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हर राष्ट्र में राज्य की भाषा भी होती है लेकिन एक राष्ट्रभाषा भी होती है जो पूरे राष्ट्र में बोली जाती है। जापान में जापानी लोग अंग्रेजी भाषा का बिल्कुल भी प्रयोग नहीं करते। वह अपनी जापानी भाषा ही बोलते हैं तो क्या जापान ने तरक्की नहीं की। जर्मनी में जर्मन बोली जाती है। जर्मनी तरक्की करने में किसी देश से पीछे नहीं हैं। हमारे देश ने रामायण काल से लेकर महाभारत काल में बेहिसाब तरक्की की थी। जो प्रक्षेपास्त्र आज बन रहे हैं, उनका वर्णन महाभारत काल में भी मिलता है। ब्रह्मोस मिसाइल का नाम हम आज सुनते हैं। ब्रह्मास्त्र शब्द आपने महाभारत में भी कई बार सुना होगा।आग्नेयास्त्र, वरूणास्त्र, वायवास्त्र, पाशुपतास्त्र, एकघ्नि आदि आदि। अंग्रेज हमारे देश में आए। उन्होंने यहाँ पर हिंदी और संस्कृत सीखने के लिए मसूरी के लंडौर में एक स्कूल की स्थापना की और वहाँ हिंदी और संस्कृत सीखी।वह स्कूल आज भी मसूरी के लंडौर में है।अंग्रेजों ने हमारे ही वेद उपनिषदों को पढ़कर अनुसंधान किए और हमारे किए गए अनुसंधानों को अपना नाम दिया।
दूसरी बात देश को आजाद हुए 70 वर्ष हो गए। हम आज तक भी गुलामी मानसिकता में जी रहे हैं। अंग्रेजी बोलने वालों को हम पढ़ा लिखा समझते हैं और हिंदी बोलने वालों को भोंदू या अनपढ़। यह हमारी गुलाम मानसिकता का परिचायक नहीं तो और क्या है? यदि हम यह सोचें कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन सकती है तो हमारी हिंदी अंतर्राष्ट्रीय भाषा क्यों नहीं बन सकती? अफसोस! हम तो उसे राष्ट्रभाषा तक नहीं बना पाए तो अंतर्राष्ट्रीय भाषा तो अभी दूर की बात है।
हमारे देश क अधिकतर भागों में क्या, बल्कि सभी राज्यों में हिंदी बोली और समझी जाती है। यह बात अलग है कि कुछ राज्यों में हिंदी लिखी नहीं जाती लेकिन बोली सभी जगह जाती है और सभी समझ भी जाते हैं, लेकिन हमारी अपनी मानसिकता आड़े आती है।आजकल के माता पिता भी अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा दिलाने में विश्वास करते हैं।उनके अपने सपने होते हैं कि बच्चा अंग्रेजी पढ़ेगा तो अच्छी शिक्षा मिलेगी। बाहर जाकर ऊँची नौकरी प्राप्त कर पाएगा।वे यह नहीं सोचते कि बच्चा विदेश में रहेगा तो क्या वापस स्वदेश आएगा? फिर तो माता-पिता को अकेला छोड़कर परदेश में ही रहेगा। लेकिन आजकल के माता पिता को कितना ही समझाओ उनकी समझ में यह बात नहीं आती। उनको सिर्फ यह समझ आता है कि बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाएंगे तभी वह कुछ बन पाएंगे। सच्चाई यह है कि बच्चे न इधर के रहे हैं न उधर के।अंग्रेजी तो सीख ली लेकिन संस्कार नदारद हैं।हिन्दी के भी न तो पहाड़े आते और न ही गिनती आती है। उनसे यह पूछा जाए बीस तो *पूछेंगे बीस कितने होते हैं*, तो बताना पड़ता है *ट्वैंटी*।माता पिता बड़े गर्व से कहते हैं कि हमारे बच्चों को हिंदी नहीं आती। मुझे शर्म आती है ऐसे माँ -बाप पर और उनकी ऐसी सोच पर। अरे! *जिस देश की या राज्य की अपनी स्वयं की कोई भाषा नहीं होती, वह उस रूपवती भिखारिन की तरह होता है जिसकी कोई इज्जत नहीं होती।*
किसी देश की भाषा ही उस राष्ट्र की पहचान है।ठीक है कि कुछ शब्द, जो हमारे रोज की आम बोलचाल की भाषा में रच-बस गए हैं हमें उनको भी अपना लेना चाहिए तभी हम सहज रूप से बोल पाएंगे। बुद्धिजीवियों का भी दायित्व है कि वे चिकित्सा विज्ञान और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए हिंदी के ऐसे शब्दों का चुनाव करें जो भारी भरकम न हों और आसानी से समझ में आ जाएँ।और यह काम पूरी ईमानदारी से और बिना ढीलढाल के जल्दी से जल्दी होना चाहिए।
आज युवा इतनी तेजी से आगे बढ़ने को आतुर दिखता है कि उसे धैर्य धारण करने और स्वाध्याय के लिए समय ही नहीं है। वह मशीन की तरह बने बनाए रास्तों पर चलना चाहता है जो उसे अंत में निराशा हताशा डिप्रेशन के मार्ग पर ले जाकर भटका देते हैं। मैं यह नहीं कहती कि अंग्रेजी मत सीखो। मैं सभी भाषाओं का सम्मान करती हूँ। ऐसे ऐसे लोग भी हुए हैं जिन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था। हमारे राष्ट्रपति डॉक्टर राधाकृष्णन 15 भाषाएं जानते थे।यायावर राहुल सांस्कृत्यायन को सोलह भाषाएं आती थीं।जितनी मर्जी भाषाएँ सीखो, कोई मनाही थोड़े ही है, लेकिन अपनी भाषा जरूर आनी चाहिए। जिस व्यक्ति को अपनी मातृभाषा नहीं आती…..
जो अपनी राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं कर सकता ….
किसी भी भाषा का सम्मान करे, बेमानी है।
भाषा वास्तव में सीखी नहीं जाती, अर्जित की जाती है। इसमें परिवेश की सबसे बड़ी भूमिका होती है। इसीलिए अंग्रेजी जानने के लिए माहौल बनाने की बात की जाती है; किंतु अपनी भाषा के लिए ऐसा क्यों नहीं होता??????
#राधा गोयल
परिचय-
नाम:- राधा गोयल
पति का नाम:- श्याम सुंदर गोयल
निवास स्थान:-नई दिल्ली-110018
शिक्षा- स्नातक
संक्षिप्त परिचय: —
हमारे परिवार में लड़कियों को ज्यादा पढ़ाना ठीक नहीं समझा जाता था। आठवीं कक्षा तक सरकारी स्कूल में पढ़ाई की। आगे पढ़ने के लिए लगातार एक महीने तक खुशामद करने के पश्चात पत्राचार माध्यम द्वारा पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा दी व प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुई। फिर पढ़ाई की बंदिश; किंतु पढ़ने की ललक के कारण मैंने भी हठ पकड़ ली और पत्राचार माध्यम द्वारा ही पंजाब यूनिवर्सिटी से सन 1964 में हायर सेकेंडरी की परीक्षा दी तथा पूरी दिल्ली में टॉपर रही।आगे पढ़ने की बिल्कुल भी इजाजत नहीं मिली।
लेखन के प्रति बचपन से ही रुचि थी, लेकिन मेरा यह शौक किसी को भी पसंद नहीं था। 1970 में सात बहन भाइयों के मध्यम वर्गीय परिवार में विवाह हुआ।ससुर का देहांत 1965 में हो चुका था।पति परिवार में सबसे बड़े हैं।परिवार की जिम्मेदारियों ने कभी मेरे शौक की तरफ मुझे झाँकने का अवसर ही नहीं दिया।अब सभी जिम्मेदारियाँ पूरी करके अपने शौक को पुनर्जीवित किया है।पति आधुनिक विचारों के हैं। उनकी इच्छा थी कि मैं आगे पढ़ूँ अतः 1986 में पत्राचार माध्यम से बी.ए किया तथा पूरी यूनिवर्सिटी में द्वितीय स्थान प्राप्त किया।
समाज कल्याण के कामों के प्रति बहुत जुनून है और गम्भीर बीमारी होने के बावजूद मेरा जुनून मुझे जीवित रखता है।
प्रकाशित कृतियाँ:-
1-काव्य मंजरी(एकल काव्य संग्रह)
2-पाती प्रीत भरी भाग-1(एकल पुस्तक)
3-एक एकल काव्य संकलन *निनाद* व दूसरा *आक्रोश* प्रकाशनाधीन है।
4-कई सांझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
-सम्मान
कभी गिने नहीं।पाठकों को मेरा लिखा हुआ पसन्द आए,यही सबसे बड़ा सम्मान है।
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