ही शूक्ष्म विषाणुओं की भाँति बढ़ रहा था।
फलस्वरूप कला,भाषा एवं साहित्य अकादमी जम्मू-कश्मीर व साहित्य अकादमी नई दिल्ली के साथ-साथ भारत का कल्चरल मंत्रालय भी क्रोध के लपेटे में आ रहा था।क्योंकि यह अपने संवैधानिक नियमों पर खरे नहीं उतर रहे थे।उदाहरण के तौर पर स्पष्ट करना चाहता हूँ कि संविधान आर्थिक रूप से कमजोर लेखकों को पुस्तक छपवाने हेतु ‘सब्सिडी’ अर्थात आर्थिक सहायता देने के पक्ष में है,जबकि कलाकार लेखक अपनी कला की दक्षता के कारण संवैधानिक नियमों को ताक पर रखकर भारी-भरकम ‘सब्सिडी’ अर्थात आर्थिक सहायता लेने में सफल हो जाते हैं। जिससे वह मुफ्त पुस्तकें बांटने की कुरीतियों को जन्म देते आए हैं।भले ही अकादमियों सचिव स्तर के वरिष्ठ अधिकारी इस प्रश्न के लपेटे में हैं कि वे अधिकारी वास्तव में मूर्ख हैं या भ्रष्ट?
अब बुद्धिजीवी पाठक मुझे मार्गदर्शन करें कि कड़े परिश्रम से कमाए धन द्वारा प्रकाशित पुस्तकें मुफ्त कैसे दूँ?
#इंदु भूषण बाली
जम्मू कश्मीर